आगम: Difference between revisions
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'आगम' मंदिर निर्माण, मूर्ति निर्माण तथा धार्मिक विधि-विधान के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं। अधिकांश [[हिंदू]] धार्मिक साहित्य के समान यह [[साहित्य]] न तो भलि-भांति सूचीबद्ध है और न ही इसका विस्तृत अध्ययन किया गया है। आगमी शैवों ([[शिव]] के उपासक, जो अपने आगम यानी पारंपरिक साहित्य का अनुसरण करते हैं) के संप्रदायों में [[शैव मत]] की दार्शनिक भूमिका और निष्कर्षों को स्वीकार करने वाले उत्तरी क्षेत्र के [[संस्कृत]] शैव सिद्धांत मतावलंबी और [[दक्षिण भारत]] के 'लिगांयत' या 'वीरशैव' (वीर, शब्दार्थ नायक; [[शिवलिंग]] भगवान शिव का प्रतीक है और प्रतिमा के स्थान पर इसी की [[पूजा]] जाती है) शामिल हैं। | 'आगम' मंदिर निर्माण, मूर्ति निर्माण तथा धार्मिक विधि-विधान के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं। अधिकांश [[हिंदू]] धार्मिक साहित्य के समान यह [[साहित्य]] न तो भलि-भांति सूचीबद्ध है और न ही इसका विस्तृत अध्ययन किया गया है। आगमी शैवों ([[शिव]] के उपासक, जो अपने आगम यानी पारंपरिक साहित्य का अनुसरण करते हैं) के संप्रदायों में [[शैव मत]] की दार्शनिक भूमिका और निष्कर्षों को स्वीकार करने वाले उत्तरी क्षेत्र के [[संस्कृत]] शैव सिद्धांत मतावलंबी और [[दक्षिण भारत]] के 'लिगांयत' या 'वीरशैव' (वीर, शब्दार्थ नायक; [[शिवलिंग]] भगवान शिव का प्रतीक है और प्रतिमा के स्थान पर इसी की [[पूजा]] जाती है) शामिल हैं। | ||
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पांरपरिक रूप से शैव सिद्धांत में 28 आगम और 150 उप-आगम हैं। मुख्य पाठ का काल निर्धारित करना कठिन है। संभवत: वे आठवीं [[शताब्दी]] से पहले के नहीं हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, [[शिव]] इस संसार के चेतन सिद्धांत हैं, जबकि [[पदार्थ]] अचेतन है। देवी के रूप में मानवीकृत शिव की शक्ति बंधन और मुक्त प्रदान करती है। शक्ति एक चमत्कारी 'शब्द' ([[मंत्र]]) भी है, जिसके द्वारा [[ध्यान]] लगाकर शिव की प्रकृति को जानने का प्रयत्न किया जा सकता है। कश्मीरी शैव मत की शुरुआत शिव के नए | पांरपरिक रूप से शैव सिद्धांत में 28 आगम और 150 उप-आगम हैं। मुख्य पाठ का काल निर्धारित करना कठिन है। संभवत: वे आठवीं [[शताब्दी]] से पहले के नहीं हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, [[शिव]] इस संसार के चेतन सिद्धांत हैं, जबकि [[पदार्थ]] अचेतन है। देवी के रूप में मानवीकृत शिव की शक्ति बंधन और मुक्त प्रदान करती है। शक्ति एक चमत्कारी 'शब्द' ([[मंत्र]]) भी है, जिसके द्वारा [[ध्यान]] लगाकर शिव की प्रकृति को जानने का प्रयत्न किया जा सकता है। कश्मीरी शैव मत की शुरुआत शिव के नए स्वरूप 'शिव सूत्र' या शिव से संबंधित सूत्रों (लगभग 850 ई.) से हुई। इसमें 'सोमनंद' (950 ई.) के 'शिवदृष्टि' (शिव की दृष्टि) को विशेष महत्त्व दिया गया है, जिसमें शिव की सतत पहचान पर बल दिया गया है; यह संसार शक्ति के माध्यम से शिव का प्रकटीकरण है। इस पद्धति को 'त्रिक' (त्रयी) कहते हैं, क्योंकि इसमें [[शिव]], शक्ति और वैयक्तिक [[आत्मा]] के तीन सिद्धांतों को मान्यता दी गई है। | ||
