मदनमोहन मालवीय: Difference between revisions
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इलाहाबाद में 25 दिसम्बर, 1861 | इलाहाबाद में 25 दिसम्बर, 1861 में जन्मे पंडित मदन मोहन मालवीय अपने महान कार्यों के चलते 'महामना' कहलाये। महामना मालवीय जी ने सन [[1884]] में उच्चशिक्षा समाप्त की। शिक्षा समाप्त करते ही उन्होंने अध्यापन का कार्य शुरु किया पर जब कभी अवसर मिलता वे किसी पत्र इत्यादि के लिये लेखादि लिखते। [[1885]] ई. में वे एक स्कूल में अध्यापक हो गये, परन्तु शीघ्र ही वक़ालत का पेशा अपना कर [[1893]] ई. में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वक़ील के रूप में अपना नाम दर्ज करा लिया। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और 1885 तथा [[1907]] ई. के बीच तीन पत्रों- हिन्दुस्तान, इंडियन यूनियन तथा अभ्युदय का सम्पादन किया। | ||
==सम्पादक== | ==सम्पादक== | ||
बालकृष्ण भट्ट के ‘हिन्दी प्रदीप’ में हिन्दी के विषय में उन्होंने उन दिनों बहुत कुछ लिखा सन 1886 ई. में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन के अवसर पर कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह से उनका परिचय हुआ तथा मालवीय जी | बालकृष्ण भट्ट के ‘हिन्दी प्रदीप’ में हिन्दी के विषय में उन्होंने उन दिनों बहुत कुछ लिखा सन 1886 ई. में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|कांग्रेस]] के दूसरे अधिवेशन के अवसर पर कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह से उनका परिचय हुआ तथा मालवीय जी की भाषा से प्रभावित होकर राजा साहब ने उन्हें दैनिक 'हिन्दुस्तान' का सम्पादक बनने पर राजी कर लिया। मालवीय जी के लिए यह एक यशस्वी जीवन का शुभ श्रीगणेश सिद्ध हुआ। | ||
==रचनाएँ== | ==रचनाएँ== | ||
====अभ्युदय==== | ====<u>अभ्युदय</u>==== | ||
सन 1905 | सन 1905 ई. में मालवीय की हिन्दू विश्वविद्यालय की योजना प्रत्यक्ष रुप धारण कर चुकी थी। इसी के प्रचार की दृष्टि से उन्होंने 1907 ई. में 'अभ्युदय' की स्थापना की। मालवीय जी ने दो वर्ष तक इसका सम्पादन किया। प्रारम्भ में यह पत्र साप्ताहिक रहा, फिर सन [[1915]] ई. से दैनिक हो गया। | ||
====लीडर और हिन्दुस्तान टाइम्स==== | ====<u>लीडर और हिन्दुस्तान टाइम्स</u>==== | ||
'लीडर' और 'हिन्दुस्तान टाइम्स' की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को ही है। 'लीडर' के हिन्दी संस्करण 'भारत' का आरम्भ सन [[1921]] में हुआ और 'हिन्दुस्तान टाइम्स' का हिन्दी संस्करण 'हिन्दुस्तान' भी वर्षों से निकल रहा है। इनकी मूल प्रेरणा में मालवीय जी ही थे। | |||
====मर्यादा==== | ====<u>मर्यादा</u>==== | ||
'लीडर' के एक वर्ष बाद ही मालवीय जी ने 'मर्यादा' नामक पत्र निकलवाने का प्रबन्ध किया था। इस पत्र में भी वे बहुत दिनों तक राजनीतिक समस्याओं पर निबन्ध लिखते रहे। यह पत्रिका कुछ दिनों तक ज्ञानमण्डल लिमिटेड, [[वाराणसी]] से प्रकाशित होती रही। | |||
====साहित्यिक और धार्मिक संस्था==== | ====साहित्यिक और धार्मिक संस्था==== | ||
अन्य पत्रों को भी मालवीय जी सदा सहायक करते रहे। वे पत्रों द्वारा जनता में प्रचार करने में बहुत विश्वास रखते थे। और स्वयं वर्षों तक कई पत्रों के | अन्य पत्रों को भी मालवीय जी सदा सहायक करते रहे। वे पत्रों द्वारा जनता में प्रचार करने में बहुत विश्वास रखते थे। और स्वयं वर्षों तक कई पत्रों के सम्पादक रहे। पत्रकारिता के अतिरिक्त वे विविध सम्मेलनों, सार्वजनिक सभाओं आदि में भी भाग लेते रहे। कई साहित्यिक और धार्मिक संस्थाओं से उनका सम्पर्क हुआ तथा उनका सम्बन्ध आजीवन बना रहा। | ||
====सनातन धर्म==== | ====सनातन धर्म==== | ||
