बर्मी युद्ध

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बर्मा में तीन क्रमिक बर्मी युद्ध हुए और 1886 ई. में पूरा देश ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। किन्तु 1935 ई. के भारतीय शासन विधान के अंतर्गत बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। 1947 ई. से भारत और बर्मा दो स्वाधीन पड़ोसी मित्र हैं।

प्रथम बर्मी युद्ध

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पहला आंग्ल-बर्मी युद्ध दो वर्ष (1824-26 ई.) तक चला। इसका कारण बर्मी राज्य की सीमाओं का आसपास तक फैल जाना तथा दक्षिण बंगाल के चटगाँव क्षेत्र पर भी बर्मी अधिकार का ख़तरा उत्पन्न हो जाना था। लार्ड एम्हर्स्ट की सरकार ने, जिसने युद्ध घोषित किया था, आरम्भ में युद्ध के संचालन में पूर्ण अयोग्यता का प्रदर्शन किया, उधर बर्मी सेनापति बंधुल ने युद्ध के संचालन में बड़ी योग्यता का परिचय दिया। ब्रिटिश भारतीय सेना ने बर्मी सेना को आसाम से मारकर भगाया, रंगून (अब यांगून) पर चढ़ाई करके उस पर क़ब्ज़ा कर लिया।

द्वितीय बर्मी युद्ध

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यन्दबू संधि के आधार पर राजनीतिक एवं व्यावसायिक माँगों के फलस्वरूप 1852 ई. में द्वितीय बर्मा युद्ध छिड़ गया। लार्ड डलहौज़ी ने जो उस समय गवर्नर-जनरल था, बर्मा के शासक पर संधि की सभी शर्तें पूरी करने के लिए ज़ोर डाला। बर्मी शासक का कथन था कि अंग्रेज़ संधि की शर्तों से कहीं अधिक माँग कर रहे हैं। अपनी माँगों को एक निर्धारित तारीख़ तक पूरा कराने के लिए लार्ड डलहौज़ी ने कमोडोर लैम्बर्ट के नेतृत्व में एक जहाज़ी बेड़ा रंगून भेज दिया। ब्रिटिश नौसेना के अधिकारी की तुनुक-मिज़ाजी के कारण ब्रिटिश फ़्रिगेट और एक बर्मी जहाज़ के बीच गोलाबारी हो गई।

तृतीय बर्मी युद्ध

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तृतीय बर्मी युद्ध 38 वर्ष के बाद 1885 ई. में हुआ। उस समय थिबा ऊपरी बर्मा का शासक राजा था और मांडले उसकी राजधानी थी। लार्ड डफ़रिन भारत का गवर्नर-जनरल था। बर्मी शासक ज़बर्दस्ती दक्षिणी बर्मा छीन लिये जाने से कुपित था और मांडले स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट तथा अधिकारियों को उन मध्ययुगीन शिष्टाचारों को पूरा करने में झुँझलाहट होती थी जो उन्हें थिबासे मुलाक़ात के समय करनी पड़ती थीं। 1852 ई. की पराजय से पूरी तरह चिढ़े हुए थिबा ने फ़्राँसीसियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने का प्रयास शुरू कर दिया।


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