बहलोल लोदी: Difference between revisions
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वह दिल्ली का पहला अफ़ग़ान सुल्तान था। जिसने लोदी राजवंश की शुरूआत की। बहलोल के सुल्तान बनने के समय दिल्ली सल्तनत नाम मात्र की थी। बहलोल शूरवीर, युद्धप्रिय और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने [[जौनपुर]], [[मेवात]], [[सम्भल]] तथा रेवाड़ी पर अपनी सत्ता फिर से स्थापित की और दोआब के सरदारों का दमन किया। उसने [[ग्वालियर]] पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार उसने दिल्ली सल्तनत का पुराना दरबार एक प्रकार से फिर से क़ायम किया। वह ग़रीबों से हमदर्दी रखता था और विद्वानों का आश्रयदाता था। दरबार में शालीनता और शिष्टाचार के पालन पर ज़ोर देकर तथा अमीरों को अनुशासन में बाँध कर उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा को बहुत ऊपर उठा दिया। | वह दिल्ली का पहला अफ़ग़ान सुल्तान था। जिसने लोदी राजवंश की शुरूआत की। बहलोल के सुल्तान बनने के समय दिल्ली सल्तनत नाम मात्र की थी। बहलोल शूरवीर, युद्धप्रिय और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने [[जौनपुर]], [[मेवात]], [[सम्भल]] तथा रेवाड़ी पर अपनी सत्ता फिर से स्थापित की और दोआब के सरदारों का दमन किया। उसने [[ग्वालियर]] पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार उसने दिल्ली सल्तनत का पुराना दरबार एक प्रकार से फिर से क़ायम किया। वह ग़रीबों से हमदर्दी रखता था और विद्वानों का आश्रयदाता था। दरबार में शालीनता और शिष्टाचार के पालन पर ज़ोर देकर तथा अमीरों को अनुशासन में बाँध कर उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा को बहुत ऊपर उठा दिया। |
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बहलोल लोदी 1451 से 1489 ई. तक दिल्ली का सुल्तान था। वह लोदी क़बीले का अफ़ग़ान था, इसलिए लोदी उसका उपनाम बन गया। 1451 ई. में जब सैयद राजवंश के सुल्तान आलम शाह ने दिल्ली का तख़्त छोड़ा, उस समय बहलोल लाहौर और सरहिन्द का सूबेदार था। उसने अपने वज़ीर हमीद ख़ाँ की मदद से दिल्ली के तख़्त पर क़ब्ज़ा कर लिया।
पहला अफ़ग़ान सुल्तान
वह दिल्ली का पहला अफ़ग़ान सुल्तान था। जिसने लोदी राजवंश की शुरूआत की। बहलोल के सुल्तान बनने के समय दिल्ली सल्तनत नाम मात्र की थी। बहलोल शूरवीर, युद्धप्रिय और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने जौनपुर, मेवात, सम्भल तथा रेवाड़ी पर अपनी सत्ता फिर से स्थापित की और दोआब के सरदारों का दमन किया। उसने ग्वालियर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार उसने दिल्ली सल्तनत का पुराना दरबार एक प्रकार से फिर से क़ायम किया। वह ग़रीबों से हमदर्दी रखता था और विद्वानों का आश्रयदाता था। दरबार में शालीनता और शिष्टाचार के पालन पर ज़ोर देकर तथा अमीरों को अनुशासन में बाँध कर उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा को बहुत ऊपर उठा दिया।
उसने दोआब के विद्रोही हिन्दुओं का कठोरता के साथ दमन किया, बंगाल के सूबेदार तोग़रल ख़ाँ को हराकर मार डाला और उसके प्रमुख समर्थकों को बंगाल की राजधानी लखनौती के मुख्य बाज़ार में फ़ाँसी पर लटकवा दिया। उपरान्त अपने पुत्र बुग़रा ख़ाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त करके यह चेतावनी दे दी कि उसने भी यदि विद्रोह करने का प्रयास किया तो उसका भी हश्र वही होगा जो तोग़रल ख़ाँ का हो चुका है।
भारत पर आक्रमण
बलबन ने अपना ध्यान सुरक्षा पर केन्द्रित किया, जिसके लिए उस समय पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों से ख़तरा था। वे किसी भी समय भारत पर आक्रमण कर सकते थे। अत: बलबन ने अपने बड़े लड़के मुहम्मद ख़ाँ को सुल्तान का हाक़िम नियुक्त किया और स्वयं भी सीमा के आसपास ही पड़ाव डालकर रहने लगा। उसका डर बेबुनियाद नहीं था। मंगोलों ने 1278 ई. में भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया, किन्तु शाह आलम मुहम्मद ख़ाँ ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया। 1285 ई. में पुन: आक्रमण कर वे मुल्तान तक बढ़ आये, और शाहजादे पर हमला करके उसे मार डाला। सुल्तान के लिए, जो कि अपने बड़े बेटे से बहुत प्यार करता था और यह उम्मीद लगाये बैठा था कि वह उसका उत्तराधिकारी होगा, यह भीषण आघात था। बलबन की अवस्था उस समय अस्सी वर्ष हो चुकी थी और पुत्र शोक में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी गणना दिल्ली के सबसे शक्तिशाली सुल्तानों में होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