सुरेन्द्रनाथ बनर्जी: Difference between revisions

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'''बैरिस्टर बनने में विफल रहने के बाद''' [[1875]] ई. में [[भारत]] लौटने पर वे प्रोफ़ेसर हो गये; पहले मेट्रोपालिटन इंस्टीट्यूट में (जो कि अब विद्यासागर कॉलेज कहलाता है) और बाद में रिपन कॉलेज (जो कि अब सुरेन्द्रनाथ कॉलेज कहलाता है) में, जिसकी स्थापना उन्होंने की थी। अध्यापक के रूप में उन्होंने अपने छात्रों को देशभक्ति और सार्वजनिक सेवा की भावना से अनुप्राणित किया। मेजिनी के जीवन और भारतीय एकता सदृश विषयों पर उनके भाषणों ने छात्रों में बहुत उत्साह पैदा किया। राजनीति में भी भाग लेते रहे और [[1876]] में [[इण्डियन एसोसिएशन]] की स्थापना तथा [[1883]] में [[कलकत्ता]] में प्रथम अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने में प्रमुख योगदान दिया।
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'''अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन''' एक राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की दिशा में यह पहला प्रयास था। [[1885]] ई. में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] (इण्डियन नेशनल कांग्रेस) की स्थापना के बाद उन्होंने अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (आल इंडिया नेशनल काफ़्रेंस) का उसमें विलय कराने में प्रमुख भाग लिया और उसके बाद से उनकी गिनती [[कांग्रेस]] के प्रमुख नेताओं में होने लगी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के [[1895]] में [[पूना]] में हुए ग्यारहवें अधिवेशन और [[1902]] में [[अहमदाबाद]] में हुए अठारहवें अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने देशव्यापी भ्रमण कर बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण करते हुए राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता और देश के प्रशासन में भारतीयों को अधिक जनमत को जाग्रत करने में बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने [[1878]] ई. के '''वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट''' के विरोध का नेतृत्व किया और [[इल्बर्ट बिल]] के समर्थन में प्रमुख भाग लिया।
'''अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन''' एक राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की दिशा में यह पहला प्रयास था। [[1885]] ई. में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] (इण्डियन नेशनल कांग्रेस) की स्थापना के बाद उन्होंने अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (आल इंडिया नेशनल काफ़्रेंस) का उसमें विलय कराने में प्रमुख भाग लिया और उसके बाद से उनकी गिनती [[कांग्रेस]] के प्रमुख नेताओं में होने लगी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के [[1895]] में [[पूना]] में हुए ग्यारहवें अधिवेशन और [[1902]] में [[अहमदाबाद]] में हुए अठारहवें अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने देशव्यापी भ्रमण कर बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण करते हुए राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता और देश के प्रशासन में भारतीयों को अधिक जनमत को जाग्रत करने में बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने [[1878]] ई. के '''वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट''' के विरोध का नेतृत्व किया और [[इल्बर्ट बिल]] के समर्थन में प्रमुख भाग लिया।

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thumb|250px|सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
Surendranath Banerjee
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 नवम्बर, 1848 ई. में कलकत्ता के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनकी मृत्यु 6 अगस्त, 1925 ई. में कलकत्ता के निकट बैरकपुर में हुई। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक और पार्टी के सम्मानित नेता थे।

जातीय भेद-भाव

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने स्नातक होने के बाद इण्डियन सिविल सर्विस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) में प्रवेश के लिए इंग्लैण्ड में आवेदन किया। उस समय इस सेवा में सिर्फ़ एक हिन्दू था। बनर्जी को इस आधार पर शामिल नहीं किया गया कि उन्होंने अपनी आयु ग़लत बताई थी। जातीय आधार पर भेद-भाव किये जाने का आरोप लगाते हुए बनर्जी ने अपनी अपील में यह तर्क प्रस्तुत किया कि हिन्दू रीति के अनुसार उन्होंने अपनी आयु गर्भधारण के समय से जोड़ी थी, न कि जन्म के समय से और वह जीत गए।

बनर्जी को सिलहट (अब बांग्लादेश) में नियुक्त किया गया, लेकिन क्रियान्वयन सम्बन्धी अनियमितताओं के आरोप में उन्हें 1874 में भारी विवाद तथा विरोध के बीच हटा दिया गया। उन्होंने तब बैरिस्टर के रूप में अपना नाम दर्ज़ कराने का प्रयास किया, किन्तु उसके लिए उन्हें अनुमति देने से इनकार कर दिया गया, क्योंकि वे इण्डियन सिविल सर्विस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) से बर्ख़ास्त किये गये थे। उनके लिए यह एक क़रारी चोट थी और उन्होंने महसूस किया कि एक भारतीय होने के नाते उन्हें यह सब भुगतना पड़ रहा है।

इण्डियन एसोसियेशन की स्थापना

बैरिस्टर बनने में विफल रहने के बाद 1875 ई. में भारत लौटने पर वे प्रोफ़ेसर हो गये; पहले मेट्रोपालिटन इंस्टीट्यूट में (जो कि अब विद्यासागर कॉलेज कहलाता है) और बाद में रिपन कॉलेज (जो कि अब सुरेन्द्रनाथ कॉलेज कहलाता है) में, जिसकी स्थापना उन्होंने की थी। अध्यापक के रूप में उन्होंने अपने छात्रों को देशभक्ति और सार्वजनिक सेवा की भावना से अनुप्राणित किया। मेजिनी के जीवन और भारतीय एकता सदृश विषयों पर उनके भाषणों ने छात्रों में बहुत उत्साह पैदा किया। राजनीति में भी भाग लेते रहे और 1876 में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना तथा 1883 में कलकत्ता में प्रथम अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने में प्रमुख योगदान दिया।

