धर्मशास्त्र: Difference between revisions

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धर्मशास्त्र की तकनीकी मुख्यत: विभिन्न परंपराओं में तालमेल बैठाकर, यदि आवश्यक हो तो व्याख्या<ref>मीमांसा</ref> के लिए परंपरागत [[विज्ञान]] को उपयोग में लाकर प्राचीन [[ग्रंथ|ग्रंथों]], सिद्धांतों वाक्यों या ॠचाओं को बताना है। धर्मशास्त्र सुनिश्चित की जा सकने वाली परंपराओं को<ref>यदि [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के अनुसार इनका प्रयोग जीवन के सिद्धांतों के विरुद्ध न हो</ref> जीवन में लागू करने की अनुमति देता है। पूजा – पाठ करने वाले पुरोहित वर्ग के विशिष्ट समर्थन ने उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में सदियों से धर्मशास्त्र के कार्यान्वन को वैध बना दिया।
धर्मशास्त्र की तकनीकी मुख्यत: विभिन्न परंपराओं में तालमेल बैठाकर, यदि आवश्यक हो तो व्याख्या<ref>मीमांसा</ref> के लिए परंपरागत [[विज्ञान]] को उपयोग में लाकर प्राचीन [[ग्रंथ|ग्रंथों]], सिद्धांतों वाक्यों या ॠचाओं को बताना है। धर्मशास्त्र सुनिश्चित की जा सकने वाली परंपराओं को<ref>यदि [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के अनुसार इनका प्रयोग जीवन के सिद्धांतों के विरुद्ध न हो</ref> जीवन में लागू करने की अनुमति देता है। पूजा – पाठ करने वाले पुरोहित वर्ग के विशिष्ट समर्थन ने उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में सदियों से धर्मशास्त्र के कार्यान्वन को वैध बना दिया।
==धर्मशास्त्र का इतिहास==
==धर्मशास्त्र का इतिहास==
पश्चिमी देशों के लोगों को सबसे पहले 18वीं शताब्दी में प्राच्यविद् और न्यायविद् सर विलियम जोन्स ने धर्मशास्त्र से परिचित कराया था। उनका अनुसरण करने वाले बहुत से लोगों, उदाहरणार्थ सर हैनरी मैने<ref>1822-88</ref> का मानना था कि धर्मशास्त्र एक तरीक़े से पुरोहितों की रचना थी, जिसका उद्देश्य [[शूद्र]] और अछूत जैसी निचली जाती के लोगों को उच्च जाति के लोगों के नियंत्रण में रखना था। [[जर्मनी]] और [[इटली]] के विद्वानों ने ख़ासकर, जी. बुहलर, जूलियस जॉली और गुइसेप्पे मज्ज़ारेल्ला ने धर्मशास्त्र के अध्ययन के बाद, इसके मनोवैज्ञानिक और सामाजिक महत्व पर ज़ोर दिया। भारतीय विद्वान पी.वी. काने ने इन परंपराओं का विश्वकोशीय अध्ययन तैयार किया।
पश्चिमी देशों के लोगों को सबसे पहले 18वीं शताब्दी में प्राच्यविद् और न्यायविद् [[विलियम जोंस|सर विलियम जोन्स]] ने धर्मशास्त्र से परिचित कराया था। उनका अनुसरण करने वाले बहुत से लोगों, उदाहरणार्थ सर हैनरी मैने<ref>1822-88</ref> का मानना था कि धर्मशास्त्र एक तरीक़े से पुरोहितों की रचना थी, जिसका उद्देश्य [[शूद्र]] और अछूत जैसी निचली जाती के लोगों को उच्च जाति के लोगों के नियंत्रण में रखना था। [[जर्मनी]] और [[इटली]] के विद्वानों ने ख़ासकर, जी. बुहलर, जूलियस जॉली और गुइसेप्पे मज्ज़ारेल्ला ने धर्मशास्त्र के अध्ययन के बाद, इसके मनोवैज्ञानिक और सामाजिक महत्व पर ज़ोर दिया। भारतीय विद्वान पी.वी. काने ने इन परंपराओं का विश्वकोशीय अध्ययन तैयार किया।
   
