श्रमिक आन्दोलन

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द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद राजनीतिक आन्दोलनों में काफ़ी तेज़ी आई, जिसके फलस्वरूप श्रमिक आन्दोलन मुख्य रूप से बलशाली हो गये। रूस में 1918 ई. की 'साम्यवादी क्रांति' ने भारतीय मज़दूर संघों को प्रोत्साहित किया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 'अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ' (आई.एल.ओ.) की स्थापना हुई। वी.पी. वाडिया ने भारत में आधुनिक श्रमिक संघ 'मद्रास श्रमिक संघ' की स्थापना की। उन्हीं के प्रयासों से 1926 ई. में 'श्रमिक संघ अधिनियम' पारित किया गया।

सुधारवादी व क्रांतिकारी गुट

1920 ई. में स्थापित 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' (ए.आई.टी.यू.सी.) में तत्कालीन, लगभग 64 श्रमिक संघ शामिल हो गये। एन.एम.जोशी, लाला लाजपत राय एवं जोसेफ़ बैपटिस्टा के प्रयत्नों से 1920 ई. में स्थापित 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' पर वामपंथियों का प्रभाव बढ़ने लगा। 'एटक' (ए.आई.टी.यू.सी) के प्रथम अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे। यह सम्मेलन 1920 ई. में बम्बई में हुआ था। इसके उपाध्यक्ष जोसेफ़ बैप्टिस्टा तथा महामंत्री दीवान चमनलाल थे। लाला लाजपत राय ने 'साम्राज्यवाद' और 'सैन्यवाद' को 'पूंजीवाद का जुड़वा बच्चा' कहा। कांग्रेस के 'गया अधिवेशन' (1922 ई.) के श्रमिकों को संबद्ध करने के लिए 'एटक' के साथ कांग्रेस से सहयोग करने का निर्णय लिया। 1926-1927 ई. में ये संगठन दो गुटों में बंट गया था, जिनमें पहला 'सुधारवादी' और दूसरा 'क्रांतिकारी' था। इन्हें क्रमशः 'जेनेवा एमस्टर्डम गुट' एवं 'मास्को गुट' भी कहते थे।

विभिन्न यूनियनों की स्थापना

1929 ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन का विभाजन दो भागों में हो गया। एम.एन.जोशी एवं वी.वी. गिरि के नेतृत्व में नरमपंथी लोग ट्रेड यूनियन से अलग होकर 'भारतीय ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशन' की स्थापना की। 1931 ई. के भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अलग होकर रणदिबे और देश पाण्डेय ने 'लाल ट्रेड यूनियन' की स्थापना की। 1938 ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, लाल ट्रेड यूनियन कांग्रेस एवं राष्ट्रीय फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन्स में पुनः एकता स्थापित हो गई। इस प्रकार 1938 ई. में इसका पहला अधिवेशन नागपुर में हुआ। एक होने के बाद अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने भारत में समाजवादी राज्य की स्थापना, उद्योगों के राष्ट्रीयकरण एवं प्रेस तथा विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता का समर्थन किया। 1938 ई. में सुभाषचन्द्र बोस के सहयोग से 'हिन्द मज़दूर सेवक संघ' की स्थापना हुई। बंगाल में पहली 'मज़दूर किसान पार्टी' की स्थापना 1925 ई. में हुई। जिसका प्रथम अधिवेशन सोहनलाल जोशी की अध्यक्षता में कलकत्ता में हुआ।

आन्दोलन में तेज़ी

1928 ई. में बम्बई कपड़ा मिल मज़दूरों ने सबसे बड़ी हड़ताल की। यह 6 माह तक चली तथा इसमें डेढ़ लाख लोगों ने भाग लिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद श्रमिक आंदोलन में काफ़ी तेज़ी आई, क्योंकि रूस के विजयी होने के बाद साम्यवादियों का प्रभुत्व बढ़ा, जिसका प्रभाव भारतीय श्रमिक आन्दोलन पर पड़ा। 1940 ई. में साम्यवादी नेता एम.एन.राय ने अपने को अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अलग कर 'इण्डियन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर' की स्थापना की। इस दल को सरकार का समर्थक दल माना जाता था। राष्ट्रवादी नेता वल्लभभाई पटेल ने मई, 1947 ई. में 'भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' की स्थापना की। सरदार वल्लभभाई पटेल इसके प्रथम अध्यक्ष थे। समाजवादियों के प्रयास से 1948 ई. में 'हिन्द मज़दूर सभा' की स्थापना हुई। इस संघ की स्थापना का उद्देश्य था, भारत में लोकतांत्रिक समाजवादी समाज को स्थापित करना, मज़दूरों के हित, अधिकार एवं सुविधा की लड़ाई लड़ना, शैक्षिक स्तर को सुधारने के लिए संस्थायें गठित करना आदि।

मज़दूरों के प्रथम हड़ताल

मज़दूरों की पहली हड़ताल 1877 ई. में नागपुर में हुई थी। यह हड़ताल नागपुर के एक सूती मिल में हुई थी। भारत में व्यापक स्तर पर हड़तालों का आयोजन 1918 ई. से 1920 ई. के मध्य बम्बई, मद्रास, कानपुर, जमशेदपुर, शोलापुर, अहमदनगर आदि में हुआ। 22 जुलाई, 1908 ई. को लोकमान्य तिलक के गिरफ्तार होने पर 20वीं सदी की पहली सबसे बड़ी राजनीतिक हड़ताल का आयोजन हुआ। इस हड़ताल में बम्बई मिल मज़दूरों का काफ़ी प्रभाव था।

  • भारत में प्रथम 'क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन' की स्थापना 1928 ई. में श्रीपाद अमृत डांगे एवं वेन ब्रेडले के सहयोग से बम्बई में 'लाल बावटा गिरनी कामगार यूनियन' के नाम से की गई। इन तमाम छोटे बड़े श्रम संगठनों में श्रमिकों को 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' ने सर्वाधिक प्रभावित किया।


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