प्रियप्रवास द्वितीय सर्ग: Difference between revisions
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ब्रज धरा जन जीवन प्राण है॥31॥ | ब्रज धरा जन जीवन प्राण है॥31॥ | ||
पर बड़े | पर बड़े दु:ख की यह बात है। | ||
विपद जो अब भी टलती नहीं। | विपद जो अब भी टलती नहीं। | ||
अहह है कहते बनती नहीं। | अहह है कहते बनती नहीं। | ||
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बहु-कला युत होकर खो चला॥61॥ | बहु-कला युत होकर खो चला॥61॥ | ||
घहरती घिरती | घहरती घिरती दु:ख की घटा। | ||
यह अचानक जो निशि में उठी। | यह अचानक जो निशि में उठी। | ||
वह ब्रजांगण में चिर काल ही। | वह ब्रजांगण में चिर काल ही। |
Revision as of 14:03, 2 June 2017
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गत हुई अब थी द्वि-घटी निशा। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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