सन 1906 ई. में प्रयाग के कुम्भ के अवसर पर उन्होंने सनातन धर्म का विराट अधिवेशन कराया, जिसमें उन्होंने 'सनातन धर्म-संग्रह' नामक एक बृहत ग्रंथ तैयार कराकर महासभा में उपस्थित किया। कई वर्ष तक उस सनातन धर्म सभा के बड़े-बड़े अधिवेशन मालवीय जी ने कराये। अगले कुम्भ में त्रिवेणी के संगम पर इनका सनातन धर्म सम्मेलन भी इस सभा से मिल गया। सनातन धर्म सभा के सिद्धांतों के प्रचारार्थ काशी से [[20 जुलाई]], [[1933]] ई. को मालवीय जी की संरक्षता में 'सनातन धर्म' नामक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित होने लगा और [[लाहौर]] से ’मिश्रबन्धु’ निकला यह सब मालवीय जी के प्रयत्नों का ही फल था। | |||
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==प्राचीन संस्कृति के समर्थक== | ==प्राचीन संस्कृति के समर्थक== | ||
मालवीय जी प्राचीन संस्कृति के घोर समर्थक थे। सार्वजनिक जीवन में उनका पदार्पण विशेषकर दो घटनाओं के कारण हुआ- | मालवीय जी प्राचीन संस्कृति के घोर समर्थक थे। सार्वजनिक जीवन में उनका पदार्पण विशेषकर दो घटनाओं के कारण हुआ- | ||
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==आर्य समाज | ==आर्य समाज से मतभेद== | ||
आर्य समाज के प्रवर्तक तथा अन्य कार्यकर्ताओं ने हिन्दी की जो सेवा की थी, मालवीय जी उसकी कद्र करते थे किंतु धार्मिक और सामाजिक विषयों पर | आर्य समाज के प्रवर्तक तथा अन्य कार्यकर्ताओं ने हिन्दी की जो सेवा की थी, मालवीय जी उसकी कद्र करते थे किंतु धार्मिक और सामाजिक विषयों पर उनका आर्य समाज मतभेद था। समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज, मूर्तिपूजन आदि को वे हिन्दू-धर्म का मौलिक अंग मानते थे। | ||
इसलिए धार्मिक मंच पर आर्यसमाज की विचार धारा का विरोध करने के लिए उन्होंने जनमत संगठित करना आरम्भ किया। इन्हीं प्रयत्नों के फलस्वरुप पहले | इसलिए धार्मिक मंच पर आर्यसमाज की विचार धारा का विरोध करने के लिए उन्होंने जनमत संगठित करना आरम्भ किया। इन्हीं प्रयत्नों के फलस्वरुप पहले 'भारतधर्म महामण्डल' और पीछे 'अखिल भारतीय सनातन धर्म' सभा की नींव पड़ी। धार्मिक विचारों को लेकर दोनों सम्प्रदायों में चाहे जितना मतभेद रहा हो किंतु हिन्दी के प्रश्न पर दोनों का मतभेद था। शिक्षा और प्रचार के क्षेत्र में सनातन धर्म सभा ने हिन्दी को उन्नत करने के लिए जो कुछ किया, उसका श्रेय मालवीय जी को ही है। | ||
==हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा== | ==हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा== | ||
मालवीय जी एक सफल पत्रकार थे। और हिन्दी | मालवीय जी एक सफल पत्रकार थे। और हिन्दी पत्रकारिता से ही उन्होंने जीवन के कर्मक्षेत्र में पदार्पण किया। वास्तव में मालवीय जी ने उस समय पत्रों को अपने हिन्दी-प्रचार का प्रमुख साधन बना लिया। और हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा किया था। धीरे-धीरे उनका क्षेत्र विस्तृत होने लगा। पत्र सम्पादन से धार्मिक संस्थाएँ और इनसे सार्वजनिक सभाएँ विशेषकर हिन्दी के समर्थनार्थ और यहाँ से राजनीति की ओर इस क्रम ने उनसे सम्पादन कार्य छुड़वा दिया और वे विभित्र संस्थाओं के सदस्य, संस्थापक अथवा संरक्षक के रुप में सामने आने लगे। पत्रकार के रुप में उनकी हिन्दी सेवा की यही सीमा है, यद्यपि लेखक की हैसियत से वे भाषा और साहित्य की उत्रति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। हिन्दी के विकास में उनके योगदान का तब दूसरा अध्याय आरम्भ हुआ।{{दाँयाबक्सा}}"भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाईयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।"- मदनमोहन मालवीय{{बक्साबन्द}} | ||
