प्रियप्रवास तृतीय सर्ग: Difference between revisions
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|पाठ 1= तृतीय | |पाठ 1= तृतीय | ||
|शीर्षक 2= छंद | |शीर्षक 2= छंद | ||
|पाठ 2= | |पाठ 2=द्रुतविलम्बित, शार्दूल-विक्रीड़ित, मालिनी, | ||
|बाहरी कड़ियाँ= | |बाहरी कड़ियाँ= | ||
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हरि न जाग उठें इस सोच से। | हरि न जाग उठें इस सोच से। | ||
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं। | सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं। | ||
इसलिए उन का | इसलिए उन का दु:ख - वेग से। | ||
हृदया था शतधा अब रो रहा॥33॥ | हृदया था शतधा अब रो रहा॥33॥ | ||
महरि का यह कष्ट विलोक के। | महरि का यह कष्ट विलोक के। | ||
Line 164: | Line 164: | ||
महरि का न प्रबोधक और था। | महरि का न प्रबोधक और था। | ||
इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥35॥ | इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥35॥ | ||
वरन् कंपित – शीश प्रदीप भी। | |||
कर रहा उनको बहु – व्यग्र था। | कर रहा उनको बहु – व्यग्र था। | ||
अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी। | अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी। | ||
मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥36॥ | मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥36॥ | ||
जब कभी घटता | जब कभी घटता दु:ख - वेग था। | ||
तब नवा कर वे निज - शीश को। | तब नवा कर वे निज - शीश को। | ||
महि | महि विलम्बित हो कर जोड़ के। | ||
विनय यों करती चुपचाप थीं॥37॥ | विनय यों करती चुपचाप थीं॥37॥ | ||
सकल – मंगल – मूल कृपानिधे। | सकल – मंगल – मूल कृपानिधे। | ||
Line 216: | Line 216: | ||
उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥47॥ | उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥47॥ | ||
''' | '''द्रुतविलम्बित छंद''' | ||
यह प्रलोभन है न कृपानिधे। | यह प्रलोभन है न कृपानिधे। | ||
यह अकोर प्रदान न है प्रभो। | यह अकोर प्रदान न है प्रभो। | ||
वरन् है यह कातर–चित्त की। | |||
परम - शांतिमयी - अवतारणा॥48॥ | परम - शांतिमयी - अवतारणा॥48॥ | ||
कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी। | कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी। | ||
Line 233: | Line 233: | ||
सतत संतति संकट - शोच से। | सतत संतति संकट - शोच से। | ||
वह सकंटक ही करती नहीं। | वह सकंटक ही करती नहीं। | ||
वरन् जीवन है करती वृथा॥51॥ | |||
बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | ||
प्रथम भी यक संतति के लिए। | प्रथम भी यक संतति के लिए। | ||
Line 245: | Line 245: | ||
बहु निपीड़ित है नित हो रही। | बहु निपीड़ित है नित हो रही। | ||
किस लिये, तब बालक के लिये। | किस लिये, तब बालक के लिये। | ||
उमड़ है पड़ती | उमड़ है पड़ती दु:ख की घटा॥54॥ | ||
‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ||
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | ||
Line 300: | Line 300: | ||
शरण है गहता नरनाथ की। | शरण है गहता नरनाथ की। | ||
यदि निपीड़न भूपति ही करे। | यदि निपीड़न भूपति ही करे। | ||
जगत् में फिर रक्षक कौन है?॥67॥ | |||
गगन में उड़ जा सकती नहीं। | गगन में उड़ जा सकती नहीं। | ||
Line 358: | Line 358: | ||
यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से। | यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से। | ||
पृथक् से रहते नित आप हैं। | |||
पर कहाँ जन को अवलम्ब है। | पर कहाँ जन को अवलम्ब है। | ||
प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥ | प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥ | ||
Line 395: | Line 395: | ||
ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को। | ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को। | ||
त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ | त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ दु:ख भी दुर्दान्त था हो रहा। | ||
ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं। | ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं। | ||
बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥ | बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥ |
Latest revision as of 09:05, 10 February 2021
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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