अम्बरीष: Difference between revisions

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भक्तवर अम्बरीष [[वैवस्वत मनु]] के पौत्र महाराज [[नाभाग]] के पुत्र थे।  
[[भगीरथ]] के प्रपौत्र, [[वैवस्वत मनु]] के पौत्र और [[नाभाग]] के पुत्र इक्ष्वाकुवंशी परमवीर राजा अंबरीष की कथा [[रामायण]], [[महाभारत]] और [[पुराण|पुराणों]] में विस्तार से वर्णित है। उन्होंने दस हज़ार राजाओं को पराजित करके ख्याति अर्जित की थी। वे [[विष्णु]] भक्त थे और अपना अधिकांश समय धार्मिक अनुष्ठानों में लगाते थे।  
==कथाऐं==
====प्रथम कथा====
एक बार राजा ने व्रत रखा था। व्रत के पारण से कुछ ही पहले [[दुर्वासा ऋषि]] उनके यहाँ पहुँचे। राजा ने ऋषि को आमंत्रित किया। आमंत्रण स्वीकार करके ऋषि नित्यकर्म के लिए नदी तट पर चले गए और बहुत देर तक नहीं लौटे। जब व्रत पारण का समय बीतने लगा तो विद्वानों के परामर्श पर राजा ने जल ग्रहण कर लिया। लौटने पर जब दुर्वासा ने देखा कि अंबरीष ने उनकी प्रतीक्षा किए बिना ही जल ग्रहण कर लिया है तो वे कुपित हो उठे। उन्होंने अपनी जटा का एक बाल तोड़कर भूमि पर पटका, जो कृत्या बनकर तलवार हाथ में लिए राजा पर झपटी। उसी समय विष्णु का सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ और कृत्या को नष्ट करके दुर्वासा के पीछे लग गया। ऋषि अपने प्राणों की रक्षा के लिए [[ब्रह्मा]], [[शिव]] और अन्त में विष्णु के पास गए, पर किसी ने भी उन्हें शरण नहीं दी। अन्त में विष्णु के परामर्श पर ऋषि को अंबरीष की शरण में जाना पड़ा और इस प्रकार उन्हें मुक्ति मिली। कुछ विद्वानों का मत है कि इस कथा का मुख्य उद्देश्य विष्णु की महत्ता को श्रेष्ठ सिद्ध करना है।
==द्वितीय कथा==
अंबरीष की सुंदरी नामक एक सर्वगुण सम्पन्न कन्या थी। एक बार [[नारद]] और पर्वत दोनों उस पर मोहित हो गए। वे सहायता के लिए विष्णु के पास गए और दोनों ने उनसे एक-दूसरे को वानरमुख बना देने की प्रार्थना की। विष्णु ने दोनों की बात मानकर दोनों का मुख वानर का बना दिया। सुन्दरी दोनों के मुख देखकर भयभीत हो गई, किन्तु बाद में उसने देखा कि दोनों के बीच में विष्णु विराजमान हैं। अत: उसने वरमाला उन्हीं के गले में डाल दी।
==तृतीय कथा==
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार अंबरीष के यज्ञ-पशु को [[इन्द्र]] ने चुरा लिया। इस पर ब्राह्मणों ने राय दी कि इस दोष का निवारण मानव बलि से ही हो सकता है। तब राजा ने ऋषि ऋचीक को बहुत-सा धन देकर उनके पुत्र शुन:शेप को यज्ञ-पशु के रूप में ख़रीद लिया। अन्त में [[विश्वामित्र]] की सहायता से शुन:शेप के प्राणों की रक्षा हुई।


 
{{प्रचार}}
श्री [[दुर्वासा]] ने तपोबल से जान लिया था कि कालिन्दी-कुल से मेरे आने के पूर्व ही इन्होंने श्री [[विष्णु|हरि]] का चरणामृत ले लिया है। द्वादशी केवल एक घण्टा शेष थीं। वर्षभर का [[एकादशी]] व्रत आज सविधि पूर्ण हुआ था। वस्त्राभूषणों से सुसज्जित अनेकों गायें दान दी गयी थीं और सादर ब्राह्मण-भोजन कराया गया था। पारण-विधि की रक्षा के लिये अम्बरीष ने यह व्यवस्था ली थी, पर ऋषि क्रोधित हो गये:
{{लेख प्रगति
 
|आधार=
'धनोन्मत्त अम्बरीष! तुमने मेरा अनादर किया है। तू श्री[[विष्णु]] का भक्त नहीं। तू महा अभिमानी और [[धृष्ट]] है। आमन्त्रण देकर अनादृत करने का दण्ड दिये बिना मैं मनहीं रह सकूँगां'
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1
|माध्यमिक=
ऋषि ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर पृथ्वी पर पटक दिया। महाभयानक कृत्या हाथ में तीक्ष्ण खड़ग लिये उत्पन्न हो गयी। वह अम्बरीष पर झपटी ही थी कि तेजोमय चक्र चमक उठा, कृत्या वहीं राख हो गयीं ऋषि प्राण लेकर दौड़े, पर वह तीव्र प्रकाशपुंज उनके पीछे पड़ गया था। दसों दिशाओं और चतुर्दश भुवनों में ऋषि घूमते-घूमते थक गये, पर कहीं आश्रय नहीं मिला और वह [[सुदर्शन चक्र]] उनके प्राण की क्षुधा लिये आतुरता से पीछे लगा था। श्रीविष्णु के चरणों में प्रणिपात करते ही उत्तर मिला,
|पूर्णता=
 
|शोध=
'मैं विवश हूँ, महामुने! अपनी रक्षा चाहते हैं तो आप अम्बरीष से ही क्षमा माँगें। वे ही आपको शान्ति दे सकते हैं।'
}}
 
