नीरज दोहावली -गोपालदास नीरज: Difference between revisions

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दृष्टा दृश्य न भेद कुछ, है मन का भ्रम-जाल
द्रष्टादृश्य न भेद कुछ, है मन का भ्रम-जाल
मन को कर ले अमन तो, भेद मिटे तत्काल।
मन को कर ले अमन तो, भेद मिटे तत्काल।
   
   

Latest revision as of 05:01, 4 February 2021

नीरज दोहावली -गोपालदास नीरज
कवि गोपालदास नीरज
मूल शीर्षक 'नीरज दोहावली'
प्रकाशक 'आत्माराम एण्ड सन्स'
प्रकाशन तिथि 01 जनवरी, 2001
ISBN 9788170435013
देश भारत
पृष्ठ: 95
भाषा हिन्दी
प्रकार कविता संग्रह
विशेष पुस्तक क्रम: 4023

हिन्दी गीति-काव्य का पर्याय बन चुके कवि नीरज बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय और सम्मानित काव्य व्यक्तित्व हैं। अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूहों द्वारा कराये गये सर्वेक्षणों के तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं। भक्तिकालीन कवियों के बाद जनभाषा में मानवीय संवेदनाओं को ऐसी अभिव्यक्ति देनेवाला और जनसाधारण में इतना समादूत और स्वीकृत कोई अन्य कवि दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। निश्चित रूप से वे हिंदी जगत् में एक जीवित किंवदन्ती या कहें कि ‘लिविंग लीजेण्ड’ बन चुके हैं।


गीत-सम्राट नीरज जी उन कुछ व्यक्तियों में हैं जो अपने जीवन काल में ही किंवदन्ती बन जाया करते हैं। गत शताब्दी के वे ही एक ऐसे गीत-पुरुष हैं जो निरन्तर साठ वर्षों तक काव्य सृजन में संलग्न रहकर आज तक हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि बने हुए हैं। सिर्फ देश में ही नहीं, अमरीका, कनाडा, लन्दन, आस्ट्रेलिया आदि सुदूर विदेशों में भी उनके पाठकों और श्रोताओं की संख्या लाखों में है। उनकी रचनायें बहुआयामी और भाषा-भेद से ऊपर हैं, इसीलिए उर्दू भाषा-भाषियों के बीच भी वो उतने ही प्यार से सुने और सराहे जाते हैं जितने कि हिन्दी पाठकों के बीच। पद्मश्री, यश भारती, रजतश्री, साहित्य वाचस्पति, टैगोर वाचस्पति, डी.लिट्. (मानद) आदि अनेक अलंकरण और उपाधियाँ जो उन्हें प्राप्त हुई हैं, वे सब उनकी लोकप्रियता के समक्ष फीकी पड़ जाती हैं।

उनकी नवीनतम ‘नीरज दोहावली’ में संग्रहीत जीवन और जगत् के भिन्न-भिन्न पक्षों पर उनके ये दोहे निश्चित ही जन-जन का कंठहार बनेंगे और तुलसी, रहीम, कबीर, बिहारी, आदि की परम्परा को एक नया रूप प्रदान करेंगे। उनका ये कथन बिलकुल ही उपयुक्त हैं-

‘‘दोहा वर है और है कविता वधू कुलीन
जब इनकी भाँवर पड़ी जन्में अर्थ नवीन।’’

प्रस्तुत दोहावली में वर्तमान परिवेश-जन्य राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि अनेक विकृतियों को उजागर करने के साथ-साथ मैंने श्रृंगारपरक और नीतिपरक दोहों की भी रचना की है। इसके अतिरिक्त कुछ दोहों में मैंने महापुरुषों और सन्तों की सूक्तियों का अनुवाद भी किया है। यह सूक्तियाँ इतनी मार्मिक, इतनी अर्थवान और इतनी प्रेरणा दायिनी हैं कि इन्होंने मेरे कठिन क्षणों में मुझे बड़ी शान्ति प्रदान की है। उन सूक्तियों में दिया हुआ सन्देश यदि किसी एक भी हारे-थके पाठक में नयी उमंग और नयी स्फूर्ति भरने में सहायक सिद्ध हुआ तो मैं इसे अपने प्रयास की अन्यतम सफलता मानूँगा। - नीरज

