सन्धिनी -महादेवी वर्मा: Difference between revisions

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==पुस्तकांश==
==पुस्तकांश==
"‘सन्धिनी’ में मेरे कुछ गीत संग्रहीत हैं। काल-प्रवाह का वर्षों में फैला हुआ चौड़ा पाट उन्हें एक-दूसरे से दूर और दूरतम की स्थिति दे देता है। परन्तु मेरे विचार में उनकी स्थिति एक नदी-तट से प्रवाहित दीपों के समान है। दीपदान के दीपकों में कुछ, जल की कम गहरी मन्थरता के कारण उसी तट पर ठहर जाते हैं, कुछ समीर के झोके से उत्पन्न तरंग-भगिंमा में पड़कर दूसरे तट की दिशा में बह चलते है और कुछ मझधार की तरंगाकुलता के साथ किसी अव्यक्त क्षितिज की ओर बढ़ते हैं। परन्तु दीपकों की इन सापेक्ष दूरियों पर दीपदान देने वाले की मंगलाशा सूक्ष्म अन्तरिक्ष-मण्डल के समान फैल कर उन्हें अपनी अलक्ष्य छाया में एक रखती है। मेरे गीतों पर भी मेरी एक आस्था की छाया है। मनुष्य की आस्था की कसौटी काल का क्षण नहीं बन सकता, क्योंकि वह तो काल पर मनुष्य का स्वनिर्मित सीमावरण है। वस्तुतः उनकी कसौटी क्षणों की अटूट संसृति से बना काल का अजस्त्र प्रवाह ही रहेगा। 'सन्धिनी’ नाम साधना के क्षेत्र में सम्बन्ध रखने के कारण बिखरी अनुभूतियों की एकता का संकेत भी दे सकता है और व्यष्टिगत चेतना का समष्टिगत चेतना में संक्रमण भी व्यंजित कर सकेगा।"<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=2397 |title=सन्धिनी|accessmonthday=2 अप्रॅल |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language= हिंदी}} </ref>
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Latest revision as of 14:10, 2 April 2013

सन्धिनी -महादेवी वर्मा
कवि महादेवी वर्मा
मूल शीर्षक सन्धिनी
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 2002 (नया संस्करण)
देश भारत
पृष्ठ: 165
भाषा हिंदी
प्रकार काव्य संग्रह
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द

सन्धिनी महादेवी वर्मा की 65 कविताओं का संग्रह है, जिसका पहला संस्करण 1964 में प्रकाशित हुआ।

पुस्तकांश

"‘सन्धिनी’ में मेरे कुछ गीत संग्रहीत हैं। काल-प्रवाह का वर्षों में फैला हुआ चौड़ा पाट उन्हें एक-दूसरे से दूर और दूरतम की स्थिति दे देता है। परन्तु मेरे विचार में उनकी स्थिति एक नदी-तट से प्रवाहित दीपों के समान है। दीपदान के दीपकों में कुछ, जल की कम गहरी मन्थरता के कारण उसी तट पर ठहर जाते हैं, कुछ समीर के झोके से उत्पन्न तरंग-भगिंमा में पड़कर दूसरे तट की दिशा में बह चलते है और कुछ मझधार की तरंगाकुलता के साथ किसी अव्यक्त क्षितिज की ओर बढ़ते हैं। परन्तु दीपकों की इन सापेक्ष दूरियों पर दीपदान देने वाले की मंगलाशा सूक्ष्म अन्तरिक्ष-मण्डल के समान फैल कर उन्हें अपनी अलक्ष्य छाया में एक रखती है। मेरे गीतों पर भी मेरी एक आस्था की छाया है। मनुष्य की आस्था की कसौटी काल का क्षण नहीं बन सकता, क्योंकि वह तो काल पर मनुष्य का स्वनिर्मित सीमावरण है। वस्तुतः उनकी कसौटी क्षणों की अटूट संसृति से बना काल का अजस्त्र प्रवाह ही रहेगा। 'सन्धिनी’ नाम साधना के क्षेत्र में सम्बन्ध रखने के कारण बिखरी अनुभूतियों की एकता का संकेत भी दे सकता है और व्यष्टिगत चेतना का समष्टिगत चेतना में संक्रमण भी व्यंजित कर सकेगा।"[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सन्धिनी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 2 अप्रॅल, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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