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==योग्य भाषा के रुप में स्वीकृत== | ==योग्य भाषा के रुप में स्वीकृत== | ||
हिन्दी की सबसे बड़ी सेवा मालवीय जी यह की कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की अदालतों और | हिन्दी की सबसे बड़ी सेवा मालवीय जी ने यह की कि उन्होंने [[उत्तर प्रदेश]] की अदालतों और दफ़्तरों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रुप में स्वीकृत कराया। इससे पहले केवल उर्दू ही सरकारी दफ़्तरों और अदालतों की भाषा थी। यह आन्दोलन उन्होंने सन [[1890]] ई. में आरम्भ किया था। तर्क और आँकडों के आधार पर शासकों को उन्होंने जो आवेदन पत्र भेजा उसमें लिखा कि “पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध की प्रजा में शिक्षा का फैलना इस समय सबसे आवश्यक कार्य है और गुरुतर प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि इस कार्य में सफलता तभी प्राप्त होगी जब कचहरियों और सरकारी दफ़्तरों में नागरी अक्षर जारी किये जायेंगे। अतएव अब इस शुभ कार्य में जरा-सा भी विलम्ब न होना चाहिए। सन [[1900]] ई. में गवर्नर ने उनका आवेदन पत्र स्वीकार किया और इस प्रकार हिन्दी को सरकारी कामकाज में हिस्सा मिला। 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' के कुलपति की स्थिति में उपाधिवितरणोंत्सवों पर प्राय: मालवीय जी हिन्दी में ही भाषण करते थे। | ||
==काशी नागरी प्रचारिणी सभा== | |||
==काशी | सन [[1893]] ई. में मालवीय जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में पूर्ण योग दिया। वे सभा के प्रवर्तकों में थे और आरम्भ से ही सभा को उनकी सहायता का सम्बल रहा। सभा के प्रकाशन, शोध और हिन्दी प्रसार-कार्य में मालवीय जी की रुचि बराबर बनी रही और अंतिम दिन तक वे उसका मार्गदर्शन करते रहे। | ||
==अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन== | ==अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन== | ||
हिन्दी आन्दोलन के सर्वप्रथम नेता होने के कारण मालवीय जी पर हिन्दी-साहित्य की अभिवृद्धि का दायित्व भी आ गया। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु | हिन्दी आन्दोलन के सर्वप्रथम नेता होने के कारण मालवीय जी पर हिन्दी-साहित्य की अभिवृद्धि का दायित्व भी आ गया। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सन [[1910]] ई. में उनकी सहायता से प्रयाग में 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन' की स्थापना हुई। उसी वर्ष [[अक्टूबर]] में सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन काशी में हुआ। जिसके सभा पति मालवीय जी थे। मालवीय जी विशुद्ध हिन्दी के पक्ष में थे। वे हिन्दी और हिन्दुस्तानी को एक नहीं मानते थे। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जो अद्वितीय कार्य किया है, उसका भी एक आवश्यक अंग साहित्यिक है। | ||
==काशी हिन्दू विश्वविद्यालय== | ==काशी हिन्दू विश्वविद्यालय== | ||
मालवीय जी ने सन [[1916]] ई. में 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' की स्थापना की और कालांतरों मे यह एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय बन गया। वास्तव में यह एक ऐतिहासिक कार्य ही उनकी शिक्षा और साहित्य सेवा का अमिट शिलालेख है। | |||
==सनातन धर्म | ==सनातन धर्म महाविद्यालय== | ||
इसके अतिरिक्त | इसके अतिरिक्त 'सनातन धर्म सभा' के नेता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में जितने भी सनातन धर्म महाविद्यालयों की स्थापना हुई, वह मालवीय जी की सहायता से ही हुई। इनमें [[कानपुर]], [[लाहौर]], [[अलीगढ़]], आदि स्थानों के सनातन धर्म महाविद्यालय उल्लेखनीय हैं। | ||
