श्राद्ध: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (1 अवतरण)
No edit summary
Line 1: Line 1:
==श्राद्ध / Shradh==
==श्राद्ध / Shradh==
{{tocright}}
{{tocright}}
Line 50: Line 49:
[[Category:संस्कृति कोश]]
[[Category:संस्कृति कोश]]
[[Category:पर्व और त्योहार]]
[[Category:पर्व और त्योहार]]
[[Category:कर्मकांड]]
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 13:29, 28 March 2010

श्राद्ध / Shradh

'मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों।
साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक,
चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।' - वायु पुराण

श्राद्ध क्या है?

श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रृध्दा भाव से मन्त्रों के साथ जो (दान-दक्षिणा आदि ) दिया जाय, वही श्राध्द कहलाता है।

श्राध्द के देवता

वसु, रुद्र और आदित्य श्राध्द के देवता माने जाते हैं।

श्राध्द क्यों?

हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राध्द के वक्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राध्द कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राध्द-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख- समृध्दि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राध्द-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।

श्राध्द के प्रकार

श्राध्द तीन प्रकार के होते हैं-

  • नित्य- यह श्राध्द के दिनों में मृतक के निधन की तिथी पर किया जाता है।
  • नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे-पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।
  • काम्य- यह श्राध्द किसी विशेष मनौती के लिए कृतिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।

श्राध्द करने को उपयुक्त

साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राध्द करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदरभाव रखता है, उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राध्द कर सकता है। विद्या की विरासत से भी लाभ पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राध्द कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी श्राध्द-कर्म कर सकता है। नि:सन्तान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राध्द कर सकता। शेष कार्य ( पिण्डदान, अग्निहोम ) उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।

श्राध्द के लिए उचित बातें

  • श्राध्द के लिए उचित द्रव्य हैं- तिल, माष, चावल, जौं, जल, मूल, (जड़युक्त सब्जी) और फल।
  • तीन चीजें शुध्दिकारक हैं - पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल।
  • तीन बातें प्रशसनीय हैं - सफ़ाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता)) का न होना।
  • श्राध्द में महत्वपूर्ण बातें - अपरान्ह का समय, कुशा, श्राध्दस्थली की स्वच्छ्ता, उदारता से भोजन आदि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मण की उपस्थिति।

श्राध्द के लिए अनुचित बातें

कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राध्द में नहीं प्रयुक्त होते- मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्रजल से बना नमक। भैंस, हिरिणी, उँटनी, भेड़ और एक खुरवाले पशु का दूध भी वर्जित है पर भैंस का घी वर्जित नहीं है। श्राध्द में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने जाते हैं।

श्राध्द में कुश और तिल का महत्व

दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोंनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश किश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है।


तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राध्द किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।

कम ख़र्च में श्राध्द

विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र व्यक्ति केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को देना चाहिए या किसी गाय को दिनभर घास खिला देनी चाहिए अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करनी चाहिए कि हे! प्रभु मैंने हाथ वायु में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।

पिण्ड का अर्थ

श्राध्द-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे सपिण्डीकरण कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढियों के समन्वित गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राध्द करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। हमारे देश में सूंघना यानी कि आधा भोजन करना माना जाता है। इस प्रकार श्राध्द करने वाला पिण्डदान से पहले अपने पितरों की उपस्थिति को ख़ुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है।

अनुष्ठान का अर्थ

अपने दिवंगत बुजुर्गों को हम दो प्रकार से याद करते हैं-

  • स्थूल शरीर के रूप में
  • भावनात्मक रूप से।

स्थूल शरीर तो मरने के बाद अग्नि को या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राध्द करते समय हम पितरों की स्मृति कर उनके भावनात्मक शरीर की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों और हमें सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आर्शीवाद दें।