चक्रवर्ती: Difference between revisions
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प्राचीन भारत में चक्रवर्ती राजा को [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध]] या [[राजसूय यज्ञ]] करने का अधिकार होता था। [[भारत]] के प्राचीन साहित्य में ऐसे राजाओं की कई सूचियाँ पाई जाती हैं। [[मान्धाता]] और [[ययाति]] प्रथम चक्रवर्तियों में से थे। समस्त भारत को एक शासन सूत्र में बाँधना चक्रवर्तियों का प्रमुख आदर्श होता था। चक्रवर्ती में पहिए के घूमने को धार्मिकता और नैतिक सत्ता के चक्र-धर्म से भी जोड़ा जा सकता है, जैसा [[बौद्ध धर्म]] मे होता है। [[बुद्ध]] का [[सारनाथ]] का उपदेश विधि का धूमता हुआ चक्र है और एक चक्रवर्ती से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने [[राज्य]] में सदाचारिता या धार्मिकता के चक्र का घूर्णन सुनिश्चित करेगा।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2|लेखक=इंदु रामचंदानी|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (इण्डिया) प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली|संकलन=भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=147|url=}}</ref> | |||
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[[बौद्ध]] और [[जैन]] स्रोतों में तीन प्रकार के धर्मनिरपेक्ष चक्रवर्तियों का उल्लेख है- | |||
'''(1)''' चक्रवाल चक्रवर्ती - प्राचीन भारतीय सृष्टिशास्त्र में वर्णित सभी चार महाद्वीप पर राज करने वाला राजा।<br /> | |||
'''(2)''' द्वीप चक्रवर्ती - केवल एक महाद्वीप पर राज करने वाला राजा, जो पहले वाले से कम शक्तिशाली होता है।<br /> | |||
'''(3)''' प्रदेश चक्रवर्ती - एक महाद्वीप के किसी हिस्से के लोगों पर शासक करने वाला राजा, जो स्थानीय राजा का समकक्ष होता है। | |||
==प्रथम चक्रवर्ती शासक== | |||
'चक्रवाल चक्रवर्ती' की उपाधि ग्रहण करने वाले सबसे पहले [[सम्राट अशोक]] (तीसरी शताब्दी ई. पू.) थे। अशोक ने अपने अभिलेखों में 'चक्रवर्ती' उपाधि का उल्लेख नहीं किया है। बाद के [[साहित्य]] में उनका इस रूप में वर्णन मिलता है। उस काल के [[बौद्ध]] और [[जैन]] दार्शनिकों ने 'चक्रवाल चक्रवर्ती' की अवधारणा को और नैतिक क़ानूनों को बनाए रखने वाले राजा के साथ जोड़ दिया। धर्मनिरपेक्षता में 'चक्रवर्ती' को [[बुद्ध]] के समकक्ष माना जाता है, उन्हें बुद्ध के समान ही कई गुणों से जोड़ा जाता है। | |||
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Revision as of 13:59, 13 March 2014
चक्रवर्ती अर्थात "विश्व शासक की प्राचीन भारतीय अवधारण"। यह शब्द संस्कृत के च्रक, अर्थात 'पहिया' और 'वर्ती', यानी 'घूमता हुआ' से उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार 'चक्रवर्ती' को ऐसा शासक माना जा सकता है, जिसके रथ का पहिया हर जगह घूमता हो या जिसकी गति को कोई को रोक न सके।
प्राचीन साहित्य में उल्लेख
प्राचीन भारत में चक्रवर्ती राजा को अश्वमेध या राजसूय यज्ञ करने का अधिकार होता था। भारत के प्राचीन साहित्य में ऐसे राजाओं की कई सूचियाँ पाई जाती हैं। मान्धाता और ययाति प्रथम चक्रवर्तियों में से थे। समस्त भारत को एक शासन सूत्र में बाँधना चक्रवर्तियों का प्रमुख आदर्श होता था। चक्रवर्ती में पहिए के घूमने को धार्मिकता और नैतिक सत्ता के चक्र-धर्म से भी जोड़ा जा सकता है, जैसा बौद्ध धर्म मे होता है। बुद्ध का सारनाथ का उपदेश विधि का धूमता हुआ चक्र है और एक चक्रवर्ती से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने राज्य में सदाचारिता या धार्मिकता के चक्र का घूर्णन सुनिश्चित करेगा।[1]
प्रकार
बौद्ध और जैन स्रोतों में तीन प्रकार के धर्मनिरपेक्ष चक्रवर्तियों का उल्लेख है-
(1) चक्रवाल चक्रवर्ती - प्राचीन भारतीय सृष्टिशास्त्र में वर्णित सभी चार महाद्वीप पर राज करने वाला राजा।
(2) द्वीप चक्रवर्ती - केवल एक महाद्वीप पर राज करने वाला राजा, जो पहले वाले से कम शक्तिशाली होता है।
(3) प्रदेश चक्रवर्ती - एक महाद्वीप के किसी हिस्से के लोगों पर शासक करने वाला राजा, जो स्थानीय राजा का समकक्ष होता है।
प्रथम चक्रवर्ती शासक
'चक्रवाल चक्रवर्ती' की उपाधि ग्रहण करने वाले सबसे पहले सम्राट अशोक (तीसरी शताब्दी ई. पू.) थे। अशोक ने अपने अभिलेखों में 'चक्रवर्ती' उपाधि का उल्लेख नहीं किया है। बाद के साहित्य में उनका इस रूप में वर्णन मिलता है। उस काल के बौद्ध और जैन दार्शनिकों ने 'चक्रवाल चक्रवर्ती' की अवधारणा को और नैतिक क़ानूनों को बनाए रखने वाले राजा के साथ जोड़ दिया। धर्मनिरपेक्षता में 'चक्रवर्ती' को बुद्ध के समकक्ष माना जाता है, उन्हें बुद्ध के समान ही कई गुणों से जोड़ा जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (इण्डिया) प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 147 |