मक्का: Difference between revisions
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यह पेट के अल्सर और गैस्ट्रिक अल्सर के छुटकारा दिलाने में सहायक है, साथ ही यह वज़न घटाने में भी सहायक होता है। कमज़ोरी में यह बेहतर [[ऊर्जा]] प्रदान करता है और बच्चों के सूखे के रोग में अत्यंत फायदेमंद है। यह मूत्र प्रणाली पर नियंत्रण रखता है, [[दाँत]] मजबूत रखता है, और कार्नफ्लेक्स के रूप में लेने से हृदय रोग में भी लाभदायक होता है।<ref name="mcc"/> | यह पेट के अल्सर और गैस्ट्रिक अल्सर के छुटकारा दिलाने में सहायक है, साथ ही यह वज़न घटाने में भी सहायक होता है। कमज़ोरी में यह बेहतर [[ऊर्जा]] प्रदान करता है और बच्चों के सूखे के रोग में अत्यंत फायदेमंद है। यह मूत्र प्रणाली पर नियंत्रण रखता है, [[दाँत]] मजबूत रखता है, और कार्नफ्लेक्स के रूप में लेने से हृदय रोग में भी लाभदायक होता है।<ref name="mcc"/> | ||
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मक्का एक ग्रीष्मकालीन फ़सल है। सभी अवस्थाओं में तापमान लगभग 25 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना चाहिए। पकते समय गर्म तथा शुष्क वातावरण ठीक होता है। पाला फ़सल के लिए उसकी किसी भी अवस्था में हानिकारक होता है, और फ़सल पूर्ण नष्ट हो सकती है। अंकुरण के लिए न्यूनतम तापक्रम 10 डिग्री सेल्सियस रहना चाहिए। अधिकतम बढ़वार और पैदावार के लिए भूमि अधिक उपजाऊ दोमट भूमि, जिसमे वायुसंचार अच्छा हो, पानी का निकास समुचित हो तथा जीवांश पदार्थ काफ़ी मात्रा में पाया जाता हो, उत्तम होती है। मक्का की खेती ऐसी भूमियों में, जिनका पी. एच. मान 6.0-7.0 तक हो, की जा सकती है। | मक्का एक ग्रीष्मकालीन फ़सल है। सभी अवस्थाओं में तापमान लगभग 25 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना चाहिए। पकते समय गर्म तथा शुष्क वातावरण ठीक होता है। पाला फ़सल के लिए उसकी किसी भी अवस्था में हानिकारक होता है, और फ़सल पूर्ण नष्ट हो सकती है। अंकुरण के लिए न्यूनतम तापक्रम 10 डिग्री सेल्सियस रहना चाहिए। अधिकतम बढ़वार और पैदावार के लिए भूमि अधिक उपजाऊ दोमट भूमि, जिसमे वायुसंचार अच्छा हो, पानी का निकास समुचित हो तथा जीवांश पदार्थ काफ़ी मात्रा में पाया जाता हो, उत्तम होती है। मक्का की खेती ऐसी भूमियों में, जिनका पी. एच. मान 6.0-7.0 तक हो, की जा सकती है।<ref>{{cite web |url=http://arganikbhagyoday.blogspot.com/2010/09/blog-post_46.html |title=मक्के की ओरगेनिक खेती |accessmonthday=18 जून|accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= एच.टी.एम.एल.|publisher= |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | ||
