उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय
उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय
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पूरा नाम | उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय |
जन्म | 6 जून, 1879 |
जन्म भूमि | चन्दन नगर, बं |
मृत्यु | 1950 |
अभिभावक | पिता- रामनाथ बनर्जी |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | भारतीय स्वतंत्रता |
मुख्य रचनाएँ | 'भवानी मन्दिर' |
प्रसिद्धि | क्रांतिकारी |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय ने 1905 में 'भवानी मन्दिर' नाम की पुस्तक लिखी थी, जिसमें देश की स्वतन्त्रता के लिये आपने जनता को शक्ति की देवी काली की उपासना करने के लिये ज़ोर दिया था। |
उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय (अंग्रेज़ी: Upendranath Bandyopadhyay, जन्म- 6 जून, 1879; मृत्यु- 1950) भारत की आज़ादी के लिये संघर्ष करने वाले क्रान्तिकारियों में से एक थे। अलीपुर पड़यन्त्र केस के प्रमुख पड़यन्त्रकारियों में उपेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय भी थे। उन्होंने अरविन्द घोष के 'वन्देमातरम्' पत्र में भी काम किया। इसके बाद वे 'युगान्तर' पत्र के सम्पादक हुए और इस पत्र के द्वारा उन्होंने ज्वलन्त क्रान्तिकारी भावों का प्रचार करना आरम्भ किया।
परिचय
उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय का जन्म सन् 1879 की 6 जून को चन्दन नगर में (चन्दर नगर) हुआ था। चन्दन नगर में फ्रांस का राज था। उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय के पिता रामनाथ बनर्जी वैष्णव थे और माता शाक्त थीं। सन 1897 में उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय का विवाह हुआ। 1906 में उनका ज्येष्ठ पुत्र मृपेन्द्र पैदा हुआ। उनकी स्त्री एक आदर्श हिन्दू महिला थीं, जो प्रियतम पति के निर्वासन-काल में एक संन्यासिनी की तरह रहती थीं।[1]
शिक्षा
उपेन्द्र बाबू ने चन्दन नगर में रहकर प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद ड्यूपले कालेज से एन्ट्रेन्स पास किया। फ्रेंच भाषा में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण उन्हें एक स्वर्ण पदक इनाम में मिला था। छात्रावस्था में वे बड़े ही चंचल थे और मास्टरों को तंग किया करते थे। सन 1898 से 1903 तक वे कलकत्ता (आधुनिक कोलकाता) के मेडिकल कालेज में डाक्टरी पढ़ते रहे। उन्होंने डफ कालेज में भी पढ़ाई की, उस समय वह विद्यार्थियों को केवल फ्रेच भाषा पढ़ा कर धनोपार्जन कर लेते थे। डफ कालेज से उन्हें बाइबिल की परीक्षा में छात्रवृत्ति भी मिली थी। बाइबिल के उत्तम विद्यार्थी होने पर भी उन्हें ईसाई धर्म से बड़ी घृणा थी और वे हिन्दुओं के बीच में ईसाई पादरियो के विरुद्ध व्याख्यान आदि दिया करते थे।
स्वामी विवेकानंद से प्रभावित
इसी समय उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय को स्वामी विवेकानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन करने का शौक हो गया। वे एक बार स्वामी विवेकानन्द से मिले भी थे और फिर उसके बाद स्वामी जी के मायावती (हिमालय) आश्रम में जाकर सन्यासी की तरह रहे, मगर और भी भाई जाकर उन्हें वहाँ से ले आये। इसके बाद उपेन्द्र बाबू चन्दन नगर लौटे और वहाँ के एक विद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे। साथ ही युवा विद्यार्थियों में राजद्रोह और क्रान्तिकारी विचार का प्रचार भी करने लगे। किन्तु नौ मास के बाद वे फिर घर से विदा हुए। उनके मित्र पंडित हषिकेश कांजीलाल साथ थे, जो बराबर उनके साथ रहे। वे पटना, बनारस, बरेली होते हुए फिर मायापुरी पहुचे और वहाँ शाखों का अध्ययन करने लगे।
क्रांतिकारी विचार व सम्पादन कार्य
फिर उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय का ध्यान मायावाद से हटकर कर्मवाद की ओर आया। वे एक सन्यासी के रूप में पंजाब का पर्यटन करने लगे। सन 1905 में वे लौटकर फिर अध्यापन-कार्य करने लगे, और विद्यार्थियों के दिमाग में क्रान्तिकारी भाव भरने लगे। एक वर्ष के बाद उन्होंने अध्यापन कार्य छोड़ दिया और अरविन्द के 'वन्देमातरम्' पत्र में काम करने लगे। इसके बाद वे 'युगान्तर' पत्र के सम्पादक हुए और इस पत्र के द्वारा उन्होंने ज्वलन्त क्रान्तिकारी भावों का प्रचार करना आरम्भ किया।[1]
