शैव मत

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शैव मत / शैव संप्रदाय / Shaiv Sect

  • भारत के धार्मिक सम्प्रदायों में शैवमत प्रमुख हैं। वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों से इसके मानने वालों की सख्या अधिक है। शिव त्रिमूर्ति में से तीसरे हैं जिनका विशिष्ट कार्य संहार करना है शैव वह धार्मिक सम्प्रदाय हैं जो शिव को ही ईश्वर मानकर आराधना करता है। शिव का शाब्दिक अर्थ है 'शुभ', 'कल्याण', 'मंगल', श्रेयस्कर' आदि, यद्यपि शिव का कार्य संहार करना है।
  • शैवमत का मूलरूप ॠग्वेद में रुद्र की कल्पना में मिलता है। रुद्र के भयंकर रूप की अभिव्यक्ति वर्षा के पूर्व झंझावात के रूप में होती थी। रुद्र के उपासकों ने अनुभव किया कि झंझावात के पश्चात जगत को जीवन प्रदान करने वाला शीतल जल बरसता है और उसके पश्चात एक गम्भीर शान्ति और आनन्द का वातावरण निर्मित हो जाता है। अतः रुद्र का ही दूसरा सौम्य रूप शिव जनमानस में स्थिर हो गया।
  • शिव के तीन नाम शम्भु, शंकर और शिव प्रसिध्द हुए। इन्हीं नामों से उनकी प्रार्थना होने लगी।
  • यजुर्वेद के शतरुद्रिय अध्याय, तैत्तिरीय आरण्यक और श्वेताश्वतर उपनिषद में शिव को ईश्वर माना गया है। उनके पशुपति रूप का संकेत सबसे पहले अथर्वशिरस उपनिषद में पाया जाता है, जिसमें पशु, पाश, पशुपति आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे लगता है कि उस समय से पशुपात सम्प्रदाय बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी।
  • रामायण-महाभारत के समय तक शैवमत शैव अथवा माहेश्वर नाम से प्रसिध्द हो चुका था।
  • महाभारत में माहेश्वरों के चार सम्प्रदाय बतलाये गये हैं -
  1. शैव
  2. पाशुपत
  3. कालदमन और
  4. कापालिक।
  • वैष्णव आचार्य यामुनाचार्य ने कालदमन को ही 'कालमुख' कहा है। इनमें से अन्तिम दो नाम शिव को रुद्र तथा भंयकर रूप में सूचित करते हैं, जब प्रथम दो शिव के सौम्य रूप को स्वीकार करते हैं। इनके धार्मिक साहित्य को शैवमत कहा जाता है। इनमें से कुछ वैदिक और शेष अवैदिक हैं। सम्प्रदाय के रूप में पाशुपत मत का संघटन बहुत पहले प्रारम्भ हो गया था। इसके संस्थापक आचार्य लकुलीश थे। इनहोंने लकुल (लकुट) धारी शिव की उपासना का प्रचार किया, जिसमें शिव का रुद्र रूप अभी वर्तमान था। इसकी प्रतिक्रिया में अद्वैत दर्शन के आधार पर समयाचारी वैदिक शैव मत का संघटन सम्प्रदाय के रूप में हुआ। इसकी पूजा पध्दति में शिव के सौम्य रूप की प्रधानता थी। किन्तु इस अद्वैत शैव सम्प्रदाय की भी प्रतिक्रिया हुई। ग्यारहवीं शताब्दी में वीर शैव अथवा लिंगायत सम्प्रदाय का उदय हुआ, जिसका दार्शनिक आधार शक्तिविशिष्ट अद्वैतवाद था।
  • कापालिकों ने भी अपना साम्प्रदायिक संघटन किया। इनके साम्प्रदायिक चिन्ह इनकी छः मुद्रिकाएँ थीं, जो इस प्रकार हैं-
  1. कंठहार
  2. आभूषण
  3. कर्णाभूषण
  4. चूड़ामणि
  5. भस्म और
  6. यज्ञोपवीत। इनके आचार शिव के घोर रूप के अनुसार बड़े वीभत्स थे, जैसे कपालपात्र में भोजन, शव के भस्म को शरीर पर लगाना, भस्मभक्षण, यष्टिधारण, मदिरापात्र रखना, मदिरापात्र का आसन बनाकर पूजा का अनुष्ठान्करना आदि। कालमुख साहित्य में कहा गया है कि इस प्रकार के आचरण से लौकिक और पारलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। इसमें सन्देह नहीं की कापालिका क्रियायँ शुध्द शैवमत से बहुत दूर चली गयीं और इनका मेल वाममार्गी शाक्तों से अधिक हो गया।
  • पहले शैवमत के मुख्यतः दो ही सम्प्रदाय थे-
