प्रियप्रवास तृतीय सर्ग: Difference between revisions
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|पाठ 1= तृतीय | |पाठ 1= तृतीय | ||
|शीर्षक 2= छंद | |शीर्षक 2= छंद | ||
|पाठ 2= | |पाठ 2=द्रुतविलम्बित, शार्दूल-विक्रीड़ित, मालिनी, | ||
|बाहरी कड़ियाँ= | |बाहरी कड़ियाँ= | ||
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वसुमती – तल भी अति – मूक था। | वसुमती – तल भी अति – मूक था। | ||
सचलता अपनी तज के मनों। | सचलता अपनी तज के मनों। | ||
जगत था थिर होकर सो | जगत था थिर होकर सो रहा॥7॥ | ||
सतत शब्दित गेह समूह में। | सतत शब्दित गेह समूह में। | ||
विजनता परिवर्द्धित थी हुई। | विजनता परिवर्द्धित थी हुई। | ||
कुछ विनिद्रित हो जिनमें कहीं। | कुछ विनिद्रित हो जिनमें कहीं। | ||
झनकता यक झींगुर भी न | झनकता यक झींगुर भी न था॥8॥ | ||
बदन से तज के मिष धूम के। | बदन से तज के मिष धूम के। | ||
शयन – सूचक श्वास - समूह को। | शयन – सूचक श्वास - समूह को। | ||
झलमलाहट – हीन – शिखा लिए। | झलमलाहट – हीन – शिखा लिए। | ||
परम – निद्रित सा गृह – दीप | परम – निद्रित सा गृह – दीप था॥9॥ | ||
भनक थी निशि-गर्भ तिरोहिता। | भनक थी निशि-गर्भ तिरोहिता। | ||
तम – निमज्जित आहट थी हुई। | तम – निमज्जित आहट थी हुई। | ||
निपट नीरवता सब ओर थी। | निपट नीरवता सब ओर थी। | ||
गुण – विहीन हुआ जनु व्योम | गुण – विहीन हुआ जनु व्योम था॥10॥ | ||
इस तमोमय मौन निशीथ की। | इस तमोमय मौन निशीथ की। | ||
सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी। | सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी। | ||
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मन कभी यह था अनुमानता। | मन कभी यह था अनुमानता। | ||
ब्रज समूल विनाशन को खड़े। | ब्रज समूल विनाशन को खड़े। | ||
यह निशाचर हैं नृप – कंस | यह निशाचर हैं नृप – कंस के॥17॥ | ||
अति – भयानक – भूमि मसान की। | अति – भयानक – भूमि मसान की। | ||
बहन थी करती शव – राशि को। | बहन थी करती शव – राशि को। | ||
बहु – विभीषणता जिनकी कभी। | बहु – विभीषणता जिनकी कभी। | ||
दृग नहीं सकते अवलोक | दृग नहीं सकते अवलोक थे॥18॥ | ||
बिकट - दंत दिखाकर खोपड़ी। | बिकट - दंत दिखाकर खोपड़ी। | ||
कर रही अति - भैरव - हास थी। | कर रही अति - भैरव - हास थी। | ||
विपुल – अस्थि - समूह विभीषिका। | विपुल – अस्थि - समूह विभीषिका। | ||
भर रही भय थी बन | भर रही भय थी बन भैरवी॥19॥ | ||
इस भयंकर - घोर - निशीथ में। | इस भयंकर - घोर - निशीथ में। | ||
विकलता अति – कातरता - मयी। | विकलता अति – कातरता - मयी। | ||
विपुल थी परिवर्द्धित हो रही। | विपुल थी परिवर्द्धित हो रही। | ||
निपट – नीरव – नंद – निकेत | निपट – नीरव – नंद – निकेत में॥20॥ | ||
सित हुए अपने मुख - लोम को। | सित हुए अपने मुख - लोम को। | ||
कर गहे दुखव्यंजक भाव से। | कर गहे दुखव्यंजक भाव से। | ||
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निपट – नीरव कक्ष विशेष में। | निपट – नीरव कक्ष विशेष में। | ||
समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे। | समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे। | ||
अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु | अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था॥27॥ | ||
निकट कोमल तल्प मुकुंद के। | निकट कोमल तल्प मुकुंद के। | ||
कलपती जननी उपविष्ट थी। | कलपती जननी उपविष्ट थी। | ||
अति – असंयत अश्रु – प्रवाह से। | अति – असंयत अश्रु – प्रवाह से। | ||
वदन – मंडल प्लावित था | वदन – मंडल प्लावित था हुआ॥28॥ | ||
हृदय में उनके उठती रही। | हृदय में उनके उठती रही। | ||
भय – भरी अति – कुत्सित – भावना। | भय – भरी अति – कुत्सित – भावना। | ||
विपुल – व्याकुल वे इस काल थीं। | विपुल – व्याकुल वे इस काल थीं। | ||
