प्रियप्रवास द्वितीय सर्ग: Difference between revisions

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सकल-गोप समाहित हो सुनो।
सकल-गोप समाहित हो सुनो।
सब प्रबंध हुआ निशि में रहे।
सब प्रबंध हुआ निशि में रहे।
कल प्रभात हुए न विलंब हो॥16॥
कल प्रभात हुए न विलम्ब हो॥16॥


निमिष में यह भीषण घोषणा।
निमिष में यह भीषण घोषणा।

Latest revision as of 09:05, 10 February 2021

प्रियप्रवास द्वितीय सर्ग
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
सर्ग द्वितीय
छंद द्रुतविलम्बित
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल सत्रह (17) सर्ग
प्रियप्रवास प्रथम सर्ग
प्रियप्रवास द्वितीय सर्ग
प्रियप्रवास तृतीय सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्थ सर्ग
प्रियप्रवास पंचम सर्ग
प्रियप्रवास षष्ठ सर्ग
प्रियप्रवास सप्तम सर्ग
प्रियप्रवास अष्टम सर्ग
प्रियप्रवास नवम सर्ग
प्रियप्रवास दशम सर्ग
प्रियप्रवास एकादश सर्ग
प्रियप्रवास द्वादश सर्ग
प्रियप्रवास त्रयोदश सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्दश सर्ग
प्रियप्रवास पंचदश सर्ग
प्रियप्रवास षोडश सर्ग
प्रियप्रवास सप्तदश सर्ग

गत हुई अब थी द्वि-घटी निशा।
तिमिर-पूरित थी सब मेदिनी।
बहु विमुग्ध करी बन थी लसी।
गगन मंडल तारक-मालिका॥1॥

तम ढके तरु थे दिखला रहे।
तमस-पादप से जन-वृंद को।
सकल गोकुल गेह-समूह भी।
तिमिर-निर्मित सा इस काल था॥2॥

इस तमो-मय गेह-समूह का।
अति-प्रकाशित सर्व-सुकक्ष था।
विविध ज्योति-निधान-प्रदीप थे।
तिमिर-व्यापकता हरते जहाँ॥3॥

इस प्रभा-मय मंजुल कक्ष में।
सदन की करके सकला क्रिया।
कथन थीं करतीं कुल-कामिनी।
कलित कीर्ति ब्रजाधिप - तात की॥4॥

सदन-सम्मुख के कल ज्योति से।
ज्वलित थे जितने वर-बैठके।
पुरुष-जाति वहाँ समवेत हो।
सुगुण-वर्णन में अनुरक्त थी॥5॥

रमणियाँ सब ले गृह-बालिका।
पुरुष लेकर बालक-मंडली।
कथन थे करते कल-कंठ से।
ब्रज-विभूषण की विरदावली॥6॥

सब पड़ोस कहीं समवेत था।
सदन के सब थे इकठे कहीं।
मिलित थे नरनारि कहीं हुए।
चयन को कुसुमावलि कीर्ति की॥7॥

रसवती रसना बल से कहीं।
कथित थी कथनीय गुणावली।
मधुर राग सधे स्वर ताल में।
कलित कीर्ति अलापित थी कहीं॥8॥

बज रहे मृदु मंद मृदंग थे।
ध्वनित हो उठता करताल था।
सरस वादन से वर बीन के।
विपुल था मधु-वर्षण हो रहा॥9॥

प्रति निकेतन से कल-नाद की।
निकलती लहरी इस काल थी।
मधुमयी गलियाँ सब थीं बनी।
ध्वनित सा कुल गोकुल-ग्राम था।10॥

सुन पड़ी ध्वनि एक इसी घड़ी।
अति-अनर्थकरी इस ग्राम में।
विपुल वादित वाद्य-विशेष से।
निकलती अब जो अविराम थी॥11॥

मनुज एक विघोषक वाद्य की।
प्रथम था करता बहु ताड़ना।
फिर मुकुंद-प्रवास-प्रसंग यों।
कथन था करता स्वर-तार से॥12॥

अमित विक्रम कंस नरेश ने।
धनुष-यज्ञ विलोकन के लिए।
कुल समादर से ब्रज-भूप को।
कुँवर संग निमंत्रित है किया॥13॥

यह निमंत्रण लेकर आज ही।
सुत-स्वफल्क समागत हैं हुए।
कल प्रभात हुए मथुरापुरी।
गमन भी अवधारित हो चुका॥14॥

इस सुविस्तृत-गोकुल ग्राम में।
निवसते जितने वर-गोप हैं।
सकल को उपढौकन आदि ले।
उचित है चलना मथुरापुरी॥15॥

इसलिए यह भूपनिदेश है।
सकल-गोप समाहित हो सुनो।
सब प्रबंध हुआ निशि में रहे।
कल प्रभात हुए न विलम्ब हो॥16॥

