वैदेही वनवास प्रथम सर्ग: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 14: Line 14:
|शीर्षक 1=शैली
|शीर्षक 1=शैली
|पाठ 1=[[खंडकाव्य]]
|पाठ 1=[[खंडकाव्य]]
|शीर्षक 2=[[छन्द]]
|शीर्षक 2=सर्ग नाम / छन्द
|पाठ 2=रोला
|पाठ 2=उपवन / रोला
|बाहरी कड़ियाँ=
|बाहरी कड़ियाँ=
}}
}}
|-  
|-  
| {{वैदेही वनवास}}
|
{{वैदेही वनवास}}
|}
|}
{{Poemopen}}
<poem>
लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी।
नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥
धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था।
ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥1॥


किरणों का आगमन देख ऊषा मुसकाई।
मिले साटिका-लैस-टँकी लसिता बन पाई॥
अरुण-अंक से छटा छलक क्षिति-तल पर छाई।
भृंग गान कर उठे विटप पर बजी बधाई॥2॥


दिन मणि निकले, किरण ने नवलज्योति जगाई।
मुक्त-मालिका विटप तृणावलि तक ने पाई॥
शीतल बहा समीर कुसुम-कुल खिले दिखाए।
तरु-पल्लव जगमगा उठे नव आभा पाए॥3॥
सर-सरिता का सलिल सुचारु बना लहराया।
बिन्दु-निचय ने रवि के कर से मोती पाया॥
उठ-उठ कर नाचने लगीं बहु-तरल तरंगें।
दिव्य बन गईं वरुण-देव की विपुल उमंगें॥4॥
सारा-तम टल गया अंधता भव की छूटी।
प्रकृति-कंठ-गत मुग्ध-करी मणिमाला टूटी॥
बीत गयी यामिनी दिवस की फिरी दुहाई।
बनीं दिशाएँ दिव्य प्रभात प्रभा दिखलाई॥5॥
एक रम्यतम-नगर सुधा-धावलित-धामों पर।
पड़ कर किरणें दिखा रही थीं दृश्य-मनोहर॥
गगन-स्पर्शी ध्वजा-पुंज के, रत्न-विमण्डित-
कनक-दण्ड, द्युति दिखा बनाते थे बहु-हर्षित॥6॥
किरणें उनकी कान्त कान्ति से मिल जब लसतीं।
निज आभा को जब उनकी आभा पर कसतीं॥
दर्शक दृग उस समय न टाले से टल पाते।
वे होते थे मुग्ध, हृदय थे उछले जाते॥7॥
दमक-दमक कर विपुल-कलस जो कला दिखाते।
उसे देख रवि ज्योति दान करते न अघाते॥
दिवस काल में उन्हें न किरणें तज पाती थीं।
आये संध्या-समय विवश बन हट जाती थीं॥8॥
हिल हिल मंजुल-ध्वजा अलौकिकता थी पाती।
दर्शक-दृग को बार-बार थी मुग्ध बनाती॥
तोरण पर से सरस-वाद्य ध्वनि जो आती थी।
मानो सुन वह उसे नृत्य-रत दिखलाती थी॥9॥
इन धामों के पार्श्व-भाग में बड़ा मनोहर।
एक रम्य-उपवन था नन्दन-वन सा सुन्दर॥
उसके नीचे तरल-तरंगायित सरि-धारा।
प्रवह-मान हो करती थी कल-कल-रव न्यारा॥10॥
उसके उर में लसी कान्त-अरुणोदय-लाली।
किरणों से मिल, दिखा रही थी कान्ति-निराली।
कियत्काल उपरान्त अंक सरि का हो उज्ज्वल।
लगा जगमगाने नयनों में भर कौतूहल॥11॥
उठे बुलबुले कनक-कान्ति से कान्तिमान बन।
लगे दिखाने सामूहिक अति-अद्भुत-नर्तन॥
उठी तरंगें रवि कर का चुम्बन थीं करती।
पाकर मंद-समीर विहरतीं उमग उभरतीं॥12॥
सरित-गर्भ में पड़ा बिम्ब प्रासाद-निचय का।
कूल-विराजित विटप-राजि छाया अभिनय का॥
दृश्य बड़ा था रम्य था महा-मंजु दिखाता।
लहरों में लहरा लहरा था मुग्ध बनाता॥13॥
उपवन के अति-उच्च एक मण्डप में विलसी।
मूर्ति-युगल इन दृश्यों के देखे थी विकसी॥
इनमें से थे एक दिवाकर कुल के मण्डन।
श्याम गात आजानु-बाहु सरसीरूह-लोचन॥14॥
मर्यादा के धाम शील-सौजन्य-धुरंधर।
दशरथ-नन्दन राम परम-रमणीय-कलेवर॥
थीं दूसरी विदेह-नन्दिनी लोक-ललामा।
सुकृति-स्वरूपा सती विपुल-मंजुल-गुण-धामा॥15॥
वे बैठी पति साथ देखती थीं सरि-लीला।
था वदनांबुज विकच वृत्ति थी संयम-शीला॥
सरस मधुर वचनों के मोती कभी पिरोतीं।
कभी प्रभात-विभूति विलोक प्रफुल्लित होतीं॥16॥
बोले रघुकुल-तिलक प्रिये प्रात:-छबि प्यारी।
है नितान्त-कमनीय लोक-अनुरंजनकारी॥
प्रकृति-मृदुल-तम-भाव-निचय से हो हो लसिता।
दिनमणि-कोमल-कान्ति व्याज से है सुविकसिता॥17॥
सरयू सरि ही नहीं सरस बन है लहराती।
सभी ओर है छटा छलकती सी दिखलाती॥
रजनी का वर-व्योम विपुल वैचित्रय भरा है।
दिन में बनती दिव्य-दृश्य-आधार धरा है॥18॥
हो तरंगिता-लसिता-सरिता यदि है भाती।
तो दोलित-तरु-राजि कम नहीं छटा दिखाती॥
जल में तिरती केलि मयी मछलियाँ मनोहर।
कर देती हैं सरित-अंक को जो अति सुन्दर॥19॥
तो तरुओं पर लसे विहरते आते जाते।
रंग विरंगे विहग-वृन्द कम नहीं लुभाते॥
सरिता की उज्वलता तरुचय की हरियाली।
रखती है छबि दिखा मंजुता-मुख की लाली॥20॥
</poem>
{{Poemclose}}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

