भारतीय प्रशासनिक सेवा

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भारतीय प्रशासनिक सेवा वह प्रशासकीय सेवा है जिसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपना प्रशासन चलाने के लिए चालू किया था। पहले इसका नाम कम्पनी राज की सिविल सर्विस था, बाद में इसका नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) रखा गया। इसका आरम्भ अत्यन्त छोटे रूप में हुआ। व्यापारियों की संस्था के रूप में कम्पनी ने अपनी सेवा में अंग्रेज़ युवकों को लिपिक के पद पर नियुक्त किया। ये ब्रिटिश युवक आम तौर से प्रबन्धकों द्वारा मनोनीत होते थे और कम्पनी के शेयर होल्डरों से रिश्तेदारी के आधार पर चुने जाते थे। उनकी उम्र 20 वर्ष से कम होती थी। उन्हें स्कूली शिक्षा या तो बिल्कुल मिली ही न हो या कम मिली होती थी। उनका वेतन भी बहुत कम होता था।

क़रार वाली सिविल सेवा

1757 ई. में प्लासी के युद्ध के बाद जब कम्पनी के आधिपत्य में भारत का काफ़ी बड़ा क्षेत्र आ गया, तो उसने नवविजित क्षेत्रों का प्रशासन अपने इन लिपिकों के सुपुर्द कर दिया। इन नवनियुक्त अफ़सरों ने ज़बरदस्त भ्रष्टाचार और बेईमानी शुरू कर दी। अत: कम्पनी ने उनसे एक क़रार पर हस्ताक्षर करने को कहा, जिसमें कम्पनी की सेवा ईमानदारी और सच्चाई के साथ करने का वचन मांगा गया था। इसी आधार पर अंग्रेज़ी में इस क़रारशुदा सेवा को कावेनेंटेड सिविल सर्विस (क़रार वाली सिविल सेवा) कहा जाने लगा। बंगाल में लॉर्ड क्लाइव के दूसरी बार के प्रशासनकाल में कम्पनी ने पहली बार अपने अफ़सरों को उक्त क़रार करने को बाध्य किया। अफ़सरों ने शुरू में तो इस नई व्यवस्था का विरोध किया किन्तु अंतत: उन्हें झुकना पड़ा। लॉर्ड कार्नवालिस के प्रशासन काल में यह कावेनेंटेड सिविल सर्विस भारत में कम्पनी के प्रशासन तंत्र का एक नियमित अंग बन गई।

अंग्रेज़ों का एकाधिकार

लॉर्ड कार्नवालिस ने इस सेवा में सिर्फ़ अंग्रेज़ों को ही भर्ती किया और उनके वेतन भी बढ़ा दिये गये। कम्पनी के अंतर्गत सभी महत्त्वपूर्ण सिविल पदों पर अंग्रेज़ों की नियुक्ति होती और ज़िला कलेक्टरों, मजिस्ट्रेटों, जजों के पदों पर तो जैसे उनका एकाधिकार हो गया। बाद को जब विभागीय सचिवों और राजनयिक एजेंटों के पद चालू किये गये तो उन पर भी अंग्रेज़ों को ही नियुक्त किया गया। लॉर्ड वेलेजली ने कावेनेंटेड सिविल सर्विस के सदस्यों का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए एक निश्चित अवधि तक उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की। इसके लिए उसने कलकत्ता में फ़ोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। किन्तु 1805 ई. में यह कॉलेज बंद करना पड़ा, क्योंकि इस पर होने वाले ख़र्च पर कम्पनी ने ऐतराज़ किया। इसके बाद के पचास वर्षों में कावेनेंटेड सिविल सर्विस के रंगरूटों को लंदन के हेलेबरी कॉलेज में प्रशिक्षण दिया जाता रहा। इनमें से कुछ रंगरूट तो वास्तव में अत्यन्त योग्य और सफल प्रशासक सिद्ध हुए, किन्तु सामान्य तरीक़े से औसत सदस्यों में बहुत कमियाँ पाई जाती थीं, क्योंकि कावेनेंटेड सिविल सर्विस में कम्पनी के डायरेक्टरों द्वारा नामजद लोगों की भर्ती होती थी, जिन्हें योग्य प्रशासक बनने के लिए अपेक्षित शिक्षा बिल्कुल प्राप्त नहीं थी। फलत: स्वयं इंग्लैंण्ड में ही यह मांग उठी कि सर्वोत्तम मेधावी ब्रिटिश युवकों को ही प्रशासक बनाकर भारत भेजा जाना चाहिए।