निमिष में यह भीषण घोषणा।
रजनी-अंक-कलंकित-कारिणी।
मृदु-समीरण के सहकार से।
अखिल गोकुल-ग्राममयी हुई॥17॥

कमल-लोचन कृष्ण वियोग की।
अशनि पात समा यह सूचना।
परम आकुल गोकुल के लिए।
अति अनिष्टकरी घटना हुई॥18॥

चकित भीत अचेतन सी बनी।
कँप उठी कुलमानव मंडली।
कुटिलता कर याद नृशंस की।
प्रबल और हुई उर वेदना॥19॥

कुछ घड़ी पहले जिस भूमि में।
प्रवहमान प्रमोद प्रवाह था।
अब उसी रस प्लावित भूमि में।
बह चला खर स्रोत विषाद का॥20॥

कर रहे जितने कल गान थे।
तुरत वे अति कुंठित हो उठे।
अब अलाप अलौकिक कंठ के।
ध्वनित थे करते न दिगंत को॥21॥

उतर तार गए बहु बीन के।
मधुरता न रही मुरजादि में।
विवशता वश वादक वृंद के।
गिर गए कर के करताल भी॥22॥

सकल ग्रामवधू कल कंठता।
परम दारुण कातरता बनी।
हृदय की उनकी प्रिय लालसा।
विविध तर्क वितर्क मयी हुई॥23॥

दुख भरी उर कुत्सित भावना।
मथन मानस को करने लगी।
करुण प्लावित लोचन कोण में।
झलकने जल के कण भी लगे॥24॥

नव उमंग मयी पुर बालिका।
मलिन और सशंकित हो गई।
अति-प्रफुल्लित बालक-वृंद का।
वदन-मंडल भी कुम्हला गया॥25॥

ब्रज धराधिप तात प्रभात ही।
कल हमें तज के मथुरा चले।
असहनीय जहाँ सुनिए वहीं।
बस यही चरचा इस काल थी॥26॥

सब परस्पर थे कहते यही।
कमल-नेत्र निमंत्रित क्यों हुए।
कुछ स्वबंधु समेत ब्रजेश का।
गमन ही, सब भाँति यथेष्ट था॥27॥

पर निमंत्रित जो प्रिय हैं हुए।
कपट भी इसमें कुछ है सही।
दुरभिसंधि नृशंस – नृपाल की।
अब न है ब्रज-मंडल में छिपी॥28॥

विवश है करती विधि वामता।
कुछ बुरे दिन हैं ब्रज-भूमि के।
हम सभी अति ही हतभाग्य हैं।
उपजती नित जो नव व्याधि है॥29॥

किस परिश्रम और प्रयत्न से।
कर सुरोत्तम की परिसेवना।
इस जराजित जीवन काल में।
महर को सुत का मुख है दिखा॥30॥

सुअन भी सुर विप्र प्रसाद से।
अति अपूर्व अलौकिक है मिला।
निज गुणावलि से इस काल जो।
ब्रज धरा जन जीवन प्राण है॥31॥

पर बड़े दु:ख की यह बात है।
विपद जो अब भी टलती नहीं।
अहह है कहते बनती नहीं।
परम दग्धकरी उर की व्यथा॥32॥

जनम की तिथि से बलवीर की।
बहु उपद्रव हैं ब्रज में हुए।
विकटता जिन की अब भी नहीं।
हृदय से अपसारित हो सकी॥33॥

परम - पातक की प्रतिमूर्ति सी।
अति अपावनतामय पूतना।
पय-अपेय पिला कर श्याम को।
कर चुकी ब्रज भूमि विनाश थी॥34॥

पर किसी चिर-संचित-पुण्य से।
गरल अमृत अर्भक को हुआ।
विष-मयी वह होकर आप ही।
कवल काल-भुजंगम का हुई॥35॥

फिर अचानक धूलिमयी महा।
दिवस एक प्रचंड हवा चली।
श्रवण से जिसकी गुरु-गर्जना।
कँप उठा सहसा उर दिग्वधू॥36॥

उपल वृष्टि हुई तम छा गया।
पट गई महि कंकर पात से।
गड़गड़ाहट वारिद व्यूह की।
ककुभ में परिपूरित हो गई॥37॥

उखड़ पेड़ गए जड़ से कई।
गिर पड़ीं अवनी पर डालियाँ।
शिखर भग्न हुए उजड़ीं छतें।
हिल गए सब पुष्ट निकेत भी॥38॥

बहु रजोमय आनन हो गया।
भर गए युग लोचन धूलि से।
पवन वाहित पांशु प्रहार से।
गत बुरी ब्रज मानव की हुई॥39॥

घिर गया इतना तम तोम था।
दिवस था जिससे निशि हो गया।
पवन गर्जन औ घन नाद से।
कँप उठी ब्रज सर्व वसुंधरा॥40॥