==विचार== | ==विचार== | ||
शिक्षा के माध्यम के विषय में | शिक्षा के माध्यम के विषय में मालवीय जी के विचार बड़े स्पष्ट थे। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था कि “भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाईयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।“ | ||
==स्वतंत्र रचना== | ==स्वतंत्र रचना== | ||
'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' जैसी साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना द्वारा 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' तथा अन्य शिक्षण केन्द्रों के निर्माण द्वारा और सार्वजनिक रुप से हिन्दी आन्दोलन का नेतृत्व कर उसे सरकारी दफ़्तरों में स्वीकृत कराके मालवीय जी ने हिन्दी की सेवा की उसे साधारण नहीं कहा जा सकता। उनके प्रयत्नों से हिन्दी को यश विस्तार और उच्च पद मिला है किंतु इस बात पर कुछ आश्चर्य होता है कि ऐसी शिक्षा-दीक्षा पाकर और विरासत में हिन्दी तथा [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] का ज्ञान प्राप्त करके मालवीय जी ने एक भी स्वतंत्र रचना नहीं की। उनके अग्रलेखों, भाषणों, तथा धार्मिक प्रवचनों के संग्रह ही उनकी शैली और ओज पूर्ण अभिव्यक्ति के परिचायक के रुप में उपलब्ध है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे उच्च कोटि के विद्वान, वक्ता, और लेखक थे। सम्भव है बहुधन्धी होने के कारण उन्हें कोई पुस्तक लिखने का समय नहीं मिला। अपने जीवन काल में जो उन्होंने कुछ हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए किया सभी हिन्दी प्रेमियों के लिए पर्याप्त है किंतु उनकी निजी रचनाओं का अभाव खटकता है। उनके भाषणों और फुटकर लेखों का कोई अच्छा संग्रह आज उपलब्ध नहीं है। केवल एक संग्रह उनके जीवनकाल में ही सीता राम चतुर्वेदी ने प्रकाशित किया था, वह भी पुराने ढंग का है और उतना उपयोगी नहीं जितना होना चाहिए। | |||
==हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान== | ==हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान== | ||
लोकमान्य तिलक राजेन्द्र बाबू, और | [[लोकमान्य तिलक]], [[राजेन्द्र प्रसाद|राजेन्द्र बाबू]], और [[जवाहरलाल नेहरु]] के मौलिक या अनुदित साहित्य की तरह मालवीय जी की रचनाओं से हिन्दी की साहित्य निधि भरित नहीं हुई। इसलिए उनके सम्पूर्ण कृतित्व को आँकते हुए यह मानना होगा कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में मालवीय जी का योगदान क्रियात्मक अधिक है, रचनात्मक साहित्यकार के रुप में कम है। महामना मालवीय जी अपने युग के प्रधान नेताओं में थे। जिन्होंने हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान को सर्वोच्च स्थान पर प्रस्थापित कराया। | ||
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पंडित मदन मोहन मालवीय (जन्म- 25 दिसम्बर, 1861, इलाहाबाद; मृत्यु- 12 नवम्बर, 1946 ) महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ और शिक्षाविद ही नहीं, बल्कि एक बड़े समाज सुधारक भी थे। उन्होंने देश से जाति प्रथा की बेड़ियाँ तोड़ने के लिए कई प्रयास किए।
परिचय
इलाहाबाद में 25 दिसम्बर, 1861 में जन्मे पंडित मदन मोहन मालवीय अपने महान कार्यों के चलते 'महामना' कहलाये। महामना मालवीय जी ने सन 1884 में उच्चशिक्षा समाप्त की। शिक्षा समाप्त करते ही उन्होंने अध्यापन का कार्य शुरु किया पर जब कभी अवसर मिलता वे किसी पत्र इत्यादि के लिये लेखादि लिखते। 1885 ई. में वे एक स्कूल में अध्यापक हो गये, परन्तु शीघ्र ही वक़ालत का पेशा अपना कर 1893 ई. में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वक़ील के रूप में अपना नाम दर्ज करा लिया। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और 1885 तथा 1907 ई. के बीच तीन पत्रों- हिन्दुस्तान, इंडियन यूनियन तथा अभ्युदय का सम्पादन किया।
