सूरत की सन्धि

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सूरत की सन्धि 1775 ई. में राघोवा (रघुनाथराव) और अंग्रेज़ों के बीच हुई। इस सन्धि के अनुसार अंग्रेज़ों ने राघोवा को सैनिक सहायता देना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने युद्ध में विजय के उपरांत उसे पेशवा बनाने का भी वचन दिया। सन्धि के अनुसार राघोवा ने साष्टी और बसई तथा भड़ौच और सूरत ज़िलों की आय का कुछ भाग अंग्रेज़ों को देना स्वीकार किया। उसने अंग्रेज़ों को यह वचन भी दिया कि वह उनके शत्रुओं से किसी भी प्रकार का मेल-मिलाप नहीं रखेगा।

राघोवा की महत्वाकांक्षा

राघोवा पेशवा बाजीराव प्रथम का द्वितीय पुत्र था। वह अपने बड़े भाई बालाजी बाजीराव की मृत्यु के बाद उसके पुत्र और अपने भतीजे माधवराव प्रथम को पेशवा बनाये जाने के ख़िलाफ़ था। किन्तु 1772 ई. में अचानक माधवराव प्रथम की मृत्यु हो गई और उसका छोटा भाई नारायणराव अगला पेशवा बना। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं पर पानी फिर जाने से रघुनाथराव की समस्त देशभक्ति कुण्ठित हो गई और उसने बम्बई जाकर अंग्रेज़ों से सहायता की याचना की तथा 1775 ई. में उनसे सन्धि कर ली, जो कि सूरत की सन्धि के नाम से प्रसिद्ध है।

सन्धि की शर्तें

सन्धि के अंतर्गत अंग्रेज़ों ने रघुनाथराव की सहायता के लिए 2500 सैनिक देने का वचन दिया, परन्तु इनका समस्त व्यय भार रघुनाथराव को ही वहन करना था। इसके बाद में रघुनाथराव ने साष्टी और बसई तथा भड़ौच और सूरत ज़िलों की आय का कुछ भाग अंग्रेज़ों को देना स्वीकार कर लिया। साथ ही उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शत्रुओं से किसी प्रकार की सन्धि न करने तथा पूना सरकार से सन्धि या समझौता करते समय अंग्रेज़ों को भी भागी बनाने का वचन दिया। सन्धि के अनुसार बम्बई के अंग्रेज़ों ने रघुनाथराव का पक्ष लिया और प्रथम मराठा युद्ध आरम्भ हो गया। यह युद्ध 1775 ई. से 1783 ई. तक चलता रहा और इसकी समाप्ति 'सालबाई की सन्धि' से हुई।


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