भवानी मन्दिर
उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय ने 1905 में 'भवानी मन्दिर' नाम की पुस्तक लिखी थी, जिसमें देश की स्वतन्त्रता के लिये आपने जनता को शक्ति की देवी काली की उपासना करने के लिये ज़ोर दिया था। उपेन्द्रनाथ जी ने इसमें लिखा था कि इस कार्य में केवल ब्रह्मचारी युवकों को आगे बढ़ना चाहिये, जो अविवाहित रहकर त्यागी संन्यासियों की तरह सेवा-कार्य करें और काम पूरा होने पर, याने देश स्वतन्त्र होने पर वे विवाह करें।
कान्तिकारियों के लिये लिखा गया था कि वे सैनिक शिक्षा ग्रहण करें और वर्तमान रणनीति को अच्छी तरह जाने। वर्तमान रणनीति के लेखक अविनाशचन्द्र भट्टाचार्य को सन 1907 में अलीपुर बमकेस में सात वर्ष सपिरश्रम कारावास का दंड मिला था। इस पुस्तक में देश को स्वतन्त्र करने के लिये अंग्रेजों से युद्ध करना आवश्यक बताया गया है। इसी के साथ बम बनाने की भी एक पुस्तिका थी, जिसका क्रान्तिकारी लोग अध्ययन किया करते थे। बम्बई (आधुनिक मुम्बई) में देशभक्त वीर सावरकर और लाहौर में भाई परमानन्द के यहाँ तलाशी लेने पर मिली थीं।
कालापानी की सज़ा
सन 1908 में उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय, बारीन्द्र कुमार के साथ कलकत्ते के मानिकतल्ला बगीचे में पकड़े गये। स्वर्गीय देशबन्धु चित्तरंजन दास ने उनकी जैसी अच्छी पैरी की थी, वह सर्व-सिद्धि है। उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय को आजन्म कालेपानी का दंड मिला था। उन्होंने मजिस्ट्रेट के सामने जो महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया था, उसमें कहा था- मैंने ख्याल किया कि हिन्दुस्तान के कुछ लोग बिना धार्मिक भावों के कुछ न करेंगे, इसलिये मैंने साधुओं से सहायता लेनी चाही; पर वे काम न आये। इसके बाद मैं स्कूली लड़कों में क्रान्तिकारी भावों का प्रचार करने लगा। देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में गुप्त समितियाँ और शस्त्र आदि एकत्र करने का ध्यान हुआ। इसके बाद मैंने श्री वारीन्द्र, श्री उदलासकर और श्री हेम से भेंट की और इनके साथ काम करने लगा। हमारा उद्देश्य उच्च अधिकारियों को जैसे छोटे लाट मि. किंग्सफोर्ड आदि को मारने के लिये था।
हृषिकेश कांजीलाल ने 11 मई सन 1908 को मैजिट्रेट के सामने कहा था- "मैं स्कूल में अध्यापन करता हूँ। चन्दन नगर में उपेन्द्र ने मुझे "युगान्तर" पत्र की कई प्रतियाँ दिखायीं; जिन्हें पढ़कर मुझे मातृभूमि को स्वतन्त्र करने का ध्यान हुआ। मैं स्कुल में मास्टरी करते हुए नवयुवकों को यह बताना चाहता था कि अंग्रेजों ने इस देश को धोखेबाज़ी और कूटनीति से विजय किया है।[1]
बारह वर्ष तक कालेपानी का दण्ड भुगतने के बाद उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय 1920 के फरवरी मास में छूट कर आये। देश के लिये उन्होंने जो सेवाएँ और तपस्याएँ की हैं, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। इस बार वे 'नारायण' और 'बिजली' पत्रों में काम करने लगे। दार्शनिक विषयों की कई पुस्तके भी लिखीं। उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय ने अपनी 'द्वीपान्तरवास की कहानी' बहुत ही रोचक और मनोरंजक ढंग से लिखी है। वह कलाकरों के सुप्रसिद्ध इंग्लिश दैनिक पत्र 'अमृत बाज़ार पत्रिका' के सम्पादकीय विमाग में भी कुछ दिनों के लिये काम करते रहे और फिर इसके बाद अपना 'आत्मशक्ति' (बंगला) साप्ताहिक पत्र भी निकाला, जिसकी बंगाल भर में खूब स्याति हुई।
मृत्यु
क्रांतिकारी उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय की मृत्यु सन 1950 में हुई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 उपेन्द्रनाथ बंधोपाध्याय (हिंदी) epichindi.in। अभिगमन तिथि: 20 मार्च, 2022।
बाहरी कड़ियाँ
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- REDIRECTसाँचा:स्वतन्त्रता सेनानी