जैसलमेर की चित्रकला: Difference between revisions

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[[चित्रकला]] की दृष्टि से [[जैसलमेर]] का विशिष्ट स्थान है। [[भारत]] के पश्चिम थार मरुस्थल क्षेत्र में विस्तृत इस नगर में दूर तक मरु के टीलों का विस्तार है, वहीं कला संसार का खजाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्राचीन काल से ही व्यापारिक स्वर्णिम मार्ग के केन्द्र में होने के कारण जैसलमेर ऐश्वर्य, धर्म एवं सांस्कृतिक अवदान के लिए प्रसिद्ध रहा है। जैसलमेर में स्थित [[सोनार क़िला जैसलमेर|सोनार किला]], चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर (1402-1416 ई.), सम्भवनाथ जैन मंदिर (1436-1440 ई.), शांतिनाथ कुन्थनाथ जैन मंदिर (1480 ई.), चन्द्रप्रभु जैन मंदिर तथा अनेक वैषण्व मंदिर धर्म के साथ-साथ कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 18वीं-19वीं शताब्दी में बनी [[कलात्मक हवेलियाँ जैसलमेर|जैसलमेर की प्रसिद्ध हवेलियाँ]] तो स्थापत्य कला की बेजोड़ मिसाल है। इन हवेलियों में बने भित्ति चित्र काफी सुंदर हैं। सालिम सिंह मेहता की हवेली, पटवों की हवेली, नथमल की हवेली तथा किले के प्रासाद और बादल महल आदि ने जैसलमेर की कलात्मदाय को आज संसार भर में प्रसिद्ध कर दिया है। जैसलमेर में चित्रकला के निर्माण, सचित्र ग्रंथों की नकल एवं प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के संरक्षण के लिए जितना योगदान रहा है, उतना किसी अन्य स्थान का नही। जब आक्रमणकारी भारतीय स्थापत्य कला एवं पांडुलिपियों को नष्ट कर रहे थे, उस समय भारत के सुदूर मरुस्थली पश्चिमांचल में जैसलमेर का त्रिकुटाकार दुर्ग उनकी रक्षा के लिए महत्वपूर्ण स्थान समझा गया। इसलिए संभात, पारण, गुजरात, अलध्यापुर एवं राजस्थान के अन्य भागों से प्राचीन साहित्य, कला की सामग्री को किले के जैन मंदिरों के तलधरों में सुरक्षित रखा गया। <ref>{{cite web |url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/rj018.htm |title=जैसलमेर की चित्रकला |accessmonthday=[[28  अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएम |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
[[चित्रकला]] की दृष्टि से [[जैसलमेर]] का विशिष्ट स्थान है। [[भारत]] के पश्चिम थार मरुस्थल क्षेत्र में विस्तृत इस नगर में दूर तक मरु के टीलों का विस्तार है, वहीं कला संसार का खजाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्राचीन काल से ही व्यापारिक स्वर्णिम मार्ग के केन्द्र में होने के कारण जैसलमेर ऐश्वर्य, धर्म एवं सांस्कृतिक अवदान के लिए प्रसिद्ध रहा है। जैसलमेर में स्थित [[सोनार क़िला जैसलमेर|सोनार किला]], चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर (1402-1416 ई.), सम्भवनाथ जैन मंदिर (1436-1440 ई.), शांतिनाथ कुन्थनाथ जैन मंदिर (1480 ई.), चन्द्रप्रभु जैन मंदिर तथा अनेक वैषण्व मंदिर धर्म के साथ-साथ कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 18वीं-19वीं शताब्दी में बनी [[कलात्मक हवेलियाँ जैसलमेर|जैसलमेर की प्रसिद्ध हवेलियाँ]] तो स्थापत्य कला की बेजोड़ मिसाल है। इन हवेलियों में बने भित्ति चित्र काफी सुंदर हैं। सालिम सिंह मेहता की हवेली, पटवों की हवेली, नथमल की हवेली तथा किले के प्रासाद और बादल महल आदि ने जैसलमेर की कलात्मदाय को आज संसार भर में प्रसिद्ध कर दिया है।<ref>{{cite web |url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/rj018.htm |title=जैसलमेर की चित्रकला |accessmonthday=[[28  अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएम |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
==विशेषताएँ==
==विशेषताएँ==
जैसलमेर के चित्रों में सामान्यत: लाल (हरिमिजीलाल), गहरा हरा और पीला, नारंगी रंगों का प्रयोग हुआ है। इन चित्रों में रंगों को अधिक महत्व न देकर भावों की सजीवता व सौन्दर्य पर बल दिया गया है। जैसलमेर के महारावल बैरीला ने चित्रकला को सदैव प्रोत्साहित किया। उसके राजदरबार में अनेक कलाकारों को प्रश्रय प्राप्त था। जैसलमेर में चित्रकला के निर्माण, सचित्र ग्रंथों की नकल एवं प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के संरक्षण के लिए जितना योगदान रहा है, उतना किसी अन्य स्थान का नही रहा। जब आक्रमणकारी भारतीय स्थापत्य कला एवं पांडुलिपियों को नष्ट कर रहे थे, उस समय [[भारत]] के सुदूर मरुस्थली पश्चिमांचल में जैसलमेर का त्रिकुटाकार दुर्ग उनकी रक्षा के लिए महत्वपूर्ण स्थान समझा गया। इसलिए संभात, पारण, [[गुजरात]], अलध्यापुर एवं [[राजस्थान]] के अन्य भागों से प्राचीन साहित्य, कला की सामग्री को किले के जैन मंदिरों के तलधरों में सुरक्षित रखा गया।
जैसलमेर के चित्रों में सामान्यत: लाल (हरिमिजीलाल), गहरा हरा और पीला, नारंगी रंगों का प्रयोग हुआ है। इन चित्रों में रंगों को अधिक महत्व न देकर भावों की सजीवता व सौन्दर्य पर बल दिया गया है। जैसलमेर के महारावल बैरीला ने चित्रकला को सदैव प्रोत्साहित किया। उसके राजदरबार में अनेक कलाकारों को प्रश्रय प्राप्त था। जैसलमेर में चित्रकला के निर्माण, सचित्र ग्रंथों की नकल एवं प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के संरक्षण के लिए जितना योगदान रहा है, उतना किसी अन्य स्थान का नही रहा। जब आक्रमणकारी भारतीय स्थापत्य कला एवं पांडुलिपियों को नष्ट कर रहे थे, उस समय [[भारत]] के सुदूर मरुस्थली पश्चिमांचल में जैसलमेर का त्रिकुटाकार दुर्ग उनकी रक्षा के लिए महत्वपूर्ण स्थान समझा गया। इसलिए संभात, पारण, [[गुजरात]], अलध्यापुर एवं [[राजस्थान]] के अन्य भागों से प्राचीन साहित्य, कला की सामग्री को किले के जैन मंदिरों के तलधरों में सुरक्षित रखा गया।