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वीरशैव ग्रंथों की शुरुआत लगभग 1150 में [[बसव]] के 'वचनम' (वचन) से हुई। यह मत शुद्धतावादी है और इनमें केवल शिव की आराधना की जाती है। इसने सामाजिक संगठन को स्वीकारा और सामाजिक वर्ग व्यवस्था को नकारा जाता है तथा यह मठों व गुरुओं के माध्यम से अत्यंत संयोजित है। | वीरशैव ग्रंथों की शुरुआत लगभग 1150 में [[बसव]] के 'वचनम' (वचन) से हुई। यह मत शुद्धतावादी है और इनमें केवल शिव की आराधना की जाती है। इसने सामाजिक संगठन को स्वीकारा और सामाजिक वर्ग व्यवस्था को नकारा जाता है तथा यह मठों व गुरुओं के माध्यम से अत्यंत संयोजित है। |
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आगम एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है- "ज्ञान का अर्जन"। प्रसंगानुसार 'आगम' भारत के किसी भी धर्म, मत या परंपरा के धर्मग्रंथ या अधिकृत उद्धरण से संदर्भित हो सकता है। कभी-कभी वर्तमान जीवन या पूर्व जीवन में किसी व्यक्ति द्वारा सचेतन या प्राकृतिक रूप से अर्जित ज्ञान के लिए भी 'आगम' शब्द का उल्लेख किया जाता है।
व्याख्या
'ब्राह्मणवाद' या हिन्दू धर्म में 'आगम' आमतौर पर वेद और स्मृति को कहा जाता है। बौद्ध धर्म में यह 'त्रिपिटक'; जैन धर्म में 'अंग' और कुछ उपांग की ओर इंगित करता है। लेकिन इस शब्द का अधिक निकट संबंध उन धार्मिक-दार्शनिक परंपराओं से है, जो किसी समय में वेद आधारित परंपरा से अलग माने गए हैं। इसके फलस्वरूप कभी-कभी निगम, श्रुति और वेदों से आगम की भिन्नता को भी दर्शाया जाता है। विशेष रूप से 'आगम' मध्यकालीन भारत के हिन्दू तांत्रिक लेखों में से किसी वर्ग से संबद्ध हो सकता है, जो शैव मत के अनुयायियों का पवित्र साहित्य है। इस प्रकार की आगम रचनाओं को प्राय: अधिक सैद्धांतिक तथा गूढ़ शास्त्रों से अलग समझा जाता है। शैव मत में ये सर्वप्रमुख हैं और संकीर्ण अर्थों में ये वैष्णव संहिताओं तथा शाक्त तंत्रों के समान हैं।[1] ये ज़्यादातर भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती के बीच संवाद के रूप में है। इनका आविर्भाव संभवत: आठवीं शताब्दी में हुआ था। वैचारिक सुविधा के लिए विद्वान् इन्हें चार शैव मतों में बांटते हैं-
- शैवसिद्वांत का संस्कृत मत
- तमिल शैव
- कश्मीरी शैव
- वीरशैव (जो 'लिंगायत' भी कहलाता है)
धार्मिक विधि-विधान का स्रोत
'आगम' मंदिर निर्माण, मूर्ति निर्माण तथा धार्मिक विधि-विधान के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं। अधिकांश हिंदू धार्मिक साहित्य के समान यह साहित्य न तो भलि-भांति सूचीबद्ध है और न ही इसका विस्तृत अध्ययन किया गया है। आगमी शैवों (शिव के उपासक, जो अपने आगम यानी पारंपरिक साहित्य का अनुसरण करते हैं) के संप्रदायों में शैव मत की दार्शनिक भूमिका और निष्कर्षों को स्वीकार करने वाले उत्तरी क्षेत्र के संस्कृत शैव सिद्धांत मतावलंबी और दक्षिण भारत के 'लिगांयत' या 'वीरशैव' (वीर, शब्दार्थ नायक; शिवलिंग भगवान शिव का प्रतीक है और प्रतिमा के स्थान पर इसी की पूजा जाती है) शामिल हैं।
