ज्योति बसु: Difference between revisions
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ज्योति बसु
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पूरा नाम | ज्योतिंद्र नाथ बसु |
जन्म | 8 जुलाई, 1914 |
जन्म भूमि | कलकत्ता |
मृत्यु | 17 जनवरी, 2010 |
मृत्यु स्थान | कोलकाता |
नागरिकता | भारतीय |
पार्टी | भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) |
पद | लगातार 23 वर्ष पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री |
कार्य काल | 21 जून, 1977- 6 नवंबर, 2000 |
बाहरी कड़ियाँ | ज्योति बसु |
ज्योति बसु अथवा ज्योतिंद्र नाथ बसु (जन्म- 8 जुलाई, 1914 कलकत्ता - मृत्यु- 17 जनवरी, 2010 कोलकाता) जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अग्रणी नेताओं में से एक थे, जिन्होंने पश्चिम बंगाल में 23 वर्ष तक लगातार मुख्यमंत्री रहकर संसदीय राजनीति में विशेष ख्याति पायी। ज्योति बसु के विरोधी हों या समर्थक उन्हें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद सबसे बड़ा नेता मानते हैं। भारत में कम्युनिस्ट राजनीति को स्थापित करने वालों में से बसु एक रहे ।
जीवन परिचय
ज्योति बसु का जन्म पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश में) के एक समृद्ध मध्यवर्गीय परिवार में 8 जुलाई, 1914 को हुआ था। उन्होंने कलकत्ता के एक कैथोलिक स्कूल और सेंट जेविर्यस कॉलेज़ से पढ़ाई की। वकालत की पढ़ाई बसु ने लंदन में की। रजनी पाम दत्त जैसे कम्युनिस्ट नेताओं से संबंधों के चलते उन्होंने 1930 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की सदस्यता ले ली।[1] ज्योति बसु कितने पुराने हैं यह इसी से जाना जा सकता है कि वे कुख्यात जलियाँवाला बाग़ कांड के पांच साल पहले पैदा हुए थे। उन्होंने भारत में लगातार किसी भी राज्य का सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड भी बनाया है। 1977 से 2000 तक वे बंगाल के मुख्यमंत्री रहे और 1964 में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनी थी तो उसके पोलित ब्यूरो में थे और 2008 में स्वास्थ के कारण इस्तीफा दिया। ज्योति बसु का पूरा नाम ज्योतिंद्र नाथ बसु है। पिता जी बांग्लादेश के बरोदी गांव ढाका ज़िला से आए थे और डॉक्टर थे। सेंट जेवियर्स और प्रेसिडेंसी कॉलेज से 1935 में ग्रेजुएट हुए जब आज के महारथी मार्क्सवादी नेताओं में से ज़्यादातर पैदा भी नहीं हुए थे। फिर इंग्लैंड गए और बैरिस्टर बन गए। बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाने वाले भूपेश गुप्ता उस समय ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे और उन्होंने ही ज्योति बसु को कॉमरेड बनाया। वकालत की पढ़ाई कर के भारत 1940 में लौटे ज्योति बसु भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के फुल टाइम कॉमरेड हो गए और सबसे पहले मजदूर संगठन चलाए। [2]
राजनीतिक परिचय
ज्योति बसु रेल कर्मचारियों के आंदोलन में शामिल होने के बाद पहली बार में वे चर्चा में आए और 1957 में पश्चिम बंगाल विधानसभा में वे विपक्ष के नेता चुने गए। 1967 में बनी वाम मोर्चे के प्रभुत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में ज्योति बसु को गृहमंत्री बनाया गया लेकिन नक्सलवादी आंदोलन के चलते राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और वह सरकार गिर गई। इसके बाद 1977 के चुनाव में जब वाम मोर्चा को विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिला तो ज्योति बसु मुख्यमंत्री पद के सर्वमान्य उम्मीदवार के तैर पर उभरे । ज्योति बसु के राजनीतिक करियर पर बहुत क़रीब से निगाह रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक और अंग्रेज़ी अख़बार 'टेलीग्राफ़' के राजनीतिक संपादक आशीष चक्रवर्ती कहते हैं, बसु कम्युनिस्ट कम और व्यवहारिक अधिक दिखते थे, एक सामाजिक प्रजातांत्रिक। लेकिन उनकी सफलता यह संकेत देती है कि सामाजिक लोकतंत्र का तो भविष्य है लेकिन साम्यवाद का अब और नहीं।[1]
ऐतिहासिक मुख्यमंत्री
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ज्योति बसु ने लगातार 23 साल तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप में काम किया। ज्योति बसु की सरकार ने राज्य में कई उपलब्धियाँ दर्ज कीं जिनमें प्रमुख है नक्सलवादी आंदोलन से बंगाल में पैदा हुई अस्थिरता को राजनीतिक स्थिरता में बदलना। उनकी सरकार का एक और उल्लेखनीय काम है भूमि सुधार, जो दूसरे राज्यों के किसानों के लिए आज भी एक सपना है। ज्योति बसु की सरकार ने जमींदारों और सरकारी कब्ज़े वाली ज़मीनों का मालिक़ाना हक़ क़रीब 10 लाख भूमिहीन किसानों को दे दिया। इस सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों की ग़रीबी दूर करने में भी काफ़ी हद तक सफलता पाई। सफलता के झंडे गाड़ने वाली बसु सरकार की कुछ कमियाँ भी रहीं। जैसे कि वह बार-बार हड़ताल करने वाली ट्रेड यूनियनों पर कोई लगाम नहीं लगा पाई, उद्योगों में जान नहीं फूंक पाई और विदेशी निवेश नहीं आकर्षित कर पाई। वहीं ज्योति बसु की यह सरकार कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की सरकारों की तरह तकनीकी रूप से दक्ष लोगों का उपयोग कर राज्य में सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग भी नहीं खड़ा कर पाई।[1]
निधन
देश में सबसे लंबे समय तक किसी राज्य का मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल करने वाले ज्योति बसु ने 17 जनवरी, 2010 को कोलकाता के एक अस्पताल में अंतिम सांस लीं। भारतीय राजनीतिक समाज नक्सलवादी विद्रोह में उनकी भूमिका को और संसदीय राजनीति में मार्क्सवाद के अंगद के रूप में हमेशा याद रखेगा क्योंकि उनके कामों और व्यक्तित्व की तारीफ करें या आलोचना इन दोनों भूमिकाओं का ज़िक्र किये बगैर बात पूरी नहीं हो पायेगी।
‘जब कभी भी लौटकर उन राहों से गुजरेंगे हम
जीत के ये गीत कई-कई बार फिर हम गायेंगे
भूल कैसे पायेंगे मिट्टी तुम्हारी साथियों
जर्रे-जर्रे में तुम्हारी ही समाधि पायेंगे।’[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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