जटिलता – वश कौशल – जाल | जटिलता – वश कौशल – जाल की॥29॥ | ||
परम चिंतित वे बनती कभी। | परम चिंतित वे बनती कभी। | ||
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से। | सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से। | ||
व्यथित था उनको करता कभी। | व्यथित था उनको करता कभी। | ||
परम – त्रास महीपति - कंस | परम – त्रास महीपति - कंस का॥30॥ | ||
पट हटा सुत के मुख कंज की। | पट हटा सुत के मुख कंज की। | ||
विचकता जब थीं अवलोकती। | विचकता जब थीं अवलोकती। | ||
Line 154: | Line 154: | ||
हरि न जाग उठें इस सोच से। | हरि न जाग उठें इस सोच से। | ||
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं। | सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं। | ||
इसलिए उन का | इसलिए उन का दु:ख - वेग से। | ||
हृदया था शतधा अब रो रहा॥33॥ | हृदया था शतधा अब रो रहा॥33॥ | ||
महरि का यह कष्ट विलोक के। | महरि का यह कष्ट विलोक के। | ||
Line 164: | Line 164: | ||
महरि का न प्रबोधक और था। | महरि का न प्रबोधक और था। | ||
इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥35॥ | इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥35॥ | ||
वरन् कंपित – शीश प्रदीप भी। | |||
कर रहा उनको बहु – व्यग्र था। | कर रहा उनको बहु – व्यग्र था। | ||
अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी। | अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी। | ||
मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥36॥ | मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥36॥ | ||
जब कभी घटता | जब कभी घटता दु:ख - वेग था। | ||
तब नवा कर वे निज - शीश को। | तब नवा कर वे निज - शीश को। | ||
महि | महि विलम्बित हो कर जोड़ के। | ||
विनय यों करती चुपचाप | विनय यों करती चुपचाप थीं॥37॥ | ||
सकल – मंगल – मूल कृपानिधे। | सकल – मंगल – मूल कृपानिधे। | ||
कुशलतालय हे कुल - देवता। | कुशलतालय हे कुल - देवता। | ||
विपद संकुल है कुल हो रहा। | विपद संकुल है कुल हो रहा। | ||
विपुल वांछित है | विपुल वांछित है अनुकूलता॥38॥ | ||
परम – कोमल-बालक श्याम ही। | परम – कोमल-बालक श्याम ही। | ||
कलपते कुल का यक चिन्ह है। | कलपते कुल का यक चिन्ह है। | ||
पर प्रभो! उसके प्रतिकूल भी। | पर प्रभो! उसके प्रतिकूल भी। | ||
अति – प्रचंड समीरण है | अति – प्रचंड समीरण है उठा॥39॥ | ||
यदि हुई न कृपा पद - कंज की। | यदि हुई न कृपा पद - कंज की। | ||
टल नहीं सकती यह आपदा। | टल नहीं सकती यह आपदा। | ||
मुझ सशंकित को सब काल ही। | मुझ सशंकित को सब काल ही। | ||
पद – सरोरुह का अवलंब | पद – सरोरुह का अवलंब है॥40॥ | ||
कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। | कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। | ||
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | ||
Line 214: | Line 214: | ||
परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से। | परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से। | ||
विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा। | विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा। | ||
उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा | उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥47॥ | ||
''' | '''द्रुतविलम्बित छंद''' | ||
यह प्रलोभन है न कृपानिधे। | यह प्रलोभन है न कृपानिधे। | ||
यह अकोर प्रदान न है प्रभो। | यह अकोर प्रदान न है प्रभो। | ||
वरन् है यह कातर–चित्त की। | |||
परम - शांतिमयी - | परम - शांतिमयी - अवतारणा॥48॥ | ||
कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी। | कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी। | ||
जगत की जननी भव–वल्लभे। | जगत की जननी भव–वल्लभे। | ||
जननि के जिय की सकला व्यथा। | जननि के जिय की सकला व्यथा। | ||