   
धर्मशास्त्र संभवत: यहूदी क़ानून जितना ही पुराना है,<ref>यदि धर्मशास्त्र की जड़े वास्तव में [[वेद|वेदों]] तक हैं, तो और भी पुराना</ref> लेकिन इसके स्त्रोतों तक आसानी से पहुँचा जा सकता है, जो विविध है और कम कूटबद्ध हैं। इन पहलुओं और ख़ासतौर पर इनके अधिकतम प्रचलन व दीर्घजीविका के दृष्टिकोण से यह रोमन क़ानून से भिन्न है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने अपने विचारों को वास्तविक रूप में लागू करके और पूर्ववर्तियों की अवधारणाओं का परिचय देकर धर्मशास्त्र को प्रभावित किया। इसके अलावा विदेशी शासन के कारण कई त्वरित सामाजिक बदलाव आए और विभिन्न समायोजन आवश्यक हो गए। उदाहरण के लिए, विधिसम्मत तलाक़ की स्थिति तथा पिता की मृत्यु के बाद लड़कियों को भी लड़कों की तरह संपत्ति में समान हिस्सा मिलने के सवाल पर धर्मशास्त्र में कोई प्रावधान नहीं था। इसके लिये नए [[ग्रंथ]] लिखे जाने की आवश्यकता होती, जो संभव था। इसलिए शुरू में संक्षिप्त रूप से और बाद में<ref>1955-56</ref> व्यापक रूप से न्यायालयों में लागू क़ानूनी व्यवस्था को बदला गया। धीरे-धीरे न्यायधीशों का [[संस्कृत]] ज्ञान कम होता गया समकालीन तथा महानगरीय न्यायिक व सामाजिक अवधारणाओं ने प्राचीन ग्रंथों का स्थान ले लिया।  
धर्मशास्त्र संभवत: यहूदी क़ानून जितना ही पुराना है,<ref>यदि धर्मशास्त्र की जड़े वास्तव में [[वेद|वेदों]] तक हैं, तो और भी पुराना</ref> लेकिन इसके स्त्रोतों तक आसानी से पहुँचा जा सकता है, जो विविध है और कम कूटबद्ध हैं। इन पहलुओं और ख़ासतौर पर इनके अधिकतम प्रचलन व दीर्घजीविका के दृष्टिकोण से यह रोमन क़ानून से भिन्न है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने अपने विचारों को वास्तविक रूप में लागू करके और पूर्ववर्तियों की अवधारणाओं का परिचय देकर धर्मशास्त्र को प्रभावित किया। इसके अलावा विदेशी शासन के कारण कई त्वरित सामाजिक बदलाव आए और विभिन्न समायोजन आवश्यक हो गए। उदाहरण के लिए, विधिसम्मत तलाक़ की स्थिति तथा पिता की मृत्यु के बाद लड़कियों को भी लड़कों की तरह संपत्ति में समान हिस्सा मिलने के सवाल पर धर्मशास्त्र में कोई प्रावधान नहीं था। इसके लिये नए [[ग्रंथ]] लिखे जाने की आवश्यकता होती, जो संभव था। इसलिए शुरू में संक्षिप्त रूप से और बाद में<ref>1955-56</ref> व्यापक रूप से न्यायालयों में लागू क़ानूनी व्यवस्था को बदला गया। धीरे-धीरे न्यायधीशों का [[संस्कृत]] ज्ञान कम होता गया समकालीन तथा महानगरीय न्यायिक व सामाजिक अवधारणाओं ने प्राचीन ग्रंथों का स्थान ले लिया।  

Revision as of 14:08, 27 August 2014

धर्मशास्त्र एक संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ "पवित्र क़ानून या उचित आचरण का विज्ञान" है। विधिशास्त्र की प्राचीन भारतीय व्यवस्था, जो आज भी भारत के बाहर रहने वाले हिंदुओं[1] के लिए परिवार क़ानून का आधार है और प्रचलन में है। इसमें क़ानूनी संशोधन हो सकते हैं। धर्मशास्त्र का सीधा संबंध वैधानिक प्रशासन से नहीं, बल्कि प्रत्येक दुविधापूर्ण स्थिति में आचरण के उचित मार्ग से है। फिर भी ख़ासकर बाद के विवरणों में अदालतों और उनकी कार्यवाहियों पर विचार किया गया है। पारंपरिक वातावरण में पले-बढ़े अधिकांश हिंदू, धर्मशास्त्र के कुछ मूलभूत सिद्धांतों से परिचित हैं। इनमें यह मान्यता भी शामिल है कि कर्तव्य अधिकार से बड़ा है। इसके साथ-साथ ये कर्तव्य जाति विशेष में एक व्यक्ति के जन्म के अनुसार अलग-अलग होते हैं और महिलाएँ अपने सबसे नज़दीकी पुरुष के संरक्षण में रहती हैं तथा राजा[2] को अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए।

धर्मशास्त्र का साहित्य

संस्कृत में लिखे गए धर्मशास्त्र का साहित्य वृहद है। इसे तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है–

  1. सूत्र
  2. स्मृति, जिनमें मनुस्मृति[3] संभवत: सर्वाधिक प्रसिद्ध है
  3. निबंध[4] और वृत्ति[5]

निबंध और वृत्ति विधि-सलाहकारों के लिए बनाए गए न्याय से संबंधित कार्य हैं और विभिन्न सूत्रों तथा स्मृतियों के बीच सामंजस्य की दक्षता को प्रदर्शित करते हैं, ऐसे निबंधों में सबसे प्रसिद्ध मिताक्षरा है, जिसे चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ के दरबार में विघ्नेश्वर ने संकलित किया था।