अम्बरीष ने रोते हुए प्रार्थना की:
 
'समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभु मुझ पर सन्तुष्ट हों तो ऋषि का संकट दूर हो।'
 
ब्राह्मण को अपना पैर स्पर्श करते देखकर वे काँप उठे थे। अत्यन्त दु:ख से एक वर्ष से वे केवल जल पर जीवन चला रहे थे। ऋषि के पीछे सुदर्शन-चक्र को लगे इतना समय हो गया था।
सुदर्शन के अदृश्य होने पर ऋषि के मुँह से निकल पड़ा:
 
'भगवान के भक्तों का स्वरूप मैंने अब समझा!' वे काँटों पर सोकर भी दूसरे के लिये सुमन-शय्या प्रस्तुत कर देते हैं। दूसरे का सुख ही उनका अपना सुख है।'
 
ऋषि की आँखें गीली हो गयी थीं और श्रीअम्बरीष का मस्तक उनके चरणों पर था।
 
 
 
[[Category:कथा_साहित्य_कोश]]
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[[Category:पौराणिक_कोश]]
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Revision as of 10:42, 7 April 2011

भगीरथ के प्रपौत्र, वैवस्वत मनु के पौत्र और नाभाग के पुत्र इक्ष्वाकुवंशी परमवीर राजा अंबरीष की कथा रामायण, महाभारत और पुराणों में विस्तार से वर्णित है। उन्होंने दस हज़ार राजाओं को पराजित करके ख्याति अर्जित की थी। वे विष्णु भक्त थे और अपना अधिकांश समय धार्मिक अनुष्ठानों में लगाते थे।

कथाऐं

प्रथम कथा

एक बार राजा ने व्रत रखा था। व्रत के पारण से कुछ ही पहले दुर्वासा ऋषि उनके यहाँ पहुँचे। राजा ने ऋषि को आमंत्रित किया। आमंत्रण स्वीकार करके ऋषि नित्यकर्म के लिए नदी तट पर चले गए और बहुत देर तक नहीं लौटे। जब व्रत पारण का समय बीतने लगा तो विद्वानों के परामर्श पर राजा ने जल ग्रहण कर लिया। लौटने पर जब दुर्वासा ने देखा कि अंबरीष ने उनकी प्रतीक्षा किए बिना ही जल ग्रहण कर लिया है तो वे कुपित हो उठे। उन्होंने अपनी जटा का एक बाल तोड़कर भूमि पर पटका, जो कृत्या बनकर तलवार हाथ में लिए राजा पर झपटी। उसी समय विष्णु का सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ और कृत्या को नष्ट करके दुर्वासा के पीछे लग गया। ऋषि अपने प्राणों की रक्षा के लिए ब्रह्मा, शिव और अन्त में विष्णु के पास गए, पर किसी ने भी उन्हें शरण नहीं दी। अन्त में विष्णु के परामर्श पर ऋषि को अंबरीष की शरण में जाना पड़ा और इस प्रकार उन्हें मुक्ति मिली। कुछ विद्वानों का मत है कि इस कथा का मुख्य उद्देश्य विष्णु की महत्ता को श्रेष्ठ सिद्ध करना है।

द्वितीय कथा

अंबरीष की सुंदरी नामक एक सर्वगुण सम्पन्न कन्या थी। एक बार नारद और पर्वत दोनों उस पर मोहित हो गए। वे सहायता के लिए विष्णु के पास गए और दोनों ने उनसे एक-दूसरे को वानरमुख बना देने की प्रार्थना की। विष्णु ने दोनों की बात मानकर दोनों का मुख वानर का बना दिया। सुन्दरी दोनों के मुख देखकर भयभीत हो गई, किन्तु बाद में उसने देखा कि दोनों के बीच में विष्णु विराजमान हैं। अत: उसने वरमाला उन्हीं के गले में डाल दी।

तृतीय कथा

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार अंबरीष के यज्ञ-पशु को इन्द्र ने चुरा लिया। इस पर ब्राह्मणों ने राय दी कि इस दोष का निवारण मानव बलि से ही हो सकता है। तब राजा ने ऋषि ऋचीक को बहुत-सा धन देकर उनके पुत्र शुन:शेप को यज्ञ-पशु के रूप में ख़रीद लिया। अन्त में विश्वामित्र की सहायता से शुन:शेप के प्राणों की रक्षा हुई।


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