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मक्के में रबी या खरीफ ऋतू के लगभग सभी खरपतवारों की समस्या आती हैं, जिन्हें समय-समय पर निराई-गुड़ाई करके निकालते रहना चाहिए। निराई गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ ही मृदा में [[आक्सीजन]] का संचार होता है , जिससे वह दूर- र तक फैलकर भोज्य पदार्थों को एकत्र कर पौधों को देती है। पहली निराई जमाव के 15 दिन बाद कर देनी चाहिए और दूसरी निराई 35-40 दिन बाद करनी चाहिए। | मक्के में रबी या खरीफ ऋतू के लगभग सभी खरपतवारों की समस्या आती हैं, जिन्हें समय-समय पर निराई-गुड़ाई करके निकालते रहना चाहिए। निराई गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ ही मृदा में [[आक्सीजन]] का संचार होता है , जिससे वह दूर- र तक फैलकर भोज्य पदार्थों को एकत्र कर पौधों को देती है। पहली निराई जमाव के 15 दिन बाद कर देनी चाहिए और दूसरी निराई 35-40 दिन बाद करनी चाहिए। | ||
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*250 मिली नीम पानी को 25 मिली माइक्रो झाइम के साथ प्रति पम्प अच्छी तरह मिलाकर तर-बतर कर छिडकाव करें। | *250 मिली नीम पानी को 25 मिली माइक्रो झाइम के साथ प्रति पम्प अच्छी तरह मिलाकर तर-बतर कर छिडकाव करें। | ||
*500 ग्राम लहसुन, 500 ग्राम तीखी चटपटी हरी मिर्च लेकर बारीक पीसकर 150-200 लीटर पानी में घोलकर फ़सलों पर छिडकाव करें। इससे इल्ली जैसे रस चूसक कीड़े नियंत्रित होंगे। | *500 ग्राम लहसुन, 500 ग्राम तीखी चटपटी हरी मिर्च लेकर बारीक पीसकर 150-200 लीटर पानी में घोलकर फ़सलों पर छिडकाव करें। इससे इल्ली जैसे रस चूसक कीड़े नियंत्रित होंगे। | ||
==प्रमुख रोग== | ==प्रमुख रोग== | ||
#'''पत्तियों का झुलसा रोग''' - इस रोग में पत्तियों पर बड़े लम्बे अथवा कुछ अंडाकार [[भूरा रंग|भूरे रंग]] के धब्बे पड़ जाते हैं, जिससे रोग के उग्र होने पर पत्तियाँ झुलसकर सूख जाती हैं। | #'''पत्तियों का झुलसा रोग''' - इस रोग में पत्तियों पर बड़े लम्बे अथवा कुछ अंडाकार [[भूरा रंग|भूरे रंग]] के धब्बे पड़ जाते हैं, जिससे रोग के उग्र होने पर पत्तियाँ झुलसकर सूख जाती हैं। |
Revision as of 10:51, 18 June 2011
मक्का, 'ग्रामिनी' कुल की लंबी उगने वाली एकवर्षी घास है। इसकी जड़ें तंतुवत प्रकार की होती हैं। तना मोटा, गोल तथा जातियों के अनुसार 4 से 10 फ़ुट तक लंबा होता है। पौधे में शाखाएँ नहीं होतीं। तने में पर्वसंधि मोटी एवं पर्व ठोस होते हैं। पत्तियाँ लंबी, रेखीय तथा चौड़ी होती हैं। यह एकलिंग पुष्पी पौधा है, जिसके नर-मादा पुष्प एक ही पौधे के विभिन्न भागों पर होते हैं। नर पुष्प सिरे पर एक गुच्छे में होते हैं, जिन्हें 'झब्बा' कहते हैं। तने के एक ओर से पत्तियों के कक्ष से बालियाँ या भुट्टे निकलते हैं, जो एक से चार तक प्रति पौधे में हो सकते हैं। इन बालियों में मादा कोशिकाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें 'रजकण' कहते हैं। ये एक लंबी कुक्षिनाल द्वारा जुड़ी होती हैं। यह वायु द्वारा निषेचित पौधा है। मक्के की खेती उत्तरी अमरीका में सब देशों से अधिक होती है। वहाँ लगभग आठ करोड़ एकड़ भूमि में आठ करोड़ टन मक्का पैदा होती है, जबकि भारत के 87,62,000 एकड़ में 30,64,000 टन ही मक्का पैदा होती है।