राष्ट्रीय एकता का प्रयास

अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन एक राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की दिशा में यह पहला प्रयास था। 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इण्डियन नेशनल कांग्रेस) की स्थापना के बाद उन्होंने अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (आल इंडिया नेशनल काफ़्रेंस) का उसमें विलय कराने में प्रमुख भाग लिया और उसके बाद से उनकी गिनती कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में होने लगी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1895 में पूना में हुए ग्यारहवें अधिवेशन और 1902 में अहमदाबाद में हुए अठारहवें अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने देशव्यापी भ्रमण कर बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण करते हुए राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता और देश के प्रशासन में भारतीयों को अधिक जनमत को जाग्रत करने में बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने 1878 ई. के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के विरोध का नेतृत्व किया और इल्बर्ट बिल के समर्थन में प्रमुख भाग लिया।

बंगाल विभाजन

बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के 1893 से 1913 तक वे सदस्य रहे और बड़े साहस के साथ लॉर्ड कर्ज़न के कलकत्ता कार्पोरेशन एक्ट का विरोध किया, जिसका उद्देश्य कार्पोरेशन का सरकारीकरण था। उक्त क़ानून पास हो जाने पर उन्होंने कार्पोरेशन में भाग लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने बंगाल के विभाजन का भी घोर विरोध किया और उसके विरोध में ज़बर्दस्त आंदोलन चलाया, जिससे वे बंगाल के निर्विवाद रूप से नेता मान लिये गये। वे बंगाल के बिना ताज़ के बादशाह कहलाने लगे। बंगाल का विभाजन 1911 में रद्द कर दिया गया, जो सुरेन्द्रनाथ की एक बहुत बड़ी जीत थी। लेकिन इस समय तक देशवासियों में एक नया वर्ग पैदा हो गया था, जिसका विचार था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वैधानिक आंदोलन विफल सिद्ध हुए और भारत में स्वराज्य प्राप्ति के लिए और प्रभावपूर्ण नीति अपनाई जानी चाहिए।

सिद्धान्तवादी व्यक्ति

नया वर्ग, जो गरम दल कहलाता था, हिंतात्मक तरीक़े अपनाने से नहीं डरता था, उससे चाहे क्रान्ति ही क्यों न हो जाये। लेकिन सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का, जिनकी शिक्षा-दीक्षा अठारहवीं शताब्दी के अंग्रेज़ साहित्य, विशेषकर बर्क के सिद्धान्तों पर हुई थी, क्रान्ति अथवा क्रान्तिकारी तरीक़ों में कोई विश्वास नहीं था और वे भारत तथा इंग्लैंड के बीच पूर्ण अलगाव की बात सोच भी नहीं सकते थे। इस प्रकार सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को, जिन्हें कभी अंग्रेज़ प्रशासक गरम विचारों का उग्रवादी व्यक्ति मानते थे, अब स्वयं उनके देशवासी नरम दल का व्यक्तित्व मानने लगे थे। सूरत कांग्रेस (1907) के बाद वे कांग्रेस पर गरम दलवालों का क़ब्ज़ा होने से रोकने में सफल रहे थे। किन्तु इसके बाद शीघ्र ही कांग्रेस गरम दल वालों के नियंत्रण में चली गई। इसका परिणाम यह हुआ कि माण्टेग्यू चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट के आधार पर जब 1919 का गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट पास हुआ तो सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने उसे इस आधार पर स्वीकार कर लिया कि कांग्रेस अपने आरम्भिक दिनों में जो मांग कर रही थी, वह इस एक्ट से बहुत हद तक पूरी हो गई है, लेकिन स्वयं कांग्रेस ने उसे अस्वीकार कर दिया।

कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद

इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का सम्बन्ध विच्छेद हो गया। उन्होंने कांग्रेस के अन्य पुराने नेताओं के साथ लिबरल फ़ेडरेशन की स्थापना की जो अधिक जन समर्थन प्राप्त नहीं कर सका। फिर भी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी नई बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य निर्वाचित हो गये। 1921 ई. में कलकत्ता म्युनिसिपल बिल को विधानमंडल से पास कराया, जिससे लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बनाया गया पूर्ववर्ती क़ानून निरस्त हो गया और कलकत्ता कार्पोरेशन पर पूर्ण रूप से लोकप्रिय नियंत्रण स्थापित हो गया।

भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माता

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन जिसकी 1876 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने शुरूआत की थी, इस समय तक बहुत विकसित हो गया था और देश के लिए क़ानून बनाने तथा देश के प्रशासन में अधिक हिस्सा दिये जाने की जिन माँगों के लिए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने पचास वर्षों से भी अधिक समय तक संघर्ष किया था, उन माँगों की पूर्ति से अब देशवासी संतुष्ट नहीं थे। वे अब स्वाधीनता की माँग कर रहे थे, जो सुरेन्द्रनाथ की क्लपना से परे थी। उनकी मृत्यु जिस समय हुई उस समय उनकी गिनती देश के लोकप्रिय नेताओं में नहीं होती थी, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वे आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माताओं में से थे, जिसकी स्वाधीन भारत एक देन है।

मृत्यु

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी 1920 ई. में शुरू किये गये असहयोग आंदोलन से सहमत नहीं थे। फलत: स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में उनकी महत्त्वपूर्ण क़ानूनी उपलब्धियों के बावजूद उन्हें पहले की भाँति देशवासियों का समर्थन नहीं मिल सका। वे 1923 के चुनाव में हार गये और तदुपरान्त 1925 में अपनी मृत्यु पर्यन्त सार्वजनिक जीवन से प्राय: अलग रहे।  


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

(पुस्तक 'भारतीय इतिहास काश') पृष्ठ संख्या-268