सम्पादक
बालकृष्ण भट्ट के ‘हिन्दी प्रदीप’ में हिन्दी के विषय में उन्होंने उन दिनों बहुत कुछ लिखा सन 1886 ई. में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन के अवसर पर कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह से उनका परिचय हुआ तथा मालवीय जी की भाषा से प्रभावित होकर राजा साहब ने उन्हें दैनिक 'हिन्दुस्तान' का सम्पादक बनने पर राजी कर लिया। मालवीय जी के लिए यह एक यशस्वी जीवन का शुभ श्रीगणेश सिद्ध हुआ।
रचनाएँ
अभ्युदय
सन 1905 ई. में मालवीय की हिन्दू विश्वविद्यालय की योजना प्रत्यक्ष रुप धारण कर चुकी थी। इसी के प्रचार की दृष्टि से उन्होंने 1907 ई. में 'अभ्युदय' की स्थापना की। मालवीय जी ने दो वर्ष तक इसका सम्पादन किया। प्रारम्भ में यह पत्र साप्ताहिक रहा, फिर सन 1915 ई. से दैनिक हो गया।
लीडर और हिन्दुस्तान टाइम्स
'लीडर' और 'हिन्दुस्तान टाइम्स' की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को ही है। 'लीडर' के हिन्दी संस्करण 'भारत' का आरम्भ सन 1921 में हुआ और 'हिन्दुस्तान टाइम्स' का हिन्दी संस्करण 'हिन्दुस्तान' भी वर्षों से निकल रहा है। इनकी मूल प्रेरणा में मालवीय जी ही थे।
मर्यादा
'लीडर' के एक वर्ष बाद ही मालवीय जी ने 'मर्यादा' नामक पत्र निकलवाने का प्रबन्ध किया था। इस पत्र में भी वे बहुत दिनों तक राजनीतिक समस्याओं पर निबन्ध लिखते रहे। यह पत्रिका कुछ दिनों तक ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी से प्रकाशित होती रही।
साहित्यिक और धार्मिक संस्था
अन्य पत्रों को भी मालवीय जी सदा सहायक करते रहे। वे पत्रों द्वारा जनता में प्रचार करने में बहुत विश्वास रखते थे। और स्वयं वर्षों तक कई पत्रों के सम्पादक रहे। पत्रकारिता के अतिरिक्त वे विविध सम्मेलनों, सार्वजनिक सभाओं आदि में भी भाग लेते रहे। कई साहित्यिक और धार्मिक संस्थाओं से उनका सम्पर्क हुआ तथा उनका सम्बन्ध आजीवन बना रहा।
सनातन धर्म
सन 1906 ई. में प्रयाग के कुम्भ के अवसर पर उन्होंने सनातन धर्म का विराट अधिवेशन कराया, जिसमें उन्होंने 'सनातन धर्म-संग्रह' नामक एक बृहत ग्रंथ तैयार कराकर महासभा में उपस्थित किया। कई वर्ष तक उस सनातन धर्म सभा के बड़े-बड़े अधिवेशन मालवीय जी ने कराये। अगले कुम्भ में त्रिवेणी के संगम पर इनका सनातन धर्म सम्मेलन भी इस सभा से मिल गया। सनातन धर्म सभा के सिद्धांतों के प्रचारार्थ काशी से 20 जुलाई, 1933 ई. को मालवीय जी की संरक्षता में 'सनातन धर्म' नामक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित होने लगा और लाहौर से ’मिश्रबन्धु’ निकला यह सब मालवीय जी के प्रयत्नों का ही फल था।
प्राचीन संस्कृति के समर्थक
मालवीय जी प्राचीन संस्कृति के घोर समर्थक थे। सार्वजनिक जीवन में उनका पदार्पण विशेषकर दो घटनाओं के कारण हुआ-
- अंग्रेज़ी और उर्दू के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण हिन्दी भाषा को क्षति न पहुँचे, इसके लिए जनमत संग्रह करना।
- भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल तत्वों को प्रोत्साहन देना।
आर्य समाज से मतभेद
आर्य समाज के प्रवर्तक तथा अन्य कार्यकर्ताओं ने हिन्दी की जो सेवा की थी, मालवीय जी उसकी कद्र करते थे किंतु धार्मिक और सामाजिक विषयों पर उनका आर्य समाज मतभेद था। समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज, मूर्तिपूजन आदि को वे हिन्दू-धर्म का मौलिक अंग मानते थे।