Revision as of 13:27, 20 November 2010

[[चित्र:Sonar-Fort-Jaisalmer.jpg|thumb|250px|सोनार क़िला, जैसलमेर]] चित्रकला की दृष्टि से जैसलमेर का विशिष्ट स्थान है। भारत के पश्चिम थार मरुस्थल क्षेत्र में विस्तृत इस नगर में दूर तक मरु के टीलों का विस्तार है, वहीं कला संसार का खजाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्राचीन काल से ही व्यापारिक स्वर्णिम मार्ग के केन्द्र में होने के कारण जैसलमेर ऐश्वर्य, धर्म एवं सांस्कृतिक अवदान के लिए प्रसिद्ध रहा है। जैसलमेर में स्थित सोनार किला, चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर (1402-1416 ई.), सम्भवनाथ जैन मंदिर (1436-1440 ई.), शांतिनाथ कुन्थनाथ जैन मंदिर (1480 ई.), चन्द्रप्रभु जैन मंदिर तथा अनेक वैषण्व मंदिर धर्म के साथ-साथ कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 18वीं-19वीं शताब्दी में बनी जैसलमेर की प्रसिद्ध हवेलियाँ तो स्थापत्य कला की बेजोड़ मिसाल है। इन हवेलियों में बने भित्ति चित्र काफी सुंदर हैं। सालिम सिंह मेहता की हवेली, पटवों की हवेली, नथमल की हवेली तथा किले के प्रासाद और बादल महल आदि ने जैसलमेर की कलात्मदाय को आज संसार भर में प्रसिद्ध कर दिया है।[1]