1

हे गणपति निज भक्त को, दो ऐसी निज भक्ति
काव्य सृजन में ही रहे, जीवन-भर अनुरक्ति।

2

हे लम्बोदर है तुम्हें, बारंबार प्रणाम
पूर्ण करो निर्विघ्न प्रभु ! सकल हमारे काम।

3

मेरे विषय-विकार जो, बने हृदय के शूल
हे प्रभु मुझ पर कृपा कर, करो उन्हें निर्मूल।


4

गणपति महिमा आपकी, सचमुच बहुत उदार
तुम्हें डुबोते हर बरस, उनको करते पार।

5

मातु शारदे दो हमें, ऐसा कुछ वरदान
जो भी गाऊँ गीत मैं, बन जाये युग-गान।

6

शंकर की महिमा अमित, कौन भला कह पाय
जय शिव-जय शिव बोलते, शव भी शिव बन जाय।

7

मैं भी तो गोपाल हूँ, तुम भी हो गोपाल
कंठ लगाते क्यों नहीं, फिर मुझको नंदलाल।

8

स्वयं दीप जो बन गया, उसे मिला निर्वाण
इसी सूत्र को वरण कर, बुद्ध बने भगवान।

9

गुरु ग्रन्थ के श्रवण से, मिटें सकल त्रयताप
ये मन्त्रों का मन्त्र है, हैं ये शब्द अमाप।


10

नानक और कबीर-सा, सन्त न जन्मा कोय
दोयम, त्रेयम, चतुर्थम, सब हो गए अदोय।


11

मीरा ने संसार को, दिया नाचता धर्म
उसके स्वर में है छुपा, वंशीधर का मर्म।

12

भक्तों में कोई नहीं, बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना, देख लिये घनश्याम

13

तुलसी का तन धारकर, भक्ति हुई साकार
उनको पाकर राममय, हुआ सकल संसार।

14

मर्यादा और त्याग का, एक नाम है राम
उसमें जो मन रम गया, रहा सदा निष्काम।

15

अपना ही हित साधते, सारे देश विशेष
सर्व-भूत-हित-रत सदा, वो है भारत देश।

16

जो प्रकाश की साधना, करता आठो याम
आभा रत को जोड़कर, बनता भारत नाम।

17

हमने इक परिवार ही, माना सब संसार
सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार।

18

आत्मा के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य
किसी व्यक्ति के लिये है, कवि होना सौभाग्य।

19

दोहा वर है और है, कविता वधू कुलीन
जब इनकी भाँवर पड़ी, जन्मे अर्थ नवीन।

20

निर्धन और असहाय थे, जब सब भाव-विचार
दोहे ने आकर किया, उन सबका श्रृंगार।

21

गागर में सागर भरे, मुँदरी में नवरत्न
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न।

22

जो जन जन के होंठ पर, बसे और रम जाय
ऐसा सुन्दर दोहरा, क्यों न सभी को भाय।

23

झूठी वो अनुभूति है, हुआ न जिसका भोग
बिन इसके कवि-कर्म तो, है बस क्षय का रोग।

24

दिल अपना दरवेश है, धर गीतों का भेष
अलख जगाता फिर रहा, जा-जा देस विदेश।

25

ना तो मैं भवभूत हूँ, ना मैं कालीदास
सिर्फ प्रकाशित कर रहा, उनका काव्य प्रकाश।


26

प्रलय हुई जब-जब हुई, गीतों की लय वक्र
सदा गीत की लय रही, सकल सृष्टि का चक्र।

27

सरि-सागर-अम्बर-अवनि, सब लय से गतिमान
लय टूटे जब प्राण की, हो जीवन अवसान।

28

अपनी भाषा के बिना, राष्ट्र न बनता राष्ट्र
वसे वहाँ महाराष्ट्र या, रहे वहाँ सौराष्ट्र।

