हेक्टर मुनरो

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हेक्टर मुनरो (अंग्रेज़ी: Hector Munro, जन्म- 1726 ई.; मृत्यु- 27 दिसंबर 1805) अंग्रेज़ सैनिक था, जिसे भारत में नौंवा सेनापति बनाकर भेजा गया था। भारतीय इतिहास के प्रसिद्ध युद्धों में से एक 'बक्सर का युद्ध' अंग्रेज़ी सेना ने सेनापति हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में ही लड़ा था।

युद्ध का कारण

1757 के प्लासी युद्ध में मीर क़ासिम की हार हुई और अंग्रेज़ों ने उसके स्थान पर मीर ज़ाफ़र को बिठा दिया। मीर ज़ाफ़र से अंग्रेज़ पैसा और सुविधाएँ इच्छानुसार प्राप्त करने लगे। उधर मीर क़ासिम पुनः बंगाल के बागडोर अपने हाथ में लेना चाहता था। इसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला, जो कि मुग़ल शासक शाहआलम का प्रधानमंत्री भी था, को अंग्रेजों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए तैयार किया। इसके लिए शुजाउद्दौला ने शाहआलम की ओर से एक धमकी भरी चिट्ठी अंग्रेजों को भेजी। इस चिट्ठी में आरोप लगाया गया था कि अंग्रेज़ उनको दी गई सुविधाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं और बंगाल का आर्थिक दोहन कर रहे हैं। अंग्रेजों की ओर से इस मामले में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। अंततः शुजाउद्दौला और मीर क़ासिम ने धैर्य खो दिया और अप्रैल 1764 में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।[1]

हेक्टर की योजना

इस बीच अंग्रेज़ी सेना के प्रधान के बदले मेजर हेक्टर मुनरो को अंग्रेजों ने सेनापति नियुक्त कर पटना भेजा। मुनरो जुलाई, 1764 ई. में पटना पहुँचा। उसे भय था कि देर होने पर मराठों और अफ़गानों का सहयोग पाकर शुजाउद्दौला अंग्रेजों को पराजित कर सकता है। इसलिए मुनरो ने जल्द युद्ध का निर्णय लिया। मुनरो के आगमन के बाद कुछ भारतीय सैनिकों ने विद्रोह किया, जिसे मुनरो ने शांत कर दिया और सभी विद्रोहियों को तोप से उड़ा दिया। मुनरो ने रोहतास के किलेदार साहूमल को प्रलोभन देकर अपने पक्ष में मिला लिया और रोहतास पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

बक्सर का युद्ध

हेक्टर मुनरो सोन नदी पार कर बक्सर पहुँचा। 23 अक्टूबर, 1764 ई. को अंग्रेज़ और तथाकथित तीन शक्तियों की सम्मिलित सेना के बीच युद्ध प्रारम्भ हुआ। शुजाउद्दौला ने प्रतिदिन सैनिक खर्च के नाम पर मीर क़ासिम से 11 लाख रुपये की माँग की, परन्तु उतनी रकम पूरी नहीं करने पर वह मीर क़ासिम से असंतुष्ट हो गया। शुजाउद्दौला ने मीर क़ासिम की सारी संपत्ति छीन ली। वह खुद बिहार पर अधिकार चाहता था। दूसरी तरफ सम्राट शाहआलम के पास अपनी कोई सेना नहीं थी। वह स्वयं दिल्ली की गद्दी पाने के लिए सहायता का इच्छुक था और अंग्रेजों का आश्वासन पाकर युद्ध के प्रति उदासीन हो चुका था। ऐसी परिस्थिति में बक्सर का युद्ध प्रातः 9 बजे से आरम्भ हुआ और दोपहर 12 बजे के पहले ही समाप्त हो गया। युद्ध में भयंकर गोलाबारी हुई। शुजाउद्दौला की सेना मात्र भीड़ के सामान थी। अंग्रेज़ी तोपों के सामने अवध की घुड़सवार फ़ौज कोई काम न आ सकी। विजय अंग्रेजों की हुई। दोनों पक्षों की ओर से काफी सेना हताहत हुई, पर नवाब की सेना में मरने वालों की संख्या काफी अधिक थी। शुजाउद्दौला को अपनी सेना पीछे हटा लेनी पड़ी।

संधि

बक्सर के युद्ध में मिली पराजय के बाद सम्राट शाहआलम ने अंग्रेज़ी सेना के साथ डेरा डाला। अंग्रेजों ने बादशाह का स्वागत किया और शुजाउद्दौला के दीवान राजा बेनीबहादुर के जरिये शुजाउद्दौला से संधि करनी चाही; पर शुजाउद्दौला ने संधि की बात अस्वीकार कर दी। इसलिए नवाब शुजाउद्दौला और अंग्रेजों के बीच चुनार और कड़ा (इलाहाबाद) के पास लड़ाइयाँ हुईं। युद्ध में हार मिलने पर शुजाउद्दौला को अंग्रेजों के साथ संधि करनी पड़ी। अंग्रेजों और शुजाउद्दौला के बीच संधि करने में राजा सिताबराय की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण थी।
शुजाउद्दौला को 60 लाख रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में अंग्रेजों को देने पड़े। इलाहबाद का किला और कड़ा का क्षेत्र [[मुग़]ल] बादशाह शाहआलम के लिए छोड़ देने पड़े। गाजीपुर और पड़ोस का क्षेत्र अंग्रेजों को देना पड़ा। एक अंग्रेज़ वकील को अवध के दरबार में रहने की आज्ञा दी गई और दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के शत्रु को अपना शत्रु समझने का आश्वासन दिया। मीर क़ासिम का सपना चकनाचूर हो गया। सम्पत्ति छीन लिए जाने के साथ-साथ शुजाउद्दौला ने उसे अपमानित भी किया। मीर क़ासिम दिल्ली चला गया, जहाँ शरणार्थी के रूप में अपना शेष जीवन अत्यंत कठनाई में व्यतीत किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बक्सर का युद्ध (हिंदी) sansarlochan.in। अभिगमन तिथि: 24 फरवरी, 2020।

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