विशेषताएँ

जैसलमेर के चित्रों में सामान्यत: लाल (हरिमिजीलाल), गहरा हरा और पीला, नारंगी रंगों का प्रयोग हुआ है। इन चित्रों में रंगों को अधिक महत्व न देकर भावों की सजीवता व सौन्दर्य पर बल दिया गया है। जैसलमेर के महारावल बैरीला ने चित्रकला को सदैव प्रोत्साहित किया। उसके राजदरबार में अनेक कलाकारों को प्रश्रय प्राप्त था। जैसलमेर में चित्रकला के निर्माण, सचित्र ग्रंथों की नकल एवं प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के संरक्षण के लिए जितना योगदान रहा है, उतना किसी अन्य स्थान का नही रहा। जब आक्रमणकारी भारतीय स्थापत्य कला एवं पांडुलिपियों को नष्ट कर रहे थे, उस समय भारत के सुदूर मरुस्थली पश्चिमांचल में जैसलमेर का त्रिकुटाकार दुर्ग उनकी रक्षा के लिए महत्वपूर्ण स्थान समझा गया। इसलिए संभात, पारण, गुजरात, अलध्यापुर एवं राजस्थान के अन्य भागों से प्राचीन साहित्य, कला की सामग्री को किले के जैन मंदिरों के तलधरों में सुरक्षित रखा गया।

ज्ञान भंडार

जैसलमेर में लगभग सात ज्ञान भंडार हैं, जिनमें 'जिन भद्रसूरि ज्ञान भंडार' सबसे बड़ा और वृद्ध सामग्री का आगार है, इसलिए इसे बड़ भंडार के नाम से पुकारते हैं। इस भंडार में लगभग 400 से अधिक ताड़फीय ग्रंथ, लगभग 2300 हस्तलिखित कागज के ग्रंथ और अनेक चित्र पट्टिकाएँ उपलब्ध हैं। उपर्युक्त ग्रंथों में अनेक सचित्र ग्रंथ हैं जिनके माध्यम से भारतीय चित्रकला के विकास की अनेक कड़ियाँ जोड़ी जा सकती हैं। जैन कला का यह अथाह भंडार आज भारतीय संस्कृति की अमर धरोहर है। यहाँ के ज्ञान भंडार में संग्रहित कतिपय प्राचीन चित्रावशेषों का अत्यधिक महत्व है। दशवैकालिक सूत्र चूर्णि एवं ओधनिर्युक्ति (1060 ई.) जिन्हें नागपाल के वंशज आनन्द ने पाहिल नामक व्यक्ति से प्रतिलिपि कराया था, प्राचीनतम चित्रित ग्रंथ है। इन ग्रंथों में लक्ष्मी, इन्द्र, हाथी आदि की आकृतियाँ कलामय एवं दर्शनीय हैं।

चौहान कालीन चित्रकला

चौहान कालीन पंचशक प्रकरणवृत्ति (1150 ई.) उपदेश प्रकरण वृत्ति (1155 ई.), कवि रहस्य (1159 ई.) दश वैकालिक सूत्र आदि, जिसका चित्रण पाली और अजमेर में हुआ था, जैसलमेर ज्ञान भंडार में संग्रहित है। इसी प्रकार दयाश्रम काव्य सार्दशतक प्रति, अजित शांत स्तोत्र आदि 13वीं शताब्दी के चित्रित जैन ग्रंथ भी जैन भंडार में विधमान हैं। 14वी शताब्दी के कल्प सूत्र टिप्पणक ग्रंथ में पार्श्वनाथ का घुड़सवार के रुप में चित्र, पुरुष आकृतियों के छोटे-छोटे मुकुट, पृष्ठभूमि में बादल, पेड़ों आदि के अंकन अपभ्रंश चित्रण शैली की परम्परा के कुछ भिन्न रुप में प्रदिर्शित किया गया है। जैसलमेर के एक शिलालेख के अनुसार शंकवाल खेतों ने कल्प सूत्र चित्रित करवाए थे। 15वीं. एवं 16वीं शताब्दी में जैसलमेर एक समृद्ध राज्य के रुप में उदित हुआ। अकबर के शासनकाल के दौरान जैसलमेर मुगलों के संपर्क में आया तथा इस काल में इसका व्यापार अफगानिस्तान, ईरान से होने के कारण यहाँ पर ईरान की चित्रकला का बहुत प्रभाव था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसलमेर की चित्रकला (हिंदी) (एचटीएम)। । अभिगमन तिथि: 28 अक्टूबर, 2010