इसलिए धार्मिक मंच पर आर्यसमाज की विचार धारा का विरोध करने के लिए उन्होंने जनमत संगठित करना आरम्भ किया। इन्हीं प्रयत्नों के फलस्वरुप पहले 'भारतधर्म महामण्डल' और पीछे 'अखिल भारतीय सनातन धर्म' सभा की नींव पड़ी। धार्मिक विचारों को लेकर दोनों सम्प्रदायों में चाहे जितना मतभेद रहा हो किंतु हिन्दी के प्रश्न पर दोनों का मतभेद था। शिक्षा और प्रचार के क्षेत्र में सनातन धर्म सभा ने हिन्दी को उन्नत करने के लिए जो कुछ किया, उसका श्रेय मालवीय जी को ही है।
हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा
मालवीय जी एक सफल पत्रकार थे। और हिन्दी पत्रकारिता से ही उन्होंने जीवन के कर्मक्षेत्र में पदार्पण किया। वास्तव में मालवीय जी ने उस समय पत्रों को अपने हिन्दी-प्रचार का प्रमुख साधन बना लिया। और हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा किया था। धीरे-धीरे उनका क्षेत्र विस्तृत होने लगा। पत्र सम्पादन से धार्मिक संस्थाएँ और इनसे सार्वजनिक सभाएँ विशेषकर हिन्दी के समर्थनार्थ और यहाँ से राजनीति की ओर इस क्रम ने उनसे सम्पादन कार्य छुड़वा दिया और वे विभित्र संस्थाओं के सदस्य, संस्थापक अथवा संरक्षक के रुप में सामने आने लगे। पत्रकार के रुप में उनकी हिन्दी सेवा की यही सीमा है, यद्यपि लेखक की हैसियत से वे भाषा और साहित्य की उत्रति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। हिन्दी के विकास में उनके योगदान का तब दूसरा अध्याय आरम्भ हुआ।
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"भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाईयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।"- मदनमोहन मालवीयचित्र:Blockquote-close.gif |}
योग्य भाषा के रुप में स्वीकृत
हिन्दी की सबसे बड़ी सेवा मालवीय जी ने यह की कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की अदालतों और दफ़्तरों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रुप में स्वीकृत कराया। इससे पहले केवल उर्दू ही सरकारी दफ़्तरों और अदालतों की भाषा थी। यह आन्दोलन उन्होंने सन 1890 ई. में आरम्भ किया था। तर्क और आँकडों के आधार पर शासकों को उन्होंने जो आवेदन पत्र भेजा उसमें लिखा कि “पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध की प्रजा में शिक्षा का फैलना इस समय सबसे आवश्यक कार्य है और गुरुतर प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि इस कार्य में सफलता तभी प्राप्त होगी जब कचहरियों और सरकारी दफ़्तरों में नागरी अक्षर जारी किये जायेंगे। अतएव अब इस शुभ कार्य में जरा-सा भी विलम्ब न होना चाहिए। सन 1900 ई. में गवर्नर ने उनका आवेदन पत्र स्वीकार किया और इस प्रकार हिन्दी को सरकारी कामकाज में हिस्सा मिला। 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' के कुलपति की स्थिति में उपाधिवितरणोंत्सवों पर प्राय: मालवीय जी हिन्दी में ही भाषण करते थे।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा
सन 1893 ई. में मालवीय जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में पूर्ण योग दिया। वे सभा के प्रवर्तकों में थे और आरम्भ से ही सभा को उनकी सहायता का सम्बल रहा। सभा के प्रकाशन, शोध और हिन्दी प्रसार-कार्य में मालवीय जी की रुचि बराबर बनी रही और अंतिम दिन तक वे उसका मार्गदर्शन करते रहे।
अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन
हिन्दी आन्दोलन के सर्वप्रथम नेता होने के कारण मालवीय जी पर हिन्दी-साहित्य की अभिवृद्धि का दायित्व भी आ गया। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सन 1910 ई. में उनकी सहायता से प्रयाग में 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन' की स्थापना हुई। उसी वर्ष अक्टूबर में सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन काशी में हुआ। जिसके सभा पति मालवीय जी थे। मालवीय जी विशुद्ध हिन्दी के पक्ष में थे। वे हिन्दी और हिन्दुस्तानी को एक नहीं मानते थे। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जो अद्वितीय कार्य किया है, उसका भी एक आवश्यक अंग साहित्यिक है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
मालवीय जी ने सन 1916 ई. में 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' की स्थापना की और कालांतरों मे यह एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय बन गया। वास्तव में यह एक ऐतिहासिक कार्य ही उनकी शिक्षा और साहित्य सेवा का अमिट शिलालेख है।
सनातन धर्म महाविद्यालय
इसके अतिरिक्त 'सनातन धर्म सभा' के नेता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में जितने भी सनातन धर्म महाविद्यालयों की स्थापना हुई, वह मालवीय जी की सहायता से ही हुई। इनमें कानपुर, लाहौर, अलीगढ़, आदि स्थानों के सनातन धर्म महाविद्यालय उल्लेखनीय हैं।
विचार
शिक्षा के माध्यम के विषय में मालवीय जी के विचार बड़े स्पष्ट थे। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था कि “भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाईयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।“
स्वतंत्र रचना
'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' जैसी साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना द्वारा 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' तथा अन्य शिक्षण केन्द्रों के निर्माण द्वारा और सार्वजनिक रुप से हिन्दी आन्दोलन का नेतृत्व कर उसे सरकारी दफ़्तरों में स्वीकृत कराके मालवीय जी ने हिन्दी की सेवा की उसे साधारण नहीं कहा जा सकता। उनके प्रयत्नों से हिन्दी को यश विस्तार और उच्च पद मिला है किंतु इस बात पर कुछ आश्चर्य होता है कि ऐसी शिक्षा-दीक्षा पाकर और विरासत में हिन्दी तथा संस्कृत का ज्ञान प्राप्त करके मालवीय जी ने एक भी स्वतंत्र रचना नहीं की। उनके अग्रलेखों, भाषणों, तथा धार्मिक प्रवचनों के संग्रह ही उनकी शैली और ओज पूर्ण अभिव्यक्ति के परिचायक के रुप में उपलब्ध है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे उच्च कोटि के विद्वान, वक्ता, और लेखक थे। सम्भव है बहुधन्धी होने के कारण उन्हें कोई पुस्तक लिखने का समय नहीं मिला। अपने जीवन काल में जो उन्होंने कुछ हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए किया सभी हिन्दी प्रेमियों के लिए पर्याप्त है किंतु उनकी निजी रचनाओं का अभाव खटकता है। उनके भाषणों और फुटकर लेखों का कोई अच्छा संग्रह आज उपलब्ध नहीं है। केवल एक संग्रह उनके जीवनकाल में ही सीता राम चतुर्वेदी ने प्रकाशित किया था, वह भी पुराने ढंग का है और उतना उपयोगी नहीं जितना होना चाहिए।
हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान
लोकमान्य तिलक, राजेन्द्र बाबू, और जवाहरलाल नेहरु के मौलिक या अनुदित साहित्य की तरह मालवीय जी की रचनाओं से हिन्दी की साहित्य निधि भरित नहीं हुई। इसलिए उनके सम्पूर्ण कृतित्व को आँकते हुए यह मानना होगा कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में मालवीय जी का योगदान क्रियात्मक अधिक है, रचनात्मक साहित्यकार के रुप में कम है। महामना मालवीय जी अपने युग के प्रधान नेताओं में थे। जिन्होंने हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान को सर्वोच्च स्थान पर प्रस्थापित कराया।
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