जैसलमेर का इतिहास

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आज से लगभग 840 वर्ष पूर्व भाटी राजपूत रावल जैसल ने सन् 1156 में जैसलमेर की स्थापना की। जैसलमेर पूर्व में वल्ल मण्डल के नाम से जाना जाता था और इसकी राजधानी लोद्रवा थी तथा वहाँ पवार राजा राज्य करते थे। तब इस नगर का नाम भावनगर था। सदियों से अपनी परम्परा, कला और संस्कृति को संजोता आ रहा जैसलमेर आज देशी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बन गया है। हर वर्ष लाखों पर्यटक यहाँ की स्थापत्य शैली, पीले पत्थरों पर उकेरी गई बारीक़ शिल्प तथा हस्तशिल्प कला को देखने आते हैं। thumb|250px|जैसलमेर का क़िला
Jaisalmer Fort
जैसलमेर का इतिहास अत्यंत प्राचीन रहा है। यह शहर प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता का क्षेत्र रहा है। वर्तमान जैसलमेर ज़िले का भू-भाग प्राचीन काल में ’माडधरा’ अथवा ’वल्लभमण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध था।[1] ऐसा माना जाता हैं कि महाभारत युद्ध के पश्चात कालान्तर में यादवों का मथुरा से काफ़ी संख्या में बहिर्गमन हुआ। जैसलमेर के भूतपूर्व शासकों के पूर्वज जो अपने को भगवान कृष्ण के वंशज मानते हैं, संभवता छठी शताब्दी में जैसलमेर के भूभाग पर आ बसे थे। ज़िले में यादवों के वंशज भाटी राजपूतों की प्रथम राजधानी तनोट, दूसरी लौद्रवा तथा तीसरी जैसलमेर में रही।

पौराणिक इतिहास

वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के किष्किन्धा कांड में पश्चिम दिशा के जन पदों के वर्णन में मरु स्थली नामक जनपद की चर्चा की गई है। डॉ ए.बी. लाल के अनुसार यह वही मरु भूमि है। महाभारत के अश्वमेघिक पूर्व में वर्णन है कि हस्तिनापुर से जब भगवान श्रीकृष्ण द्वारका जा रहे थे तो उन्हें रास्ते में बालू, धूल व काँटों वाला मरुस्थल (मरुभूमि) का रेगिस्तान पड़ा था। इस भू-भाग को महाभारत के वन पूर्व में सिंधु-सौवीर कहकर सम्बोधित किया गया है। पाण्डु पुत्र नकुल ने अपने पश्चिम दिग्विजय में मरुभूमि, सरस्वती की घाटी, सिंध आदि प्रांत को विजित कर लिया था यह महाभारत के समापर्व के अध्याय 32 में वर्णित है। मरुभूमि आधुनिक माखाड़ का ही विस्तृत क्षेत्र है।

प्रागऐतिहासिक काल

इस प्रदेश में उपलब्ध वेलोजोइक, मेसोजोइक, एवं सोनाजाइक कालीन अवशेष भू-वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रदेश की प्रागऐतेहासिक कालीन स्थिति को प्रमाणित करते हैं। प्राचीन काल में इस संपूर्ण क्षेत्र को ज्यूटालिक चट्टानों के अवशेष यहाँ समुद्र होने का प्रमाण देते हैं। यहाँ से विस्तृत मात्रा में जीवश्यों की होने वाली प्राप्ति में भी यहाँ समुद्र होने का प्रमाण मिलता है। यहाँ मानव ने रहना तब से प्रारंभ किया था, जब यह प्रदेश सागरीय जल से मुक्त हो गया। जैसलमेर क्षेत्र की मुख्य भूमि में अभी तक कोई उल्खनन कार्य नहीं हुआ है, परंतु इसके पश्चिम में मोहनजोदाड़ोहड़प्पा, उत्तर-पूर्व में कालीबंगा व पूर्वी क्षेत्र में सरस्वती के उल्खनन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस क्षेत्र में आदि मानव का अस्तित्व अवश्य रहा होगा। [[चित्र:Bada-Bagh-Jaisalmer.jpg|thumb|250px|left|बड़ाबाग, जैसलमेर
Bada Bagh, Jaisalmer]] ऐतिहासिक काल के प्रांरभ में पौराणिक काल की सीमा से निकल कर इस क्षेत्र को माडमड़ प्रदेश के नाम से जाना जाता था। इस प्रदेश के लिए माड़ शब्द का प्रयोग हमें पुन: प्रतिहार शासक कक्कुट के घटियाला अभिलेख से प्राप्त होता है। इसमें इसे त्रवणी तथा वल्ल के साथ प्रयोग किया गया है "येन प्राप्ता महख्याति स्रवर्ण्यो वल्ल माड़ ये"। वल्ल तथा माड़ को इस लेख में समास के रुप में प्रयोग किए जाने से तात्पर्य निकलता है कि वल्ल तथा माड़ समीपवर्ती राज्य रहे होंगे। उस समय भारत का समीपवर्ती राज्य माड़ प्रदेश था, इसका उल्लेख "अलविलाजूरी" के विवरण से प्राप्त है, जिसमें इस प्रदेश को अरब राज्य की सीमा पर स्थित होना बताया गया है।

अल-विला जूरी ने उल्लेख किया है कि जुनैद ने अपने अधिकारियों को माड़मड़ मंडल, बरुस, दानत्र तथा अन्य स्थानों पर भेजा था व जुर्ज पर विजय प्राप्त की थी। यहाँ पर माड़माउड का प्रयोग मरु प्रदेश माड़ व मंड मंडल (मारवाड़) के लिए किया गया है ये दोनों प्रदेश एक दूसरे के सीमांत प्रदेश हैं। जैसलमेर क्षेत्र का कुछ भाग त्रवेणी क्षेत्र का हिस्सा भी रहा है जिसका उल्लेख प्रतिहार बाऊक के जोधपुर अभिलेख से प्राप्त होता है। प्रतिहारों के चरमोत्कर्ष काल (700-900 ई.) में यह सारा प्रदेश जिसमें माड़ ही था, उनके सम्राज्य का अंग था। प्रतिहारों की शक्ति जब कालातंर में क्षीण हो ही गई तथा इस क्षेत्र में विभिन्न क्षत्रिय व स्थानीय जातियों जिनमें भूटा-लंगा, पुंवार, मोहिल आदि प्रमुख थे ने छोटे-छोटे क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा लिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसलमेर (हिन्दी) यात्रा सलाह। अभिगमन तिथि: 18 जून, 2010।

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