प्रतियोगिता माध्यम

अब 1853 ई. में कावेनेंटेड सिविल सर्विस में, जो अब भारतीय प्रशासनिक सेवा के नाम से पुकारी जाने लगी, प्रवेश सार्वजनिक प्रतियोगिता के माध्यम से सबके लिए खोल दिया गया। 1855 ई. में लंदन में बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल की देखरेख में पहली सार्वजनिक प्रतियोगिता हुई। सन् 1858 से यह प्रतियोगिता सिविल सर्विस कमिश्नरों की देखरेख में होने लगी। इस प्रकार भारतीय प्रशासनिक सेवा में सभी मेधावी ब्रिटिश युवकों के लिए प्रवेश का द्वार खुल गया। लेकिन चार्टर एक्ट, 1832 ई. और 1858 ई. में महारानी के घोषणापत्र के बावजूद भारतीय अब भी प्रवेश से वंचित रहे। 1864 ई. में पहली बार एक भारतीय (महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई सत्येन्द्रनाथ ठाकुर) लंदन में हुई भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) की प्रतियोगिता में सफल हुए और उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा में स्थान प्राप्त किया। किन्तु भारतीय प्रशासनिक सेवा में भारतीयों का प्रवेश अत्यल्प रहा और 1876 में अधिकतम उम्र 23 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर देने से यह प्रवेश असम्भव नहीं तो और कठिन अवश्य बना दिया गया।

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भारतीयों की माँग

बहरहाल इस समय तक भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार हो गया था, इसलिए भारतीय विश्वविद्यालयों के नये स्नातकों द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) में प्रवेश की अधिक सुविधाएँ माँगना स्वाभाविक था। भारतीयों ने यह माँग करना शुरू किया कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रवेश के लिए लंदन के साथ ही साथ भारत में भी एक प्रतियोगिता परीक्षा होनी चाहिए और प्रवेश की अधिकतम उम्र पहले की तरह 23 वर्ष कर दी जाए। बाद में इस माँग पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी ज़ोर दिया और शुरू के प्राय: सभी अधिवेशनों में इस माँग को दोहराया गया। लेकिन बराबर नज़रअंदाज़ किया जाता रहा।

अंग्रेज़ों का पक्ष

1878 ई. में भारतीय माँग को टालने के लिए एक नई सेवा आरम्भ की गई, जिसे स्टेट्यूटरी सिविल सर्विस का नाम दिया गया और इसमें भारतीयों को भर्ती किया गया। इस सेवा के लोग कम महत्त्ववाले कुछ ऊँचे पदों पर, विशेष रूप से न्यायिक पदों पर, नियुक्त किये गये और उन्हें एक से पदों पर कार्य करने के बावजूद भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्यों के मुक़ाबले दो-तिहाई वेतन दिया जाता रहा। इसलिए इस सेवा से भी भारतीय माँग संतुष्ट नहीं हुई और 1885 ई. में इस सेवा को समाप्त कर दिया गया। उम्र की सीमा 1829 में बढ़ाकर 23 वर्ष कर दी गई, किन्तु भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) में प्रवेश के लिए भारत में भी प्रतियोगिता परीक्षा कराने की माँग 1922 ई. तक नहीं मानी गई। ब्रिटेन और भारत दोनों ही सरकारों का भरसक प्रयास अब भी यही रहा कि, भारतीय प्रशासनिक सेवा में बाहुल्य अंग्रेज़ों का ही बना रहे।