Revision as of 10:01, 4 April 2013

वैदेही वनवास प्रथम सर्ग
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली खंडकाव्य
सर्ग नाम / छन्द उपवन / रोला
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
वैदेही वनवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल अठारह (18) सर्ग
वैदेही वनवास प्रथम सर्ग
वैदेही वनवास द्वितीय सर्ग
वैदेही वनवास तृतीय सर्ग
वैदेही वनवास चतुर्थ सर्ग
वैदेही वनवास पंचम सर्ग
वैदेही वनवास षष्ठ सर्ग
वैदेही वनवास सप्तम सर्ग
वैदेही वनवास अष्टम सर्ग
वैदेही वनवास नवम सर्ग
वैदेही वनवास दशम सर्ग
वैदेही वनवास एकादश सर्ग
वैदेही वनवास द्वादश सर्ग
वैदेही वनवास त्रयोदश सर्ग
वैदेही वनवास चतुर्दश सर्ग
वैदेही वनवास पंचदश सर्ग
वैदेही वनवास षोडश सर्ग
वैदेही वनवास सप्तदश सर्ग
वैदेही वनवास अष्टदश सर्ग

लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी।
नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥
धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था।
ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥1॥

किरणों का आगमन देख ऊषा मुसकाई।
मिले साटिका-लैस-टँकी लसिता बन पाई॥
अरुण-अंक से छटा छलक क्षिति-तल पर छाई।
भृंग गान कर उठे विटप पर बजी बधाई॥2॥

दिन मणि निकले, किरण ने नवलज्योति जगाई।
मुक्त-मालिका विटप तृणावलि तक ने पाई॥
शीतल बहा समीर कुसुम-कुल खिले दिखाए।
तरु-पल्लव जगमगा उठे नव आभा पाए॥3॥

सर-सरिता का सलिल सुचारु बना लहराया।
बिन्दु-निचय ने रवि के कर से मोती पाया॥
उठ-उठ कर नाचने लगीं बहु-तरल तरंगें।
दिव्य बन गईं वरुण-देव की विपुल उमंगें॥4॥

सारा-तम टल गया अंधता भव की छूटी।
प्रकृति-कंठ-गत मुग्ध-करी मणिमाला टूटी॥
बीत गयी यामिनी दिवस की फिरी दुहाई।
बनीं दिशाएँ दिव्य प्रभात प्रभा दिखलाई॥5॥