उत्पादक क्षेत्र
ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि आज से दस हज़ार वर्षों पूर्व सर्वप्रथम, मैक्सिको में भारतीयों द्वारा ही इसकी उपज पैदा की गई थी। भारत में गेहूँ के बाद मक्के का उत्पादन सर्वाधिक होता है। अमेरिका इसका सर्वाधिक निर्यात करने वाला देश है। मक्का का दाना गोल, चपटा, तश्तरी की भाँति तथा कई रंग का, जैसे पीला, लाल, नारंगी, बैंगनी तथा मक्खन सदृश सफ़ेद होता है। भारत में वर्षा के प्रारंभ होने के साथ साथ खरीफ में अधिकतर 'स्फट मक्का' बोया जाता है। मक्का अधिकतर उष्ण कटिबंध के प्रदेशों में ही बोया जाता है, परंतु शीत कटिबंध में भी उगने वाली जातियाँ होती हैं। मक्का के लिये अधिक उपजाऊ, भली प्रकार जलोत्सरित तथा हल्की दोमट भूमि की आवश्यकता होती है। मक्का की निराई तथा गुड़ाई अति आवश्यक हैं। इसकी रोपाई नहीं की जा सकती। पौधों तथा पंक्तियों की दूरी विभिन्न जातियों पर निर्भर है।
पोषक तत्त्व
ग़रीबों का भोजन मक्का अब अपने पौष्टिक गुणों के कारण अमीरों के मेज की शान बढ़ाने लगा है। पहले भारत में यह केवल निम्न वर्ग द्वारा ही खाया जाता था। अब कॉर्नफ्लैक के रूप में अमीरों के नाश्ते और मध्यम वर्ग द्वारा सूप, दलिया, रोटी और न जाने किन-किन रूपों में उपयोग किया जाने लगा है। प्रोटीन और विटामिनों से भरपूर मक्का जहाँ शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है, वहीं यह बेहद सुपाच्य भी है। इसकी ख़ासियत यह है कि हर रूप में इसमें पोषक तत्व विद्यमान रहते हैं। कच्चे और पके रूप में तो यह फ़ायदेमंद होता ही है। जब इसमें विद्यमान तेल निकाल लिया जाता है और यह सूखे रूप में रह जाता है, तब भी इसके अवशिष्ट में वसा को छोड़कर शेष पोषक तत्व विटामिन, प्रोटीन इत्यादि विद्यमान रहते हैं। बच्चों के सर्वांगीण विकास में मक्के का प्रयोग सहायक होता है।[1]
उपयोग
मक्का विभिन्न रूपों में प्रयोग में लाया जाता है। सर्दियों में मक्के के आटे से रोटी बनाई जाती है। पंजाब की मक्के की रोटी और सरसों का साग केवल उत्तर भारतीयों द्वारा ही नहीं, बल्कि पूरे भारतवासियों द्वारा शौक से खाया जाता है। बड़े-बड़े होटलों और रेस्तरां में यह सर्दियों की ख़ास डिश बन जाती है। मक्के के आटे में मूली या मेथी गूँधकर बनाई गई रोटी मक्खन और दही के साथ अत्यंत स्वादिष्ट लगती है। मक्के के आटे से पावरोटी, बिस्कुट तथा टोस्ट भी बनाए जाते हैं। कच्चे मक्के को सुखाकर उसे दरदरा पीसकर दलिया बनाया जाता है। यह दलिया दूध में पकाकर खाने से सुस्वादु होने के साथ पौष्टिक भी होता है।[1]
विभिन्न वस्तुओं का निर्माण
