पारसी समुदाय और भारतीय सिनेमा

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भारतीय सिनेमा की प्रगति में देश में बसे हुए पारसी समुदाय का अप्रतिम योगदान है। हिंदी रंगमंच जिस तरह पारसी रंगमंच का ही विस्तार है, उसी तरह सिनेमा के क्षेत्र में भी पारसी रंगमंच एवं थियेटर का महत्वपूर्ण प्रभाव है।

फ़िल्म निर्माण

पारसी निर्माताओं ने हिंदी फ़िल्म निर्माण में अभूतपूर्ण योगदान किया है। भारत के विभिन्न प्रान्तों में सिनेमा घरों के निर्माण और उनके संचालन में भी इस समुदाय के धनी और समृद्ध लोगों की भागीदारी सराहनीय है। सन 1918 में जे.एफ. मदन कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में सिनेमा के प्रचार और प्रसार के पुरोधा थे। उस समय कलकत्ता में मौजूद तीन सौ सिनेमा घरों में से एक तिहाई सिनेमा घर इन्हीं के थे। ये अपने सिनेमा घरों में प्रदर्शन के लिए अमेरिका और इंग्लैंड से फ़िल्में आयातित करते थे। इनके दर्शकों में प्रमुख रूप से ब्रिटिश फौजी और अन्य अधिकारी हुआ करते थे।[1]

सरस्वती देवी का योगदान

भारतीय सिनेमा की प्रथम महिला संगीतकार खुर्शीद मंचेर्षा मिनोशेर-होमजी बनीं, जो एक पारसी महिला थीं और जिन्होंने हिंदी फ़िल्मों में सरस्वती देवी के नाम से संगीत दिया था। बॉम्बे टाकीज़ की सभी हिट फ़िल्मों के गीतों और फ़िल्म में पार्श्व संगीत सरस्वती देवी ने ही दिया था। 'जवानी की हवा', 'अछूत कन्या', 'जनमभूमि', 'जीवन नैया', 'दुर्गा', 'कंगन', 'बंधन' और 'झूला' में सरस्वती देवी ने संगीत निर्देशन किया था।

हिन्दी सिनेमा में सर्वप्रथम प्रवेश करने वाली महिला कलाकार पारसी समुदाय से ही थीं। सरस्वती देवी ने सोहराब मोदी द्वारा निर्मित 'पृथ्वीवल्लभ और परख' फ़िल्मों में भी संगीत दिया था। भारत में प्रथम सवाक फ़िल्म 'आलमआरा' के निर्माता आर्देशिर एम. ईरानी भी पारसी ही थे। इन्हें "भारतीय सवाक फ़िल्मों का जनक" कहा जाता है। सोहराब मोदी, जे.बी.एच. वाडिया और होमी वाडिया (वाडिया मूवीटोन) अन्य पारसी लोग थे, जिनका भारतीय सिनेमा के विकास में महत्वपूर्ण स्थान है।


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