छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-6 खण्ड-8: Difference between revisions

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सोते समय पुरुष का [[मानव शरीर|शरीर]] सततत्त्व से जुड़ जाता हे। इसको 'स्वयित,' अर्थात 'अपने आपको प्राप्त करने' की स्थिति कहते हैं। जैसे डोरी से बंधा बाज पक्षी सभी दिशाओं में उढ़ने के उपरान्त पुन: अपने उसी स्थान पर आ जाता है, जहां वह बंधा है, वैसे ही यह मन इधर-उधर भटकने के उपरान्त शरीर का ही आश्रय ग्रहण करता है। शरीर में यह प्राणतत्त्व में विश्राम करता है। अत: यह मन प्राणों से बंधा है।
सोते समय पुरुष का [[मानव शरीर|शरीर]] सततत्त्व से जुड़ जाता हे। इसको 'स्वयित,' अर्थात् 'अपने आपको प्राप्त करने' की स्थिति कहते हैं। जैसे डोरी से बंधा बाज पक्षी सभी दिशाओं में उढ़ने के उपरान्त पुन: अपने उसी स्थान पर आ जाता है, जहां वह बंधा है, वैसे ही यह मन इधर-उधर भटकने के उपरान्त शरीर का ही आश्रय ग्रहण करता है। शरीर में यह प्राणतत्त्व में विश्राम करता है। अत: यह मन प्राणों से बंधा है।


इस शरीर का मूल '[[जल]]' और 'अन्न' ही है। शरीर जिस अन्न को ग्रहण करता है, उसे जल की शरीर के प्रत्येक भाग में पहुंचाता है। यह शरीर अन्नमय है। इसी प्रकार जल की गति का आधार तेज है, [[ऊर्जा]] है। इस प्रकार अन्न ग्रहण करते ही जल और तेज की क्रियाएं सक्रिय हो जाती हैं। इसी से 'जीवन' का आधार तय होता है।
इस शरीर का मूल '[[जल]]' और 'अन्न' ही है। शरीर जिस अन्न को ग्रहण करता है, उसे जल की शरीर के प्रत्येक भाग में पहुंचाता है। यह शरीर अन्नमय है। इसी प्रकार जल की गति का आधार तेज है, [[ऊर्जा]] है। इस प्रकार अन्न ग्रहण करते ही जल और तेज की क्रियाएं सक्रिय हो जाती हैं। इसी से 'जीवन' का आधार तय होता है।


परन्तु 'मृत्यु' के समय शरीर सबसे पहले यह तेज, अर्थात अग्नि तत्त्व छोड़ देता है। अग्नि तत्त्व के जाते ही वाणी साथ छोड़ जाती है, परन्तु मन फिर भी सक्रिय बना रहता है; क्योंकि उसमें पृथ्वी तत्त्व प्रमुख होता है। अन्न के माध्यम से वह प्राण में निहित रहता है, किन्तु जब प्राण भी तेज में विलीन हो जाते हैं और तेज भी शरीर का साथ छोड़ देता है, तो शरीर मृत हो जाता है। धरती के अतिरिक्त अन्य सभी तत्त्व साथ छोड़ जाते हैं और शरीर [[मिट्टी]] के समान पड़ा रह जाता है। अत: इस शरीर में जो प्राण तत्त्व है, वही [[आत्मा] है, परमात्मा का अंश है, वही सत है, वही जीवन है।
परन्तु 'मृत्यु' के समय शरीर सबसे पहले यह तेज, अर्थात् अग्नि तत्त्व छोड़ देता है। अग्नि तत्त्व के जाते ही वाणी साथ छोड़ जाती है, परन्तु मन फिर भी सक्रिय बना रहता है; क्योंकि उसमें पृथ्वी तत्त्व प्रमुख होता है। अन्न के माध्यम से वह प्राण में निहित रहता है, किन्तु जब प्राण भी तेज में विलीन हो जाते हैं और तेज भी शरीर का साथ छोड़ देता है, तो शरीर मृत हो जाता है। धरती के अतिरिक्त अन्य सभी तत्त्व साथ छोड़ जाते हैं और शरीर [[मिट्टी]] के समान पड़ा रह जाता है। अत: इस शरीर में जो प्राण तत्त्व है, वही [[आत्मा] है, परमात्मा का अंश है, वही सत है, वही जीवन है।


