युगन्धर (उपन्यास): Difference between revisions
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युगन्धर (उपन्यास)
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लेखक | शिवाजी सावंत |
मूल शीर्षक | युगन्धर |
प्रकाशक | भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी 2004 |
ISBN | 81-263-1344-7 |
देश | भारत |
भाषा | मराठी |
विधा | उपन्यास |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
युगन्धर एक प्रसिद्ध उपन्यास है जिसके रचयिता शिवाजी सावंत हैं। भारतीय उपन्यास-साहित्य में लोकप्रियता के शिखर पर प्रतिष्ठित उपन्यास ‘मृत्युंजय’ के रचनाकार शिवाजी सावंत की लम्बी अन्वेषी साधना का सुफल है यह उनका बहुप्रतीक्षित उपन्यास-‘युगन्धर’।
कथानक
श्रीकृष्ण-अर्थात् हजारों वर्षों से व्यक्त एवं अव्यक्त रूप से भारती जनमानस में व्याप्त एक कालजयी चरित्र - एक युगपुरुष । श्रीकृष्ण-चरित्र के अधिकृत संदर्भ मुख्यतः श्रीमद्-भागवत, महाभारत, हरिवंश और कुछ पुराणों में मिलते हैं। इन सब ग्रन्थों में पिछले हजारों वर्षों से श्रीकृष्ण-चरित्र पर सापेक्ष विचारों की मनगढ़न्त परतें चढ़ती रहीं। यह सब अज्ञानवश तथा उन्हें एक चमत्कारी व्यक्तित्व बनाने के कारण हुआ। फलतः आज श्रीकृष्ण वास्तविकता से सैकड़ों योजन दूर जा बैठे हैं। 'श्रीकृष्ण’ शब्द ही भारतीय-जीवन प्रणाली का अनन्य उद्गार है।[1]
युगन्धर पुरुष
आकाश में तपता सूर्य जिस प्रकार कभी पुराना नहीं हो सकता, उसी प्रकार महाभारत कथा का मेरुदण्ड-यह तत्त्वज्ञ वीर भी कभी भारतीय मानस-पटल से विस्मृत नहीं किया जा सकता। जन्मतः ही दुर्लभ रंगसूत्र प्राप्त होने के कारण कृष्ण के जीवन-चरित्र में, भारत को नित्य नूतन और उन्मेशशाली बनाने की भरपूर क्षमता है। श्रीकृष्ण-जीवन के मूल संदर्भों की तोड़-मरोड़ किये बिना क्या उनके युगन्धर पुरुष रूप को देखा जा सकता है क्या ? क्या उनके स्वच्छ, नीलवर्ण जीवन-सरोवर का दर्शन किया जा सकता है ? क्या गीता में उन्होंने भिन्न-भिन्न युगों का मात्र निरूपण किया है ? सच तो यह है कि श्रीकृष्ण के जीवन-सरोवर पर छाये शैवाल को तार्किक सजगता से हटाने पर ही उनके युगन्धर रूप के दर्शन हो सकते हैं।[1]
लेखक कथन
जिस के लिए-‘तुम न होती तो ?’ यह एक ही प्रश्न है मेरे ‘होने’ का-मेरे अस्तित्व का निर्विवाद उत्तर, और विपरीत स्थितियों में भी जिसने कर्तव्य-तत्पर होकर ज्येष्ठ बन्धु श्री विश्वासराव की मदद से मंगेश, तानाजी और मैं- हम तीनों भाइयों के जीवन को आकार दिया, और इसके लिए हँसमुख रहकर कष्टसाध्य परिश्रम करते हुए जिसके पाँवों में छाले पड़ गये-अपनी उस (स्व) मातुश्री राधावाई गोविन्दराव सावन्त के वन्दनीय चरणों को स्मरण करके;
-और मराठी के ख्यातश्रेयस, सापेक्षी, ज्येष्ठ बन्धुतुल्य प्रकाशक श्री अनन्तराव कुलकर्णी, उनके सुपुत्र अनिरूद्ध रत्नाकर तथा समस्त कॉण्टिनेण्टल प्रकाशन परिवार का स्मरण करके;
-और जिसने यह प्रदीर्घ रचना श्रीकृष्ण-प्रेम अथक निष्ठा से लिपिबद्ध की जिसने प्रिय कन्या सौ. कादम्बिनी पराग धारप और चि. अमिताभ को अच्छे संस्कार दिये, जो मेरे लिए पहली परछाई और मेरा दूसरा श्वास ही हैं- अपनी पत्नी सौ. मृणलिनी अर्थात कुन्दा को साक्षी रख के;
- सभी पाठकों के साथ-साथ उसे भी प्रिय लगे ऐसे शब्दों में कहता हूँ- श्रीकृष्णार्पणमस्तु ! ---शिवाजी सावंत[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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