आधुनिक धर्मशास्त्र

भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे 'धर्मशास्त्र' पर 1906 ई. से कार्य कर रहे थे। इनमें 'धर्मशास्त्र का इतिहास' सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध है। पाँच भागों में प्रकाशित बड़े आकार के 6500 पृष्ठों का यह ग्रंथ भारतीय धर्मशास्त्र का विश्वकोश है। इसमें ईस्वी पूर्व 600 से लेकर 1800 ई. तक की भारत की विभिन्न धार्मिक प्रवृत्तियों का प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। हिन्दू विधि और आचार विचार संबंधी उनका कुल प्रकाशित साहित्य 20,000 पृष्ठों से अधिक का है।

धर्मशास्त्र की तकनीकी मुख्यत: विभिन्न परंपराओं में तालमेल बैठाकर, यदि आवश्यक हो तो व्याख्या[6] के लिए परंपरागत विज्ञान को उपयोग में लाकर प्राचीन ग्रंथों, सिद्धांतों वाक्यों या ॠचाओं को बताना है। धर्मशास्त्र सुनिश्चित की जा सकने वाली परंपराओं को[7] जीवन में लागू करने की अनुमति देता है। पूजा – पाठ करने वाले पुरोहित वर्ग के विशिष्ट समर्थन ने उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में सदियों से धर्मशास्त्र के कार्यान्वन को वैध बना दिया।

धर्मशास्त्र का इतिहास

पश्चिमी देशों के लोगों को सबसे पहले 18वीं शताब्दी में प्राच्यविद् और न्यायविद् सर विलियम जोन्स ने धर्मशास्त्र से परिचित कराया था। उनका अनुसरण करने वाले बहुत से लोगों, उदाहरणार्थ सर हैनरी मैने[8] का मानना था कि धर्मशास्त्र एक तरीक़े से पुरोहितों की रचना थी, जिसका उद्देश्य शूद्र और अछूत जैसी निचली जाती के लोगों को उच्च जाति के लोगों के नियंत्रण में रखना था। जर्मनी और इटली के विद्वानों ने ख़ासकर, जी. बुहलर, जूलियस जॉली और गुइसेप्पे मज्ज़ारेल्ला ने धर्मशास्त्र के अध्ययन के बाद, इसके मनोवैज्ञानिक और सामाजिक महत्व पर ज़ोर दिया। भारतीय विद्वान पी.वी. काने ने इन परंपराओं का विश्वकोशीय अध्ययन तैयार किया।

धर्मशास्त्र संभवत: यहूदी क़ानून जितना ही पुराना है,[9] लेकिन इसके स्त्रोतों तक आसानी से पहुँचा जा सकता है, जो विविध है और कम कूटबद्ध हैं। इन पहलुओं और ख़ासतौर पर इनके अधिकतम प्रचलन व दीर्घजीविका के दृष्टिकोण से यह रोमन क़ानून से भिन्न है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने अपने विचारों को वास्तविक रूप में लागू करके और पूर्ववर्तियों की अवधारणाओं का परिचय देकर धर्मशास्त्र को प्रभावित किया। इसके अलावा विदेशी शासन के कारण कई त्वरित सामाजिक बदलाव आए और विभिन्न समायोजन आवश्यक हो गए। उदाहरण के लिए, विधिसम्मत तलाक़ की स्थिति तथा पिता की मृत्यु के बाद लड़कियों को भी लड़कों की तरह संपत्ति में समान हिस्सा मिलने के सवाल पर धर्मशास्त्र में कोई प्रावधान नहीं था। इसके लिये नए ग्रंथ लिखे जाने की आवश्यकता होती, जो संभव था। इसलिए शुरू में संक्षिप्त रूप से और बाद में[10] व्यापक रूप से न्यायालयों में लागू क़ानूनी व्यवस्था को बदला गया। धीरे-धीरे न्यायधीशों का संस्कृत ज्ञान कम होता गया समकालीन तथा महानगरीय न्यायिक व सामाजिक अवधारणाओं ने प्राचीन ग्रंथों का स्थान ले लिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उदाहरणार्थ: पाकिस्तान, मलेशिया और पूर्वी अफ़्रीका
  2. विस्तृत रूप में राज्य
  3. दूसरी शताब्दी ई. पू. से दूसरी सदी ई.पू.
  4. विभिन्न हिस्सों से लिए गए समृति के श्लोकों का सार
  5. प्रत्येक ग्रंथ की टीका
  6. मीमांसा
  7. यदि ब्राह्मणों के अनुसार इनका प्रयोग जीवन के सिद्धांतों के विरुद्ध न हो
  8. 1822-88
  9. यदि धर्मशास्त्र की जड़े वास्तव में वेदों तक हैं, तो और भी पुराना
  10. 1955-56

बाहरी कड़ियाँ

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