इल्बर्ट बिल

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इल्बर्ट बिल, वायसराय के क़ानून सदस्य, 'सर सी. पी. इल्बर्ट' ने 1883 ई. में पेश किया था। यह मुख्य रूप से अंग्रेज़ अपराधियों के मामलों पर भारत के जजों द्वारा सुनवाई से सम्बन्धित था। अंग्रेज़ों ने इस बिल का तीव्र विरोध किया, क्योंकि वे किसी भी भारतीय जज से अपने केस की सुनवाई नहीं चाहते थे। भारतीय जनता ने इस बिल का जोरदार स्वागत किया। अंग्रेज़ों के तीव्र विरोध के आगे अन्तत: सरकार को झुकना पड़ा और उसने इल्बर्ट बिल में संशोधन कर दिया।

इल्बर्ट बिल का उद्देश्य

इल्बर्ट बिल का उद्देश्य सरकारी अधिकारियों और भारतीय प्रजा के बीच जातीय भेदभाव दूर करना था। बिल में भारतीय जजों और मजिस्ट्रेटों को भी अंग्रेज़ अभियुक्तों के मामलों पर विचार करने के अधिकार का प्रस्ताव किया गया था। 1873 ई. के जाब्ता फ़ौजदारी के अंतर्गत अंग्रेज़ अभियुक्तों के मामलों में केवल अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट और जज ही विचार कर सकते थे। सिर्फ़ कलकत्ता, मद्रास और बम्बई के नगरों में भारतीय जज और मजिस्ट्रेट उनके मामलों पर विचार कर सकते थे।

अंग्रेज़ों का विरोध

यद्यपि कलकत्ता, मद्रास और बम्बई के नगरों में अंग्रेज़ अभियुक्तों के भारतीय मजिस्ट्रेटों तथा जजों के सामने उपस्थित किए जाने से उनका कोई अहित नहीं हुआ था, तथापि भारत में रहने वाले अंग्रेज़ों ने अल्बर्ट बिल के विरुद्ध एक तीव्र आन्दोलन छेड़ दिया। उन्होंने वायसराय लॉर्ड रिपन तक को अपमानित करने का प्रयास किया और उनका बहिष्कार शुरू कर दिया।

बिल में परिवर्तन

भारतीय जनमत ने अल्बर्ट बिल का ज़ोरदार समर्थन किया। परन्तु गोरों द्वारा आरम्भ किए गए अल्बर्ट बिल विरोधी आन्दोलन से इतना तहलका मचा कि सरकार को झुकना पड़ा और उसने अल्बर्ट बिल में परिवर्तन करके यह व्यवस्था कर दी कि किसी अंग्रेज़ अभियुक्त के भारतीय जज अथवा मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित किये जाने पर, वह माँग कर, सेशन जज के सामने मुक़दमा जूरी के द्वारा सुना जाए और जूरियों में कम से कम आधे अंग्रेज़ होंगे।

अंग्रेज़ों की जीत

इस प्रकार सरकार जिस जातीय भेदभाव को दूर करना चाहती थी, वह न केवल क़ायम रहा, बल्कि उसका विस्तार कोलकाता, मद्रास तथा बम्बई के नगरों में भी कर दिया गया। गोरों ने इसे अपनी बहुत बड़ी जीत माना।

भारतीयों की सोच परिवर्तन

इस आन्दोलन के बहुत महत्त्वपूर्ण परिणाम हुए। इससे भारतीयों के निकट स्पष्ट हो गया कि संगठन तथा सार्वजनिक आन्दोलन कितना फलदायी होता है। भारतीयों में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सरीखे लोगों ने इस आन्दोलन से काफ़ी सबक़ लिया। एक साल के अन्दर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में 'भारतीय राष्ट्रीय कोष' की स्थापना की गई तथा 1883 ई. में कलकत्ता में 'इंडियन नेशनल कान्फ़्रेंस' हुई, जिसमें भारत के सभी भागों से आये हुए प्रतिनिधियों ने भाग लिया। दो साल बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। यह जातीय द्वेष भाव से प्रेरित गोरों के उन्मत्तता पूर्ण आन्दोलन का भारतीय प्रत्युत्तर था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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