हैदर अली: Difference between revisions

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*(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-506
*(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-506

Revision as of 10:16, 21 March 2011

thumb|हैदर अली हैदर अली 18वीं शताब्दी के मध्य एक वीर योद्धा था, जो अपनी योग्यता और क़ाबलियत के बल पर मैसूर का शासक बन गया। हैदर अली का जन्म 1722 में, बुदीकोट, मैसूर, भारत में हुआ था। मैसूर के मुस्लिम शासक और सेनापति के रूप में हैदर अली ने 18वीं शताब्दी के मध्य में दक्षिण भारत में हुए युद्धों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

मैसूर का शासक

एक फ़्राँसीसी व्यक्ति जोसेफ़ फ़्रैक्वाय डूप्ले से युद्ध कौशल सीखने के बाद हैदर अली ने मैसूर सेना में ब्रिगेड कमाण्डर के पद पर नियुक्त अपने भाई को बम्बई (वर्तमान मुम्बई) सरकार से सैनिक साज़ो-सामान हासिल करने और 30 यूरोपीय नागरिकों को बन्दूक़ची बहाल करने के लिए प्रेरित किया। इस तरह पहली बार किसी भारतीय द्वारा बन्दूक़ों और संगीनों से लैस नियंत्रित सिपाहियों की टुकड़ी का गठन हुआ, जिसके पीछे ऐसे तोपख़ाने की शक्ति थी, जिसके तोपची यूरोपीय थे। हैदर अली ने 1749 में मैसूर में स्वतंत्र कमान प्राप्त की। बाद में उसने प्रधानमंत्री नंजराज की जगह ले ली और राजा को उसके ही महल में नज़रबन्द कर दिया। फिर लगभग 1761 में वह मैसूर का शासक बन गया। उसने बहुत जल्दी ही बदनौर, कनारा तथा दक्षिण भारत की छोटी-छोटी रियासतों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।

योग्य सेनापति एवं सहिष्णु

यद्यपि हैदर अली अनपढ़ था, तथापि बहुत कुशल शासक और योग्य सेनापति सिद्ध हुआ। वह राज्य के सारे काम अपने सामने बहुत द्रुत गति से निबटाता था। सभी लोग बड़ी आसानी से उससे भेंट कर सकते थे। उस ज़माने के मुस्लिम शासकों में हैदर अली सबसे सहिष्णु शासक माना जाता था।

कठिनाइयों से सामना

हैदर अली को बड़ी कठिन स्थिति का सामना करना पड़ा। हैदराबाद का निज़ाम, मराठे और अंग्रेज़ सभी उसके शत्रु हो गए। इन तीनों ने 1766 ई. में उसके विरुद्ध सन्धि कर ली। किन्तु हैदर अली कठिनाइयों से घबराने वालों में से नहीं था। उसने जल्दी ही मराठों को अपनी ओर मिला लिया और फिर अंग्रेज़ों और निज़ाम से जमकर लोहा लिया। उसने मंगलौर पर पुन: अधिकार कर लिया। बम्बई (वर्तमान मुम्बई) स्थित अंग्रेज़ी सेना को पराजित किया। 1768 ई. में वह मद्रास के पाँच मील निकट तक पहुँच गया तथा अंग्रेज़ों को अपने अनुकूल सन्धि करने पर बाध्य कर दिया। इस सन्धि के अनुसार अंग्रेज़ों ने हैदर अली के विजित प्रदेशों पर उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया और यह वायदा किया कि जब कभी भी मैसूर पर हमला होगा, अंग्रेज़ हैदर अली की मदद करेंगे। इस प्रकार अंग्रेज़ों पर पहली विजय प्राप्त करने से हैदर अली की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई।

अंग्रेज़ों की दग़ाबाज़ी

1771 ई. में मराठों ने मैसूर राज्य पर हमला बोल दिया। अंग्रेज़ों ने अपना वायदा पूरा नहीं किया और हैदर अली की कोई सहायता नहीं की। इससे क्षुब्ध होकर 1779 में हैदर ने भाड़े के फ़्राँसीसी और यूरोपीय सैनिकों की मदद से अपनी सेना सशक्त की तथा अंग्रज़ों के ख़िलाफ़ निज़ाम व मराठों से समझौता किया। अंग्रेज़ों ने हैदर अली के इलाक़े में अवस्थित माहे में फ़्राँसीसी उपनिवेश पर अधिकार कर लिया, जिसने हैदर की नाराज़गी को बढ़ा दिया। 1780 में उसने दक्षिण भारत के क्षेत्र, कर्नाटक में, युद्ध करके अंग्रेज़ों की 2,800 सैनिकों की टुकड़ी को तहस-नहस कर दिया और अर्काट पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद, निज़ाम और मराठों से हैदर अली का सम्बन्ध विच्छेद कराने में अंग्रेज़ सफल रहे और 1781 में पोर्टो नोवो, पोल्लिलूर और शोलिंगूर के युद्धों में उन्होंने हैदर अली को लगातार तीन बार पराजित किया। पोर्टो नोवो में हैदर अली के 10,000 से अधिक सैनिक मारे गए।

पोर्टो नोवो का युद्ध

1782 में कोलेरून नदी के तट पर हुए युद्ध में हैदर अली के पुत्र टीपू सुल्तान ने 400 फ़्राँसीसी सैनिकों के सहयोग से 100 ब्रिटिश और 1,800 भारतीय सैनिकों को पराजित कर दिया। उसी वर्ष अप्रैल में जब अंग्रेज़ हैदर अली और टीपू सुल्तान को मैदान में स्थित उनके प्रमुख शस्त्रागार अरनी के क़िले से खदेड़ने का प्रयास कर रहे थे, पोर्टो नोवो में 1,200 फ़्राँसीसी सैनिक उतरे और कड्डालोर पर क़ब्ज़ा कर लिया। जॉर्ज मैकार्टने द्वारा मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के गवर्नर का पद सम्भालने के बाद ब्रिटिश नौसेना ने नागपट्टिणम पर अधिकार कर लिया और हैदर अली को यक़ीन दिला दिया कि वह अंग्रेज़ों को नहीं रोक सकते।

देहान्त

हैदर अली को उसके देशवासियों ने सहायता नहीं दी, फिर भी उसने अकेले ही अंग्रेज़ों से डटकर लोहा लिया। हैदर अली कैन्सर रोग से पीड़ित था। जब युद्ध चल रहा था, तभी 7 दिसम्बर, 1782 ई. में उसका देहान्त हो गया। मृत्यु के समय हैदर ने टीपू सुल्तान से अंग्रेज़ों के साथ शान्ति बनाए रखने की मनुहार की थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • (पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-506
  • (पुस्तक 'भारत ज्ञानकोश') भाग-6, पृष्ठ संख्या-253