शैव सिद्धांत
पांरपरिक रूप से शैव सिद्धांत में 28 आगम और 150 उप-आगम हैं। मुख्य पाठ का काल निर्धारित करना कठिन है। संभवत: वे आठवीं शताब्दी से पहले के नहीं हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, शिव इस संसार के चेतन सिद्धांत हैं, जबकि पदार्थ अचेतन है। देवी के रूप में मानवीकृत शिव की शक्ति बंधन और मुक्त प्रदान करती है। शक्ति एक चमत्कारी 'शब्द' (मंत्र) भी है, जिसके द्वारा ध्यान लगाकर शिव की प्रकृति को जानने का प्रयत्न किया जा सकता है। कश्मीरी शैव मत की शुरुआत शिव के नए स्वरूप 'शिव सूत्र' या शिव से संबंधित सूत्रों (लगभग 850 ई.) से हुई। इसमें 'सोमनंद' (950 ई.) के 'शिवदृष्टि' (शिव की दृष्टि) को विशेष महत्त्व दिया गया है, जिसमें शिव की सतत पहचान पर बल दिया गया है; यह संसार शक्ति के माध्यम से शिव का प्रकटीकरण है। इस पद्धति को 'त्रिक' (त्रयी) कहते हैं, क्योंकि इसमें शिव, शक्ति और वैयक्तिक आत्मा के तीन सिद्धांतों को मान्यता दी गई है।
वीरशैव ग्रंथ
वीरशैव ग्रंथों की शुरुआत लगभग 1150 में बसव के 'वचनम' (वचन) से हुई। यह मत शुद्धतावादी है और इनमें केवल शिव की आराधना की जाती है। इसने सामाजिक संगठन को स्वीकारा और सामाजिक वर्ग व्यवस्था को नकारा जाता है तथा यह मठों व गुरुओं के माध्यम से अत्यंत संयोजित है।
जैन धर्म से सम्बंध
'आगम' शब्द का जैन धर्म में विशिष्ट स्थान है। भगवान महावीर के उपदेश जैन धर्म के मूल सिद्धान्त हैं, जिन्हें 'आगम' कहा जाता है। वे अर्ध-मागधी प्राकृत भाषा में हैं। उन्हें आचारांगादि बारह 'अंगों' में संकलित किया गया, जो 'द्वादशंग आगम' कहे जाते हैं। वैदिक संहिताओं की भाँति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में ही थे। महावीर के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था। 'श्वेताम्बर' और 'दिगम्बर' शाखाओं में जहाँ अनेक बातों में मतभेद था, वहीं आगमों को लिपिबद्ध न करने में दोनों एक मत थे। कालांतर में उन्हें लिपिबद्ध तो किया गया; किन्तु लिखित रूप की प्रमाणिकता इस धर्म के दोनों संप्रदायों को समान रूप से स्वीकृत नहीं हुई। श्वेताम्बर संप्रदाय के अनु्सार समस्त आगमों के छ: विभाग हैं-
- 'अंग'
- 'उपांग'
- 'प्रकीर्णक'
- 'छेदसूत्र'
- 'सूत्र'
- 'मूलसूत्र'
इनमें 'एकादश अंग सूत्र' सबसे प्राचीन माने जाते हैं। दिगम्बर संप्रदाय उपयुक्त आगमों को नहीं मानता है। इस संप्रदाय का मत है, अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के पश्चात् आगमों का ज्ञान लुप्त प्राय हो गया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारत ज्ञानकोश, खण्ड-1 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (इण्डिया) प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 116 |