  1. पाशुपत और
  2. आगमिक।
  • फिर इन्हीं से कई उपसम्प्रदाय हुए, जिनकी सूची निम्नांकित है -
  • पाशुपात शैव मत
  1. पाशुपात,
  2. लघुलीश पाशुपत,
  3. कापालिक,
  4. नाथ सम्प्रदाय,
  5. गोरख पन्थ,
  6. रंगेश्वर।
  • आगमिक शैव मत
  1. शैव सिध्दान्त,
  2. तमिल शैव
  3. काश्मीर शैव,
  4. वीर शैव।
  • पाशुपत सम्प्रदाय का आधारग्रन्थ महेश्वर द्वारा रचित 'पाशुपतसुत्र' है। इसके ऊपर कौण्डिन्यरचित 'पंचार्थीभाष्य' है। इसके अनुसार पदार्थों की संख्या पाँच है-
  1. कार्य
  2. कारण
  3. योग
  4. विधि और
  5. दुःखान्त्।
  • जीव (जीवात्मा) और जड (जगत) को कार्य कहा जाता है। परमात्मा (शिव) इनका कारण है, जिसको पति कहा जाता है। जीव पशु और जड पाश कहलाता है। मानसिक क्रियाओं के द्वारा पशु और पति के संयोग को योग कहते हैं। जिस मार्ग से पति की प्राप्ति होती है उसे विधि की संज्ञा दी गयी है। पूजाविधि में निम्नांकित क्रियाएँ आवश्यक है-
  1. हँसना
  2. गाना
  3. नाचना
  4. हुंकारना और
  5. नमस्कार।
  • संसार में दुखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ही दुःखान्त अथवा मोक्ष है।
  • आगमिक शैवों के शैव सिध्दान्त के ग्रन्थ संस्कृत और तमिल दोनों में हैं। इनके पति, पशु और पाश इन तीन मूल तत्वों का गम्भीर विवेचन पाया जाता है। इनके अनुसार जीव पशु है जो अज्ञ और अणु हैं। जीव पशु चार प्रकार के पाशों से बध्द हैं। यथा –मल, कर्म, माया और रोध शक्ति। साधना के द्वारा जब पशु पर पति का शक्तिपात (अनुग्रह) होता है तब वह पाश से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं।
  • कश्मीर शैव मत दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी है। अद्वैत वेदान्त और काश्मीर शैव मत में साम्प्रदायिक अन्तर इतना है कि अद्वैतवाद का ब्रह्म निष्क्रिय है किन्तु कश्मीर शैवमत का ब्रह्म (परमेश्वर) कर्तृत्वसम्पन्न है। अद्वैतवाद में ज्ञान की प्रधानता है, उसके साथ भक्ति का सामञ्जस्य पूरा नहीं बैठता; कश्मीर शैवमत में ज्ञान और भक्ति का सुन्दर समवन्य है। अद्वैतवाद वेदान्त में जगत ब्रह्म का विवर्त (भ्रम) है। कश्मीर शैवमत में जगत ब्रह्म का स्वातन्त्र्य अथवा आभास है। कश्मीर शैव की दो प्रमुख शाखाऐं हैं–
  1. स्पन्द शास्त्र और
  2. प्रत्यभिज्ञा शास्त्र। पहली शाखा के मुख्य ग्रन्थ ‘शिव दृष्टि’ (सोमानन्द कृत), ‘ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका’ (उत्पलाचार्य कृत), ईश्वरप्र्त्यभिज्ञाकारिकाविमर्शिनी’ और (अभिनवगुप्त रचित) ‘तन्त्रालोक’ हैं। दोनों शाखाओं में कोई तात्त्विक भेद नही है; केवल मार्ग का भेद है। स्पन्द शास्त्र में ईश्वराद्वय्की अनुभूति का मार्ग ईश्वरदर्शन और उसके द्वारा मलनिवारण है। प्रत्यभिज्ञाशास्त्र में ईश्वर के रूप में अपनी प्रत्यभिज्ञा (पुनरनुभूति) ही वह मार्ग है। इन दोनों शाखाओं के दर्शन को ‘त्रिकदर्शन’ अथवा ईश्वराद्वयवाद’ कहा जाता है।
  • वीर शैव मत के संस्थापक महात्मा वसव थे। इस सम्प्रदाय के मुख्य ग्रन्थ ब्रह्म सूत्र पर ‘श्रीकरभाष्य’ और ‘सिध्दान्त-शिखामणि’ हैं। इनके अनुसार अन्तिम तत्व अद्वैत नहीं, अपितु विशिष्टाद्वैत है। यह सम्प्रदाय मानता है कि परम तत्व शिव पूर्ण स्वातन्त्र्यरुप है। स्थुल चिदचिच्छक्ति विशिष्ट जीव और सूक्ष्म चिदचिच्छक्ति विशिष्ट शिव का अद्वैत है। वीर शैव मत को लिंगायत भी कहते हैं, क्योंकि इसके अनुयायी बराबर शिवलिंग गले में धारण करते हैं।

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