बरसात के मौसम में भूना हुआ भुट्टा छोटे-बड़े सभी के मन को भाता है। लोग भुट्टे के अलावा पॉपकार्न, भुने हुए मकई के पक्के दाने के भी दीवाने होते हैं, जो साधारण से भड़भूजे से लेकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा बेचे जाते हैं। पका भुट्टा उबालकर इमली की चटनी के साथ खाने में अत्यंत स्वादिष्ट लगता है। मक्के का गरम-गरम सूप पीना हर मौसम में स्वास्थ्यवर्धक होता है और स्वीट कार्न सूप का तो जवाब नहीं। मक्का शर्बत, मुरब्बा मिठाइयों और बनावटी मक्खन बनाने में प्रयुक्त होता है और इसके रेशे मिट्टी के बर्तन, दवाइयाँ, रंगरोगन, काग़ज़ की चीज़ें और कपड़े बनाने के काम आते हैं। पशुओं के लिए खली के रूप में भी यह प्रयुक्त होता है। हृदय रोग विशेषज्ञ मक्के के तेल को खाद्य-पदार्थों में प्रयुक्त करने की सलाह देते हैं। एक किस्म की शराब और बीयर बनाने में भी इसका प्रयोग किया जाता है।
औद्योगिक उपयोग
आजकल मक्का का उन्नतिशील बीज 'मक्का वर्णसंकर' बीज के नाम से उत्पन्न किया जाता है। इसे 'अंत:प्रजात वंशक्रम' के संकरण से तैयार किया जाता है। ये बीज बहुत अधिक पैदावार देते हैं। मक्का का औद्योगिक उपयोग भी अधिक है। बहुत सी वस्तुएँ इससे बनाई जाती हैं, जैसे मंड, चासनी या शरबत, ऐल्कोहॉल (स्पिरिट), सिरका, ग्लूकोज़, काग़ज़, रेयन, प्लास्टिक, कृत्रिम रबर, रेज़िन, पावर ऐल्कोहॉल आदि।
मानव रोग निवारक
यह पेट के अल्सर और गैस्ट्रिक अल्सर के छुटकारा दिलाने में सहायक है, साथ ही यह वज़न घटाने में भी सहायक होता है। कमज़ोरी में यह बेहतर ऊर्जा प्रदान करता है और बच्चों के सूखे के रोग में अत्यंत फायदेमंद है। यह मूत्र प्रणाली पर नियंत्रण रखता है, दाँत मजबूत रखता है, और कार्नफ्लेक्स के रूप में लेने से हृदय रोग में भी लाभदायक होता है।[1]
जलवायु
मक्का एक ग्रीष्मकालीन फ़सल है। सभी अवस्थाओं में तापमान लगभग 25 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना चाहिए। पकते समय गर्म तथा शुष्क वातावरण ठीक होता है। पाला फ़सल के लिए उसकी किसी भी अवस्था में हानिकारक होता है, और फ़सल पूर्ण नष्ट हो सकती है। अंकुरण के लिए न्यूनतम तापक्रम 10 डिग्री सेल्सियस रहना चाहिए। अधिकतम बढ़वार और पैदावार के लिए भूमि अधिक उपजाऊ दोमट भूमि, जिसमे वायुसंचार अच्छा हो, पानी का निकास समुचित हो तथा जीवांश पदार्थ काफ़ी मात्रा में पाया जाता हो, उत्तम होती है। मक्का की खेती ऐसी भूमियों में, जिनका पी. एच. मान 6.0-7.0 तक हो, की जा सकती है।[2]
खरपतवार नियंत्रण
मक्के में रबी या खरीफ ऋतू के लगभग सभी खरपतवारों की समस्या आती हैं, जिन्हें समय-समय पर निराई-गुड़ाई करके निकालते रहना चाहिए। निराई गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ ही मृदा में आक्सीजन का संचार होता है , जिससे वह दूर- र तक फैलकर भोज्य पदार्थों को एकत्र कर पौधों को देती है। पहली निराई जमाव के 15 दिन बाद कर देनी चाहिए और दूसरी निराई 35-40 दिन बाद करनी चाहिए।
मक्के में लगने वाले प्रमुख कीट
- (कलमा कीट) भून्डली - इस कीट की गिडारें पत्तियों को बहुत तेज़ी से खाती है और फ़सल को काफ़ी हानि पहुँचती हैं। इसके शरीर पर रोएँ होते हैं।