इस प्रक्रिया को सभी वर्तमान वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोश तक अन्न को, तेज की ऊर्जा से जल ही ले जाता है। इस प्रक्रिया के चलते ही शरीर जीवित रहता है और इस प्रक्रिया के रूकते ही शरीर मृत हो जाता है।
इस प्रक्रिया को सभी वर्तमान वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोश तक अन्न को, तेज की ऊर्जा से जल ही ले जाता है। इस प्रक्रिया के चलते ही शरीर जीवित रहता है और इस प्रक्रिया के रूकते ही शरीर मृत हो जाता है।

Latest revision as of 08:20, 10 February 2021

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-6 खण्ड-8
विवरण 'छान्दोग्य उपनिषद' प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। नाम के अनुसार इस उपनिषद का आधार छन्द है।
अध्याय छठा
कुल खण्ड 16 (सोलह)
सम्बंधित वेद सामवेद
संबंधित लेख उपनिषद, वेद, वेदांग, वैदिक काल, संस्कृत साहित्य
अन्य जानकारी सामवेद की तलवकार शाखा में छान्दोग्य उपनिषद को मान्यता प्राप्त है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिम आठ अध्याय ही छान्दोग्य उपनिषद में लिये गये हैं।

छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय छठे का यह आठवाँ खण्ड है। इस खण्ड में 'जीवन-मृत्यु' के सन्दर्भ में अन्न, जल और तेज के महत्त्व को समझाते हुए उसके सृजन, संहार क्रम को दर्शाया गया है कि कब इनका शरीर में तेज़ीसे प्रादुर्भाव होता है और कब ये शरीर का साथ छोड़ जाते हैं।

सोते समय पुरुष का शरीर सततत्त्व से जुड़ जाता हे। इसको 'स्वयित,' अर्थात् 'अपने आपको प्राप्त करने' की स्थिति कहते हैं। जैसे डोरी से बंधा बाज पक्षी सभी दिशाओं में उढ़ने के उपरान्त पुन: अपने उसी स्थान पर आ जाता है, जहां वह बंधा है, वैसे ही यह मन इधर-उधर भटकने के उपरान्त शरीर का ही आश्रय ग्रहण करता है। शरीर में यह प्राणतत्त्व में विश्राम करता है। अत: यह मन प्राणों से बंधा है।

इस शरीर का मूल 'जल' और 'अन्न' ही है। शरीर जिस अन्न को ग्रहण करता है, उसे जल की शरीर के प्रत्येक भाग में पहुंचाता है। यह शरीर अन्नमय है। इसी प्रकार जल की गति का आधार तेज है, ऊर्जा है। इस प्रकार अन्न ग्रहण करते ही जल और तेज की क्रियाएं सक्रिय हो जाती हैं। इसी से 'जीवन' का आधार तय होता है।

परन्तु 'मृत्यु' के समय शरीर सबसे पहले यह तेज, अर्थात् अग्नि तत्त्व छोड़ देता है। अग्नि तत्त्व के जाते ही वाणी साथ छोड़ जाती है, परन्तु मन फिर भी सक्रिय बना रहता है; क्योंकि उसमें पृथ्वी तत्त्व प्रमुख होता है। अन्न के माध्यम से वह प्राण में निहित रहता है, किन्तु जब प्राण भी तेज में विलीन हो जाते हैं और तेज भी शरीर का साथ छोड़ देता है, तो शरीर मृत हो जाता है। धरती के अतिरिक्त अन्य सभी तत्त्व साथ छोड़ जाते हैं और शरीर मिट्टी के समान पड़ा रह जाता है। अत: इस शरीर में जो प्राण तत्त्व है, वही [[आत्मा] है, परमात्मा का अंश है, वही सत है, वही जीवन है।

इस प्रक्रिया को सभी वर्तमान वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोश तक अन्न को, तेज की ऊर्जा से जल ही ले जाता है। इस प्रक्रिया के चलते ही शरीर जीवित रहता है और इस प्रक्रिया के रूकते ही शरीर मृत हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-1

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खण्ड-1 से 15 | खण्ड-16 से 26

छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-8

खण्ड-1 से 6 | खण्ड-7 से 15