29

हिन्दी विन्दी भाल की, उर्दू कुण्डल केश
जब ये दोनों ही सजें, सुन्दर दीखे देश।

30

गीत वही है सुन जिसे, झूमे सब संसार
वर्ना गाना गीत का, बिलकुल है बेकार।

31

बड़े जतन के बाद रे ! मिले मनुज की देह
इसको गन्दा कर नहीं, है ये प्रभु का गेह।

32

अन्तिम घर संसार में, है सबका शमशान
फिर इस माटी महल पर, क्यों इतना अभिमान।

33

जो आए ठहरे यहाँ, थे न यहाँ के लोग
सबका यहाँ प्रवास है, नदी-नाव संयोग।

34

रुके नहीं कोई यहाँ, नामी हो कि अनाम
कोई जाये सुबह को, कोई जाये शाम।

35

रोते-रोते जायँ सब, हँसता जाय न कोय
हँसता-हँसता जाय तो, उसका जनम न होय।

36

मिटती नहीं सुगंध रे ! भले झरें सब फूल
यही सार अस्तित्व का, यही ज्ञान का मूल।

37

फल तेरे हाथों नहीं, कर्म है तेरे हाथ
करता चल सत्कर्म तू, सोच न फल की बात।

38

तन तो एक सराय है, आत्मा है मेहमान
तन को अपना मानकर, मोह न कर नादान।

39

है गिरने को ही बना, तन का सुन्दर कोट
देख काल है कर रहा, पल-पल इस पर चोट।

40

श्वेत-श्याम दो रंग के, चूहे हैं दिन-रात
तन की चादर कुतरते, पल-पल रहकर साथ।

41

बिखरी तो रचना बनी, एक नवीना सृष्टि
सिमटी जब इक बिन्दु में, वही बन गई व्यष्टि।

42
प्रेय-श्रेय के मध्य है, बस इक झीना तार
प्रेम-वासना मोक्ष सब, हैं इसके व्यापार।

43

लोभ न जाने दान को, क्रोध न जाने ज्ञान
हो दोनों से मुक्ति जब, हो अपनी पहचान।

44

चलती चाकी काल की, पिसे सकल संसार,
लिपट गए जो मूठ से, पिसे न एकहु बार।*

45

धन तो साधन मात्र है, नहीं मनुज का ध्येय
ध्येय बनेगा धन अगर, जीवन होगा हेय।

46

जिस कारण कंदील ये, धरे अनेकों रूप
स्थिर रहती ज्योति वो, हर दम एक स्वरूप।
 
47

धरती घूमे कील पर, घूमे किन्तु न कील
ब्रह्म ज्योति सम थिर सदा, माया सम कंदील।


कबीर पुत्र कमाल का वक्तव्य



48

हस्ताक्षर तेरे स्वयम्, भाग्य-नियति के लेख
औरों को मत दोष दे, अपने अवगुण देख।

49

मिट्टी का विस्तार है, ये सारा संसार
मिट्टी को मत खूँद रे, कर तू इससे प्यार

50

मिट्टी तो मिटती नहीं, बदले केवल रूप
कभी बने ये कोयला, हीरा कभी अनूप।

51

द्रष्टादृश्य न भेद कुछ, है मन का भ्रम-जाल
मन को कर ले अमन तो, भेद मिटे तत्काल।
 
52

गति-यति का ही नाम है, जनम-मरण का खेल
चलती-रुकती, दौड़ती, जैसे कोई रेल।

53

तन तो ये साकेत है, और हृदय है राम
श्वास-श्वास में गूँजता, पल-पल उसका नाम।


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