आंग्ल-बर्मा युद्ध द्वितीय

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द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध 1852 ई. में लड़ा गया था। यह युद्ध 'यन्दबू की सन्धि' के आधार पर राजनीतिक एवं व्यावसायिक माँगों के फलस्वरूप छिड़ा था। लॉर्ड डलहौज़ी ने, जो उस समय ब्रिटिश गवर्नर-जनरल था, बर्मा के शासक पर सन्धि की सभी शर्तें पूरी करने के लिए ज़ोर डाला। बर्मी शासक का कथन था कि अंग्रेज़ सन्धि की शर्तों से कहीं अधिक माँग कर रहे हैं। इस युद्ध में बर्मा की पराजय हुई तथा वह एक स्थलीय राज्य बनकर ही रह गया। अब उसके सभी विदेशी सम्बन्ध सिर्फ़ अंग्रेज़ों की इच्छा पर आश्रित हो गये।

  • अपनी माँगों को एक निर्धारित तारीख़ तक पूरा कराने के लिए लॉर्ड डलहौज़ी ने कमोडोर लैम्बर्ट के नेतृत्व में एक जहाज़ी बेड़ा रंगून (अब यांगून) भेज दिया।
  • ब्रिटिश नौसेना के अधिकारी की तुनुक-मिज़ाजी के कारण ब्रिटिश फ़्रिगेट और एक बर्मी जहाज़ के बीच गोलाबारी प्रारम्भ हो गई।
  • लॉर्ड ऑस्टेन के नेतृत्व में ब्रिटिश नौसेना ने दक्षिणी बर्मा पर आक्रमण करना शुरू कर दिया।
  • रंगून, मर्तबान, बसीन, प्रोम और पेंगू पर शीघ्र ही अंग्रेज़ी सेना द्वारा क़ब्ज़ा कर लिया गया।
  • लॉर्ड डलहौज़ी, सितम्बर, 1852 ई. में बर्मा पहुँच गया।
  • बर्मी राजा उसकी शर्तों को पूरा करने के लिए किसी भी प्रकार राज़ी नहीं था।
  • गवर्नर-जनरल की हैसियत से डलहौज़ी ने तत्काल उत्तरी बर्मा तक बढ़ना विवेकपूर्ण नहीं समझा।
  • उसने दक्षिणी बर्मा को ब्रिटिश भारत में मिला लिये जाने की घोषणा कर स्वयं अपनी पहल पर युद्ध बंद कर दिया।
  • पेंगू अथवा दक्षिणी बर्मा पर क़ब्ज़ा हो जाने से अब बंगाल की खाड़ी के समूचे तट पर अंग्रेज़ों का नियंत्रण स्थापित हो गया।


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