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<div style="padding:3px">[[चित्र:Raskhan-2.jpg|रसखान के दोहे महावन, मथुरा|right|100px|link=रसखान की भाषा|border]]</div>
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         '''[[मौर्य काल]]''' (322-185 ईसा पूर्व) [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में अति महत्त्वपूर्व स्थान रखता है। ईसा पूर्व 326 में [[सिकन्दर]] की सेनाएँ [[पंजाब]] के विभिन्न राज्यों में विध्वंसक युद्धों में व्यस्त थीं। [[मध्य प्रदेश]] और [[बिहार]] में [[नंद वंश]] का राजा [[धनानंद|धननंद]] शासन कर रहा था। [[सिकन्दर]] के आक्रमण से देश के लिए संकट पैदा हो गया था। धननंद का सौभाग्य था कि वह इस आक्रमण से बच गया। यह कहना कठिन है कि देश की रक्षा का मौक़ा पड़ने पर नंद सम्राट यूनानियों को पीछे हटाने में समर्थ होता या नहीं। [[मगध]] के शासक के पास विशाल सेना अवश्य थी, किन्तु जनता का सहयोग उसे प्राप्त नहीं था। प्रजा उसके अत्याचारों से पीड़ित थी। असह्य कर-भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे। देश को इस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो [[मगध साम्राज्य]] की रक्षा तथा वृद्धि कर सके। [[मौर्यकालीन विदेशी आक्रमण|विदेशी आक्रमण]] से उत्पन्न संकट को दूर करे और देश के विभिन्न भागों को एक शासन-सूत्र में बाँधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करे। शीघ्र ही राजनीतिक मंच पर एक ऐसा व्यक्ति प्रकट भी हुआ। इस व्यक्ति का नाम था- '[[चंद्रगुप्त मौर्य]]'। चंद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र '[[बिन्दुसार]]' सम्राट बना। बिन्दुसार का पुत्र था '[[अशोक|अशोक महान]]' जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। [[मौर्य काल|... और पढ़ें]]
         '''[[रसखान की भाषा]]''' सोलहवीं शताब्दी में [[ब्रजभाषा]] के साहित्यिक आसन पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। भक्त-कवि [[सूरदास]] इसे सार्वदेशिक काव्य भाषा बना चुके थे किन्तु उनकी शक्ति भाषा सौष्ठव की अपेक्षा भाव द्योतन में अधिक रमी। इसीलिए बाबू [[जगन्नाथदास 'रत्नाकर']] ब्रजभाषा का व्याकरण बनाते समय [[रसखान]], [[बिहारी लाल]] और [[घनानन्द]] के काव्याध्ययन को सूरदास से अधिक महत्त्व देते हैं। रसखान को 'रस की ख़ान' कहा जाता है। इनके काव्य में [[भक्ति रस|भक्ति]], [[श्रृंगार रस]] दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान [[कृष्ण]] भक्त हैं और प्रभु के सगुण और निर्गुण निराकार रूप के प्रति श्रद्धालु हैं। रसखान की भाषा की विशेषता उसकी स्वाभाविकता है। उन्होंने ब्रजभाषा के साथ खिलवाड़ न कर उसके मधुर, सहज एवं स्वाभाविक रूप को अपनाया। साथ ही बोलचाल के शब्दों को साहित्यिक शब्दावली के निकट लाने का सफल प्रयास किया। [[रसखान की भाषा|... और पढ़ें]]
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Revision as of 11:31, 16 May 2017

एक आलेख

        रसखान की भाषा सोलहवीं शताब्दी में ब्रजभाषा के साहित्यिक आसन पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। भक्त-कवि सूरदास इसे सार्वदेशिक काव्य भाषा बना चुके थे किन्तु उनकी शक्ति भाषा सौष्ठव की अपेक्षा भाव द्योतन में अधिक रमी। इसीलिए बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ब्रजभाषा का व्याकरण बनाते समय रसखान, बिहारी लाल और घनानन्द के काव्याध्ययन को सूरदास से अधिक महत्त्व देते हैं। रसखान को 'रस की ख़ान' कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और प्रभु के सगुण और निर्गुण निराकार रूप के प्रति श्रद्धालु हैं। रसखान की भाषा की विशेषता उसकी स्वाभाविकता है। उन्होंने ब्रजभाषा के साथ खिलवाड़ न कर उसके मधुर, सहज एवं स्वाभाविक रूप को अपनाया। साथ ही बोलचाल के शब्दों को साहित्यिक शब्दावली के निकट लाने का सफल प्रयास किया। ... और पढ़ें

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