- पट्टी लपेटक कीट - इस कीट की सुंडियाँ पत्ती के दोनों किनारों को रेशम जैसे सूत से लपेटकर अन्दर से खा लेती हैं।
- तना छेदक - इस कीट की सुंडियाँ तनों में छेद करके अन्दर ही अन्दर खाती रहती हैं, जिससे मरात्गोब बनता है और हवा चलने पर तना बीच से टूट जाता है।
- टिद्धा - इस कीट के शिशु तथा प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों को खाते हैं और हानि पहुँचाते हैं।
कीट नियंत्रण
- 5 लीटर देशी गाय का मठा लेकर उसमे 15 चने के बराबर हींग पीसकर घोल दें। इस घोल को बीजों पर डालकर बीज भिगो दें तथा 2 घंटे तक रखा रहने दें। उसके बाद बोवाई करें। यह घोल 1 एकड़ के बीज की बोवनी के लिए पर्याप्त है।
- 5 लीटर देशी गाय के गोमूत्र में बीज भिगोकर उनकी बोवाई करें।इससे ओगरा और दीमक से पौधा सुरक्षित रहेगा।
- ओगरा या दीमक से बचाव हेतु बोवाई करने से पहले बीजों को केरोसिन से भी उपचारित कर सकते हैं।
- 250 मिली नीम पानी को 25 मिली माइक्रो झाइम के साथ प्रति पम्प अच्छी तरह मिलाकर तर-बतर कर छिडकाव करें।
- 500 ग्राम लहसुन, 500 ग्राम तीखी चटपटी हरी मिर्च लेकर बारीक पीसकर 150-200 लीटर पानी में घोलकर फ़सलों पर छिडकाव करें। इससे इल्ली जैसे रस चूसक कीड़े नियंत्रित होंगे।
प्रमुख रोग
- पत्तियों का झुलसा रोग - इस रोग में पत्तियों पर बड़े लम्बे अथवा कुछ अंडाकार भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं, जिससे रोग के उग्र होने पर पत्तियाँ झुलसकर सूख जाती हैं।
- तुलासिता रोग - इस रोग में पत्तियों पर पीली धारियाँ पड़ जाती हैं, पत्तियों के नीचे की सतह पर सफ़ेद रुई के सामान फफूंदी दिखाई देती हैं। ये धब्बे बाद में गहरे अथवा लाल-भूरे पड़ जाते हैं। रोगी पौधे में भुट्टे कम पड़ते हैं या बनते ही नहीं हैं।
- तना सडन रोग - यह रोग अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में लगता है। इसमें तने की पोरियों पर जलीय धब्बे दिखाई देते हैं, जो शीघ्र ही सड़ने लगते हैं, और उनसे दुर्गन्ध आती है। पत्तियाँ पीली पड़कर सूख जाती हैं।
रोग से बचाव
रोग आने पर उपचार कराने से अच्छा है की रोग आने ही न दिया जाए। इसलिए किसान को फ़सल में 15 दिन बाद नीम पानी माइक्रो झाइम मिलाकर छिड़काव करते रहना चाहिए। अगर रोग आ ही गया है, तो उस फ़सल को तत्काल उखाड़कर जला देना चाहिए, और तत्काल हर हफ्ते नीम पानी और झाइम का छिडकाव करते रहना चाहिए। जब तक फ़सल रोगमुक्त न हो जाए। विषमुक्त, रोगमुक्त और तंदुरुस्त बीज की बोवाई करना चाहिए। अगर किसान ओरगेनिक खेती कर रहा है, तो उपरोक्त बीमारियाँ आने का अवसर ही नहीं होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 मधुर मक्का (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 17 जून, 2011।
- ↑ मक्के की ओरगेनिक खेती (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 18 जून, 2011।
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