प्रधानमंत्री का भाषण

प्रधानमंत्री लॉर्ड जार्ज ने अगस्त 1922 में कामन सभा (हाउस ऑफ़ कामन्स) में अपने एक भाषण में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अंग्रेज़ नौकरशाहों को भारतीय संवैधानिक ढाँचे का इस्पाती चौखटा कहा और भविष्यवाणी की कि अगर आप इस इस्पाती चौखटे को हटा लें तो पूरा ढाँचा ही ढह जाएगा। किन्तु 25 वर्षों के बाद इस इस्पाती चौखटे के बने रहने पर भी ढाँचा ढह पड़ा।

घृणित प्रयास

असलियत यह थी कि भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) के ब्रिटिश सदस्यों ने भारत के विकास और यहाँ तक कि उसके राजनीतिक भविष्य के विकास में भी निसंदेह महत्त्वपूर्ण योग दिया, किन्तु वे अपने को भारत का अंग कभी भी न बना पाए। वे भारत के लिए बहुत मंहगे थे। उन्होंने आमतौर से भारतीयों को अपने से हमेशा ही नीचा समझा। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उनका अन्तिम प्रयास बड़ा ही घृणित था। उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक तनाव इस हद तक बढ़ा दिया कि अगस्त, 1947 में आख़िरकार जब उन्हें परिस्थितियों ने भारत छोड़ने को विवश कर दिया तो वे उसे दो टुकड़ों में बँटा हुआ और लहू-लुहान छोड़कर चले गये।

प्रशिक्षण संस्थान

इस सेवा हेतु चयनित अभ्यथियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था उत्तराखंड राज्य के मसूरी नामक स्थान पर होती हैं।

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राज्य प्रशासनिक सेवा

राज्यों का ढाँचा संघात्मक बनाया गया था, तथापि सार्वजनिक सेवारत कर्मचारियों की मनमानी पदच्युति, स्थानांतरण, पदों के न्यूनीकरण आदि से बचाव के लिए सारे देश में एक जैसी व्यवस्था संविधान द्वारा की गई। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अनुरूप राज्य स्तर पर प्रशासन की सहायता के लिये राज्य प्रशासनिक सेवाऐं (स्टेट सिविल सर्विस) होती हैं , जिसे राज्य सिविल सेवा के रूप में भी जाना जाता है, यह राज्य स्तर की सिविल सेवा है और इसमें राज्य सरकार की स्थायी नौकरशाही होती हैं।

1947 से 1950 की अवधि में इन सेवाओं की स्थापना तथा तत्संबंधी अन्य निश्चयों के साथ ही साथ संविधान सभा ने स्वतंत्र भारत के लिए एक संविधान का निर्माण कर दिया और विभिन्न रियासतों के विलयन के बाद देश में राजनीतिक एकता स्थापित हो गई। संविधान का स्वरूप, जिसके अधीन ये लोकसेवाएँ थीं, इन राजनीतिक परिवर्तनों को ध्यान में रखकर स्थिर किया गया था।

समस्त देश में सार्वजनिक सेवाओं और पदों पर भरती और नियुक्ति लोकसेवा आयोगों के माध्यम से करने की व्यवस्था की गई। सेवा की स्थितियों, उन्नति, स्थानांतरण, अनुशासनिक कार्रवाई तथा सेवाकाल में हुई क्षति अथवा विवाद आदि की अवस्था में इन कर्मचारियों के अधिकारों से संबंधित नियमादि बनाने के संबंध में भी इन आयोगों की राय लेना आवश्यक माना गया।

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सिविल सेवा दिवस

21 अप्रैल को सिविल सेवा दिवस मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य नागरिकों के लिए अपने आप को एक बार पुनः समर्पित और फिर से वचनबद्ध करना है। इसे सभी सिविल सेवा द्वारा मनाया जाता है। इस अवसर पर, केन्द्रिय और राज्य सरकारों के सभी अधिकारियों को भारत के प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजनिक प्रशासन में उत्कृष्ठता के लिए सम्मानित किया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 72।

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