प्रकृति थी जब यों कुपिता महा।
हरि अदृश्य अचानक हो गए।
सदन में जिस से ब्रज-भूप के।
अति-भयानक-क्रंदन हो उठा॥41॥

सकल-गोकुल था यक तो दुखी।
प्रबल वेग प्रभंजन आदि से।
अब दशा सुन नंद-निकेत की।
पवि-समाहत सा वह हो गया॥42॥

पर व्यतीत हुए द्विघटी टली।
यह तृणावरतीय विडंबना।
पवन वेग रुका तम भी हटा।
जलद जाल तिरोहित हो गया॥43॥

प्रकृति शांत हुई वर व्योम में।
चमकने रवि की किरणें लगीं।
निकट ही निज सुंदर सद्म के।
किलकते हँसते हरि भी मिले॥44॥

अति पुरातन पुण्य ब्रजेश का।
उदय था इस काल स्वयं हुआ।
पतित हो खर वायु प्रकोप में।
कुसुम-कोमल बालक जो बचा॥45॥

शकटपात ब्रजाधिप पास ही।
पतन अर्जुन से तरु राज का।
पकड़ना कुलिशोषम चंचु से।
खल बकासुर का बलवीर को॥46॥

वधन उद्यम दुर्जय वत्स का।
कुटिलता अघ संज्ञक सर्प की।
विकट घोटक की अपकारिता।
हरि निपातन यत्न अरिष्ट का॥47॥

कपट रूप प्रलंब प्रवंचना।
खलपना पशुपालक व्योम का।
अहह ए सब घोर अनर्थ थे।
ब्रज विभूषण हैं जिनसे बचे॥48॥

पर दुरंत नराधिप कंस ने।
अब कुचक्र भयंकर है रचा।
युगल बालक संग ब्रजेश जो।
कल निमंत्रित हैं मख में हुए॥49॥

गमन जो न करें बनती नहीं।
गमन से सब भाँति विपत्ति है।
जटिलता इस कौशल जाल की।
अहह है अति कष्ट प्रदायिनी॥50॥

प्रणतपाल कृपानिधि श्रीपते।
फलद है प्रभु का पद-पद्म ही।
दुख-पयोनिधि मज्जित का वही।
जगत में परमोत्तम पोत है॥51॥

विषम संकट में ब्रज है पड़ा।
पर हमें अवलंबन है वही।
निबिड़ पामरता, तम हो चला।
पर प्रभो बल है नख-ज्योति का॥52॥

विपद ज्यों बहुधा कितनी टली।
प्रभु कृपाबल त्यों यह भी टले।
दुखित मानस का करुणानिधे।
अति विनीत निवेदन है यही॥53॥

ब्रज-विभाकर ही अवलंब हैं।
हम सशंकित प्राणि-समूह के।
यदि हुआ कुछ भी प्रतिकूल तो।
ब्रज-धरा तमसावृत हो चुकी॥54॥

पुरुष यों करते अनुताप थे।
अधिक थीं व्यथिता ब्रज-नारियाँ।
बन अपार विषाद उपेत वे।
बिलख थीं दृग वारि विमोचतीं॥55॥

दुख प्रकाशन का क्रम नारि का।
अधिक था नर के अनुसार ही।
पर विलाप कलाप बिसूरना।
बिलखना उनमें अतिरिक्त था॥56॥

ब्रज-धरा-जन की निशि साथ ही।
विकलता परिवर्द्धित हो चली।
तिमिर साथ विमोहक शोक भी।
प्रबल था पल ही पल रो रहा॥57॥

विशद गोकुल बीच विषाद की।
अति असंयत जो लहरें उठीं।
बहु विवर्द्धित हो निशि–मध्य ही।
ब्रज धरातलव्यापित वे हुईं॥58॥

विलसती अब थी न प्रफुल्लता।
न वह हास विलास विनोद था।
हृदय कंपित थी करती महा।
दुखमयी ब्रज-भूमि विभीषिका॥59॥

तिमिर था घिरता बहु नित्य ही।
पर घिरा तम जो निशि आज की।
उस विषाद महातम से कभी।
रहित हो न सकी ब्रज की धरा॥60॥

बहु भयंकर थी यह यामिनी।
बिलपते ब्रज भूतल के लिए।
तिमिर में जिसके उसका शशी।
बहु-कला युत होकर खो चला॥61॥

घहरती घिरती दु:ख की घटा।
यह अचानक जो निशि में उठी।
वह ब्रजांगण में चिर काल ही।
बरसती बन लोचनवारि थी॥62॥

ब्रज धरा-जन के उर मध्य जो।
विरह जात लगी यह कालिमा।
तनिक धो न सका उस को कभी।
नयन का बहु-वारि – प्रवाह भी॥63॥

सुखद थे बहु जो जन के लिए।
फिर नहीं ब्रज के दिन वे फिरे।
मलिनता न समुज्वलता हुई।
दुख-निशा न हुई सुख की निशा॥64॥

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