राम सिंह
राम सिंह
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पूरा नाम | सतगुरु राम सिंह |
अन्य नाम | सतगुरु |
जन्म | 3 फ़रवरी, 1816 |
जन्म भूमि | भैनी गाँव, पंजाब |
मृत्यु | 1885 |
गुरु | बालक सिंह |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | महान समाज सुधारक, धर्मगुरु और स्वाधीनता सेनानी |
विशेष योगदान | उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध तो संघर्ष किया ही, साथ ही वे विदेशी शासकों के विरुद्ध भी एक कारगर संग्राम के सूत्रधार बने थे। |
नागरिकता | भारतीय |
राम सिंह (अंग्रेज़ी: Ram Singh, जन्म- 3 फ़रवरी, 1816, पंजाब; मृत्यु- 1885, म्यांमार) 'नामधारी संप्रदाय' के संस्थापक थे। सतगुरु राम सिंह तत्कालीन समय के महान् समाज सुधारक, धर्मगुरु और स्वाधीनता सेनानी थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध तो संघर्ष किया ही, साथ ही वे विदेशी शासकों के विरुद्ध भी एक कारगर संग्राम के सूत्रधार बने थे। उनकी विचारधारा से अंग्रेज़ इतना परेशान हुए कि उन्हें बंदी बनाकर रंगून (अब यांगून), बर्मा (वर्तमान म्यांमार) भेज दिया गया।
जन्म तथा व्यक्तित्व
राम सिंह का जन्म 3 फ़रवरी, 1816 को भैनी (पंजाब) में एक प्रतिष्ठित, छोटे किसान परिवार में हुआ था। प्रारम्भ में वे अपने परिवार के साथ खेती आदि के काम में ही हाथ बंटाते थे, लेकिन आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण वे प्रवचन आदि भी दिया करते थे। अपनी युवावस्था में ही राम सिंह सांदगी पंसद और नामधारी आंदोलन के संस्थापक 'बालक सिंह' के शिष्य बन गए। बालक सिंह से उन्होंने महान् सिक्ख गुरुओं तथा खालसा[1] नायकों के बारे में जानकारी हासिल की। अपनी मृत्यु से पहले ही बालक सिंह ने राम सिंह को नामधारियों का नेतृत्व सौंप दिया।
सिक्खों का संगठन
20 वर्ष की अवस्था में राम सिंह सिक्ख महाराजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हुए। सिक्खों के मूलाधार रणजीत सिंह की मृत्यु के उपरांत उनकी सेना और क्षेत्र बिखर गए। ब्रिटिश ताकत और सिक्खों की कमज़ोरी से चिंतित राम सिंह ने सिंक्खों में फिर से आत्म-सम्मान जगाने का निश्चय किया और उन्हें संगठित करने के लिए अनेक उपाय किए। उन्होंने नामधारियों में नए रिवाजों की शुरुआत की और उन्हें उन्मत मंत्रोच्चार के बाद चीख की ध्वनि उत्पन्न करने के कारण 'कूका'[2] कहा जाने लगा। उनका संप्रदाय, अन्य सिक्ख संप्रादायों के मुकाबले अधिक शुद्धतावादी और कट्टर था। नामधारी हाथों से बुने सफ़ेद रंग के वस्त्र पहनते थे। वे लोग एक बहुत ही ख़ास तरीके से पगड़ी बाँधते थे। वे अपने पास डंडा और ऊन की जप माला रखते थे। विशेष अभिवादनों व गुप्त संकेतों का इस्तेमाल वे किया करते थे। उनके गुरुद्धारे भी अत्यंत सादगीपूर्ण होते थे।
निधन
राम सिंह ने अपने शिष्यों, जिनमें से कई निर्धन थे, को यह बताकर कि वह ईश्वर के सबसे प्रिय हैं तथा अन्य मत म्लेच्छ हैं, उनमें आत्म-सम्मान का भाव पैदा किया। उनकी व्यक्तिगत सेना में संदेशवाहक तक अपने थे, ताकि ब्रिटिश डाक सेवा का बहिष्कार किया जा सके। देश की स्वाधीनता के लिए अपना योगदान देने वाले राम सिंह का 1885 ई. में बर्मा में निधन हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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