एक रम्यतम-नगर सुधा-धावलित-धामों पर।
पड़ कर किरणें दिखा रही थीं दृश्य-मनोहर॥
गगन-स्पर्शी ध्वजा-पुंज के, रत्न-विमण्डित-
कनक-दण्ड, द्युति दिखा बनाते थे बहु-हर्षित॥6॥

किरणें उनकी कान्त कान्ति से मिल जब लसतीं।
निज आभा को जब उनकी आभा पर कसतीं॥
दर्शक दृग उस समय न टाले से टल पाते।
वे होते थे मुग्ध, हृदय थे उछले जाते॥7॥

दमक-दमक कर विपुल-कलस जो कला दिखाते।
उसे देख रवि ज्योति दान करते न अघाते॥
दिवस काल में उन्हें न किरणें तज पाती थीं।
आये संध्या-समय विवश बन हट जाती थीं॥8॥

हिल हिल मंजुल-ध्वजा अलौकिकता थी पाती।
दर्शक-दृग को बार-बार थी मुग्ध बनाती॥
तोरण पर से सरस-वाद्य ध्वनि जो आती थी।
मानो सुन वह उसे नृत्य-रत दिखलाती थी॥9॥

इन धामों के पार्श्व-भाग में बड़ा मनोहर।
एक रम्य-उपवन था नन्दन-वन सा सुन्दर॥
उसके नीचे तरल-तरंगायित सरि-धारा।
प्रवह-मान हो करती थी कल-कल-रव न्यारा॥10॥

उसके उर में लसी कान्त-अरुणोदय-लाली।
किरणों से मिल, दिखा रही थी कान्ति-निराली।
कियत्काल उपरान्त अंक सरि का हो उज्ज्वल।
लगा जगमगाने नयनों में भर कौतूहल॥11॥

उठे बुलबुले कनक-कान्ति से कान्तिमान बन।
लगे दिखाने सामूहिक अति-अद्भुत-नर्तन॥
उठी तरंगें रवि कर का चुम्बन थीं करती।
पाकर मंद-समीर विहरतीं उमग उभरतीं॥12॥

सरित-गर्भ में पड़ा बिम्ब प्रासाद-निचय का।
कूल-विराजित विटप-राजि छाया अभिनय का॥
दृश्य बड़ा था रम्य था महा-मंजु दिखाता।
लहरों में लहरा लहरा था मुग्ध बनाता॥13॥

उपवन के अति-उच्च एक मण्डप में विलसी।
मूर्ति-युगल इन दृश्यों के देखे थी विकसी॥
इनमें से थे एक दिवाकर कुल के मण्डन।
श्याम गात आजानु-बाहु सरसीरूह-लोचन॥14॥

मर्यादा के धाम शील-सौजन्य-धुरंधर।
दशरथ-नन्दन राम परम-रमणीय-कलेवर॥
थीं दूसरी विदेह-नन्दिनी लोक-ललामा।
सुकृति-स्वरूपा सती विपुल-मंजुल-गुण-धामा॥15॥

वे बैठी पति साथ देखती थीं सरि-लीला।
था वदनांबुज विकच वृत्ति थी संयम-शीला॥
सरस मधुर वचनों के मोती कभी पिरोतीं।
कभी प्रभात-विभूति विलोक प्रफुल्लित होतीं॥16॥

बोले रघुकुल-तिलक प्रिये प्रात:-छबि प्यारी।
है नितान्त-कमनीय लोक-अनुरंजनकारी॥
प्रकृति-मृदुल-तम-भाव-निचय से हो हो लसिता।
दिनमणि-कोमल-कान्ति व्याज से है सुविकसिता॥17॥

सरयू सरि ही नहीं सरस बन है लहराती।
सभी ओर है छटा छलकती सी दिखलाती॥
रजनी का वर-व्योम विपुल वैचित्रय भरा है।
दिन में बनती दिव्य-दृश्य-आधार धरा है॥18॥

हो तरंगिता-लसिता-सरिता यदि है भाती।
तो दोलित-तरु-राजि कम नहीं छटा दिखाती॥
जल में तिरती केलि मयी मछलियाँ मनोहर।
कर देती हैं सरित-अंक को जो अति सुन्दर॥19॥

तो तरुओं पर लसे विहरते आते जाते।
रंग विरंगे विहग-वृन्द कम नहीं लुभाते॥
सरिता की उज्वलता तरुचय की हरियाली।
रखती है छबि दिखा मंजुता-मुख की लाली॥20॥

पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख