शुकदेव: Difference between revisions

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महात्मा शुकदेव भगवान [[वेदव्यास]] के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणाम स्वरूप भगवान [[शंकर]] का अद्भुत वरदान बताया गया है। एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्री[[कृष्ण]] और श्री[[राधिका]]जी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान [[शिव]] [[पार्वती देवी|पार्वती]]जी को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर [[व्यास]] जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें [[वेद]], [[उपनिषद]], [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] और [[पुराण]] आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उस पर कोई ध्यान न दिया।  
महात्मा शुकदेव भगवान [[वेदव्यास]] के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणाम स्वरूप भगवान [[शंकर]] का अद्भुत वरदान बताया गया है। एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्री[[कृष्ण]] और श्री[[राधिका]]जी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान [[शिव]] [[पार्वती देवी|पार्वती]]जी को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर [[व्यास]] जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें [[वेद]], [[उपनिषद]], [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] और [[पुराण]] आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उस पर कोई ध्यान न दिया।  
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श्रीशुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गाँवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास जी की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव जी [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]]-जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थें श्रीव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिये जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बँधकर शुकदेव जी अपने पिता श्रीव्यास जी के पास लौट आये। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के अठारह हजार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया। इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज [[परीक्षित]] को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित जी ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास जी के आदेश पर श्रीशुकदेव जी महाराज परम तत्त्वज्ञानी महाराज [[जनक]] के पास गये और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। आज भी महात्मा शुकदेव अमर हैं। ये समय-समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा कृतार्थ किया करते हैं।
श्रीशुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गाँवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास जी की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव जी [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]]-जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थें श्रीव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिये जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बँधकर शुकदेव जी अपने पिता श्रीव्यास जी के पास लौट आये। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया। इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज [[परीक्षित]] को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित जी ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास जी के आदेश पर श्रीशुकदेव जी महाराज परम तत्त्वज्ञानी महाराज [[जनक]] के पास गये और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। आज भी महात्मा शुकदेव अमर हैं। ये समय-समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा कृतार्थ किया करते हैं।


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Revision as of 14:19, 6 May 2010

शुकदेव / Shukdev

महात्मा शुकदेव भगवान वेदव्यास के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणाम स्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है। एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वतीजी को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर व्यास जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उस पर कोई ध्यान न दिया।


श्रीशुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गाँवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास जी की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव जी श्रीमद्भागवत-जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थें श्रीव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिये जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बँधकर शुकदेव जी अपने पिता श्रीव्यास जी के पास लौट आये। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया। इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज परीक्षित को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित जी ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास जी के आदेश पर श्रीशुकदेव जी महाराज परम तत्त्वज्ञानी महाराज जनक के पास गये और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। आज भी महात्मा शुकदेव अमर हैं। ये समय-समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा कृतार्थ किया करते हैं।