अपवर्ग -न्याय दर्शन: Difference between revisions
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[[न्याय दर्शन]] में | [[न्याय दर्शन]] में बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।<ref>न्यायसूत्र 1/1/22</ref> सुषुप्तिकाल में तथा प्रलय आदि में जो दु:ख की सामयिक निवृत्ति होती है, वह आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति नहीं है। जिस दु:ख की निवृत्ति के बाद पुन: कदापि जन्म नहीं हो अर्थात् दु:खोत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति है। इस अपवर्ग की प्राप्ति के उपाय न्यायदर्शन के द्वितीय सूत्र में वर्णित हैं। तत्त्वज्ञान के उदय से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है और मिथ्याज्ञान के अभाव में रागद्वेषात्मिका प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रवृत्ति के अभाव में इस संसार में किसी का जन्म नहीं होता है और जब जन्म ही नहीं होगा तो दु:खों का भोग वहाँ कैसे किसको होगा। इस तरह तत्त्वज्ञान की प्रक्रिया से अपवर्ग का लाभ होता है। यहाँ इसके उपसंहार में इतना कहना आवश्यक है कि इन बारह प्रमेयों में हेय और उपादेय का भी विचार किया गया है। शरीर आदि दु:खपर्यन्त दश प्रमेय हेय अर्थात् त्याज्य हैं। प्रथम और अन्तिम अर्थात् आत्मा और अपवर्ग उपादेय (ग्रहण करने योग्य) हैं। आत्मा का न तो उच्छेद संभव है और न तो उसका उच्छेद किसी का काम्य हो सकता है। अतएव वह उपादेय है। अपवर्ग तो आत्मा का परम तथा चरम लक्ष्य है, क्योंकि वही चिरस्थायी होता है, वह तो उपादेय है ही। दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय होने से अवश्य हेय है। | ||
Revision as of 11:41, 22 August 2011
न्याय दर्शन में बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।[1] सुषुप्तिकाल में तथा प्रलय आदि में जो दु:ख की सामयिक निवृत्ति होती है, वह आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति नहीं है। जिस दु:ख की निवृत्ति के बाद पुन: कदापि जन्म नहीं हो अर्थात् दु:खोत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति है। इस अपवर्ग की प्राप्ति के उपाय न्यायदर्शन के द्वितीय सूत्र में वर्णित हैं। तत्त्वज्ञान के उदय से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है और मिथ्याज्ञान के अभाव में रागद्वेषात्मिका प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रवृत्ति के अभाव में इस संसार में किसी का जन्म नहीं होता है और जब जन्म ही नहीं होगा तो दु:खों का भोग वहाँ कैसे किसको होगा। इस तरह तत्त्वज्ञान की प्रक्रिया से अपवर्ग का लाभ होता है। यहाँ इसके उपसंहार में इतना कहना आवश्यक है कि इन बारह प्रमेयों में हेय और उपादेय का भी विचार किया गया है। शरीर आदि दु:खपर्यन्त दश प्रमेय हेय अर्थात् त्याज्य हैं। प्रथम और अन्तिम अर्थात् आत्मा और अपवर्ग उपादेय (ग्रहण करने योग्य) हैं। आत्मा का न तो उच्छेद संभव है और न तो उसका उच्छेद किसी का काम्य हो सकता है। अतएव वह उपादेय है। अपवर्ग तो आत्मा का परम तथा चरम लक्ष्य है, क्योंकि वही चिरस्थायी होता है, वह तो उपादेय है ही। दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय होने से अवश्य हेय है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न्यायसूत्र 1/1/22