बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-1 ब्राह्मण-1: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "Category:उपनिषद" to "Category:उपनिषदCategory:संस्कृत साहित्य") |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 15: | Line 15: | ||
{{लेख प्रगति|आधार= | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{बृहदारण्यकोपनिषद}} | {{बृहदारण्यकोपनिषद}} | ||
[[Category:बृहदारण्यकोपनिषद]] | [[Category:बृहदारण्यकोपनिषद]][[Category:हिन्दू दर्शन]] | ||
[[Category:दर्शन | [[Category:उपनिषद]][[Category:संस्कृत साहित्य]] [[Category:दर्शन कोश]] | ||
[[Category:उपनिषद]][[Category:संस्कृत साहित्य]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ |
Revision as of 10:04, 3 August 2014
- बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय प्रथम का यह प्रथम ब्राह्मण है।
- REDIRECTसाँचा:मुख्य
- इस ब्राह्मण में प्रकृति के विराट रूप की तुलना 'अश्वमेध यज्ञ' के घोड़े से की गयी है।
- उसके विविध अंगों में सृष्टि के विविध स्वरूपों की कल्पना की गयी है।
- 'अश्व' शब्द शक्ति और गति का परिचायक हैं।
- यह सम्पूर्ण ब्राह्मण भी निरन्तर सतत गतिशील है।
- इस प्रकार वैदिक ऋषि अश्वमेध के अश्व के माध्यम से सम्पूर्ण सृष्टि को उस अज्ञात शक्ति द्वारा सतत गतिशील सिद्ध करते हैं।
- 'अश्व' उस राजा की शक्ति का प्रतीक है, जो चक्रवर्ती कहलाना चाहता हैं इसी भांति यह सम्पूर्ण सृष्टि उस परब्रह्म की शक्ति का प्रतीक है।
- जिस प्रकार अश्वमेध यज्ञ में 'अश्व' की पूजा की जाती है और बाद में उसकी बलि चढ़ा दी जाती है, उसी प्रकार साधक इस सृष्टि की उपासना करता है, किन्तु अन्त में इस सृष्टि को नश्वर जानकर छोड़ देता है और इससे परे उस 'ब्रह्म' को ही अनुभव करता है, जो इस सृष्टि का नियन्ता है। जैसे लोकिक जगत में सभी 'अश्व' से परे उस 'राजा' को देखते हैं, जिसके यज्ञ का वह घोड़ा है तथा 'राजा' ही प्रमुख होता है, वैसे ही अध्यात्मिक जगत में वह 'ब्रह्म' है।
- उदाहरण के रूप में ऋषियों की इस कल्पना का अवलोकन करें- यह यज्ञीय अश्व या विश्वव्यापी शक्ति प्रवाह का सिर 'उषाकाल' है।
- आदित्य (सूर्य) नेत्र हैं, वायु प्राण है, खुला मुख 'आत्मा' है, अन्तरिक्ष उदर है, दिन और रात्रि दोनों पैर हैं, नक्षत्र समूह अस्थियां हैं और आकाश मांस है।
- मेघों का गर्जन उसकी अंगड़ाई है और जल-वर्षा उसका मूत्र है और शब्द घोष (हिनहिनाना) वाणी है।
- वास्तव में ये उपमाएं उस विराट सृष्टि का केवल बोध कराती हैं।
- दूसरे शब्दों में ऋषिगण मूर्त प्रतीकों के द्वारा अमूर्त ब्रह्म की विराट संचेतना का दिग्दर्शन कराते हैं। वही उपासना के योग्य है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख