आदिचनल्लूर: Difference between revisions
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'''आदिचनल्लूर''' [[केरल]] के [[तिरुनेल्वेलि]] ज़िले में स्थित है। यहाँ से एक शव-कलश प्राप्त हुआ था, जो [[पाषाण काल|महापाषाण]] काल से कुछ पहले का माना जाता है। आदिचनल्लूर से शव-कलश के साथ ही काँसे का कुक्कुट, [[लोहा|लोहे]] के बर्छे तथा स्वर्ण-पत्र के मुख-खण्ड भी प्राप्त हुए हैं। | '''आदिचनल्लूर''' [[केरल]] के [[तिरुनेल्वेलि]] ज़िले में स्थित है। यहाँ से एक '''शव-कलश''' प्राप्त हुआ था, जो [[पाषाण काल|महापाषाण]] काल से कुछ पहले का माना जाता है। आदिचनल्लूर से शव-कलश के साथ ही काँसे का कुक्कुट, [[लोहा|लोहे]] के बर्छे तथा स्वर्ण-पत्र के मुख-खण्ड भी प्राप्त हुए हैं। | ||
*लोहे तथा [[काला रंग|काले]] और [[लाल रंग|लाल]] मृद्भाण्डों से सम्बन्धित होने के कारण यह अर्थ निकलता है कि महापाषाण काल में भी यहाँ [[संस्कृति]] पल्लवित होती रही। | *लोहे तथा [[काला रंग|काले]] और [[लाल रंग|लाल]] मृद्भाण्डों से सम्बन्धित होने के कारण यह अर्थ निकलता है कि महापाषाण काल में भी यहाँ [[संस्कृति]] पल्लवित होती रही। | ||
*धार्मिक दृष्टि से यह उल्लेखनीय है कि 'वेल' या '[[त्रिशूल अस्त्र|त्रिशूल]]' तथा कुक्कुट आदि चिह्न, [[केरल]] के अत्यंत लोकप्रिय [[देवता]] '[[मुरुगन]]' से सम्बन्धित हैं। | *धार्मिक दृष्टि से यह उल्लेखनीय है कि 'वेल' या '[[त्रिशूल अस्त्र|त्रिशूल]]' तथा कुक्कुट आदि चिह्न, [[केरल]] के अत्यंत लोकप्रिय [[देवता]] '[[मुरुगन]]' से सम्बन्धित हैं। | ||
*ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक काल से ही यह परम्परा किसी न किसी रूप में जीवित रही है। | *ऐसा प्रतीत होता है कि [[प्रागैतिहासिक काल]] से ही यह परम्परा किसी न किसी रूप में जीवित रही है। | ||
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Latest revision as of 11:55, 4 May 2018
आदिचनल्लूर केरल के तिरुनेल्वेलि ज़िले में स्थित है। यहाँ से एक शव-कलश प्राप्त हुआ था, जो महापाषाण काल से कुछ पहले का माना जाता है। आदिचनल्लूर से शव-कलश के साथ ही काँसे का कुक्कुट, लोहे के बर्छे तथा स्वर्ण-पत्र के मुख-खण्ड भी प्राप्त हुए हैं।
- लोहे तथा काले और लाल मृद्भाण्डों से सम्बन्धित होने के कारण यह अर्थ निकलता है कि महापाषाण काल में भी यहाँ संस्कृति पल्लवित होती रही।
- धार्मिक दृष्टि से यह उल्लेखनीय है कि 'वेल' या 'त्रिशूल' तथा कुक्कुट आदि चिह्न, केरल के अत्यंत लोकप्रिय देवता 'मुरुगन' से सम्बन्धित हैं।
- ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक काल से ही यह परम्परा किसी न किसी रूप में जीवित रही है।
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