जननि ही जिय है कुछ | जननि ही जिय है कुछ जानता॥49॥ | ||
अवनि में ललना जन जन्म को। | अवनि में ललना जन जन्म को। | ||
विफल है करती अनपत्यता। | विफल है करती अनपत्यता। | ||
सहज जीवन को उसके सदा। | सहज जीवन को उसके सदा। | ||
वह सकंटक है करती | वह सकंटक है करती नहीं॥50॥ | ||
उपजती पर जो उर व्याधि है। | उपजती पर जो उर व्याधि है। | ||
सतत संतति संकट - शोच से। | सतत संतति संकट - शोच से। | ||
वह सकंटक ही करती नहीं। | वह सकंटक ही करती नहीं। | ||
वरन् जीवन है करती वृथा॥51॥ | |||
बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | ||
प्रथम भी यक संतति के लिए। | प्रथम भी यक संतति के लिए। | ||
Line 245: | Line 245: | ||
बहु निपीड़ित है नित हो रही। | बहु निपीड़ित है नित हो रही। | ||
किस लिये, तब बालक के लिये। | किस लिये, तब बालक के लिये। | ||
उमड़ है पड़ती | उमड़ है पड़ती दु:ख की घटा॥54॥ | ||
‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ||
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | ||
Line 257: | Line 257: | ||
अबल का बल केवल न्याय है। | अबल का बल केवल न्याय है। | ||
नियम-शालिनि क्या अवमानना। | नियम-शालिनि क्या अवमानना। | ||
उचित है विधि-सम्मत-न्याय | उचित है विधि-सम्मत-न्याय की॥57॥ | ||
परम क्रूर-महीपति – कंस की। | परम क्रूर-महीपति – कंस की। | ||
कुटिलता अब है अति कष्टदा। | कुटिलता अब है अति कष्टदा। | ||
कपट-कौशल से अब नित्य ही। | कपट-कौशल से अब नित्य ही। | ||
बहुत-पीड़ित है ब्रज की | बहुत-पीड़ित है ब्रज की प्रजा॥58॥ | ||
सरलता – मय – बालक के लिए। | सरलता – मय – बालक के लिए। | ||
जननि! जो अब कौशल है हुआ। | जननि! जो अब कौशल है हुआ। | ||
सह नहीं सकता उसको कभी। | सह नहीं सकता उसको कभी। | ||
पवि विनिर्मित मानव-प्राण | पवि विनिर्मित मानव-प्राण भी॥59॥ | ||
कुबलया सम मत्त – गजेन्द्र से। | कुबलया सम मत्त – गजेन्द्र से। | ||
भिड़ नहीं सकते दनुजात भी। | भिड़ नहीं सकते दनुजात भी। | ||
वह महा सुकुमार कुमार से। | वह महा सुकुमार कुमार से। | ||
रण-निमित्त सुसज्जित है | रण-निमित्त सुसज्जित है हुआ॥60॥ | ||
विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा। | विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा। | ||
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। | सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। | ||
Line 300: | Line 300: | ||
शरण है गहता नरनाथ की। | शरण है गहता नरनाथ की। | ||
यदि निपीड़न भूपति ही करे। | यदि निपीड़न भूपति ही करे। | ||
जगत् में फिर रक्षक कौन है?॥67॥ | |||
गगन में उड़ जा सकती नहीं। | गगन में उड़ जा सकती नहीं। | ||
Line 358: | Line 358: | ||
यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से। | यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से। | ||
पृथक् से रहते नित आप हैं। | |||
पर कहाँ जन को अवलम्ब है। | पर कहाँ जन को अवलम्ब है। | ||
प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥ | प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥ | ||
Line 395: | Line 395: | ||
ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को। | ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को। | ||
त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ | त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ दु:ख भी दुर्दान्त था हो रहा। | ||
ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं। | ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं। | ||
बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥ | बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥ |
Latest revision as of 09:05, 10 February 2021
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