अजय कुमार मुखर्जी

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अजय कुमार मुखर्जी
पूरा नाम अजय कुमार मुखर्जी
जन्म 15 अप्रॅल, 1901
जन्म भूमि तामलुक, बंगाल प्रेसिडेंसी
मृत्यु 27 मई, 1986
मृत्यु स्थान कोलकाता, पश्चिम बंगाल
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि राजनीतिक
पार्टी बांग्ला कांग्रेस
पद भूतपूर्व मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल
कार्य काल प्रथम-1 मार्च, 1967 से 21 नवंबर, 1967 तक

द्वितीय-25 फ़रवरी, 1969 से 16 मार्च, 1970 तक
तृतीय-2 अप्रॅल, 1971 से 25 जून, 1971 तक

अन्य जानकारी अजय कुमार मुखर्जी पहले कांग्रेस में थे। लेकिन 1966 में कांग्रेस में फूट पड़ी और पार्टी के दो फाड़ हो गए। इंडियन नैशनल कांग्रेस से कटकर अलग पार्टी बनी। नाम पड़ा- बांग्ला कांग्रेस।

अजय कुमार मुखर्जी अथवा 'अजॉय कुमार मुखर्जी' (अंग्रेज़ी: Ajoy Kumar Mukherjee, जन्म- 15 अप्रॅल, 1901; मृत्यु- 27 मई, 1986) पश्चिम बंगाल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री थे। उन्हें तीन बार प्रदेश का मुखिया बनने का गौरव प्राप्त हुआ। वह 1 मार्च, 1967 से 21 नवंबर, 1967 तक, इसके बाद 25 फ़रवरी, 1969 से 16 मार्च, 1970 तक और फिर 2 अप्रॅल, 1971 से 25 जून, 1971 तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे।

कांग्रेस में फूट

अजय कुमार मुखर्जी पहले कांग्रेस में थे। लेकिन 1966 में कांग्रेस में फूट पड़ी और पार्टी के दो फाड़ हो गए। इंडियन नैशनल कांग्रेस से कटकर अलग पार्टी बनी। नाम पड़ा- बांग्ला कांग्रेस। बंगाल की थी, तो बांग्ला नाम चुना। ये वो दौर था, जब बंगाल की राजनीति में चीजें हमेशा-हमेशा के लिए बदलने वाली थीं। मार-काट, हिंसा, राजनैतिक विरोध-हत्या। इन सबकी शुरुआत बस अगले ही मोड़ पर थी। ऐसे में आया 1967 का साल। चुनाव हुए और कांग्रेस को बहुमत नहीं मिल पाया। 280 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस को मिली 127 सीटें। सीपीआई के पास आईं 16 सीटें और सीएमपी (एम) के हिस्से में 44 सीटें। बंगाल की राजनीति में कई खिलाड़ी थे। कई कांग्रेस विरोधी थे। मगर विचारधाराएं अलग-अलग थीं। लेकिन कांग्रेस का विरोध इतने जोर पर था कि ये पार्टियां कांग्रेस को किसी भी कीमत पर सत्ता से दूर रखना चाहती थीं तो उन्होंने मिली-जुली सरकार बनाई।[1]

सरकार का अल्पमत में आना

बांग्ला कांग्रेस यानी अजय मुखर्जी की पार्टी भी इस गठबंधन में थी। मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला अजय मुखर्जी को। 2 मार्च, 1967 इस तारीख को अजय मुखर्जी सीएम बने। मगर चीजें ज्यादा दिन तक ठीक नहीं रही। अजय मुखर्जी का अपनी सहयोगी पार्टियों से मनमुटाव होने लगा। कई मुद्दे थे आपसी विरोध के। जैसे- खेती, खाद्य योजनाएं। इन बातों पर अजय मुखर्जी की राय गठबंधन के अपने सहयोगियों से मेल नहीं खाती थीं। उधर कम्युनिस्ट पार्टियों ने क्या किया था कि सरकार के अहम विभाग अपने पास रख लिए थे। अब ऐसे में अजय मुखर्जी को लगा कि कांग्रेस से मदद ले लूं। लेकिन इससे पहले कि वो कुछ कर पाते, तभी घटना घट गई। सरकार में पी सी घोष थे। वो राज्यपाल के पास गये। राज्यपाल धर्मवीर थे। उन्होंने राज्यपाल से ये भी कहा कि अजय मुखर्जी की सरकार अब अल्पमत में आ गई है। क्योंकि 17 और लोगों ने भी उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। उधर कांग्रेस भी राज्यपाल के पास गई। वह पी. सी. घोष को समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी।

सरकार की बर्खास्तगी

राज्यपाल ने अजय मुखर्जी को अल्टीमेटम दे दिया। कहा, विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर बहुमत साबित करो। उधर अजय मुखर्जी विशेष सत्र बुलाने में देर कर रहे थे। ऐसे में राज्यपाल ने उनकी सरकार को ही बर्खास्त कर दिया। इससे अजय मुखर्जी के समर्थक बौखला गए। उन्होंने राज्यपाल के खिलाफ विरोध शुरू कर दिया। हिंसा भी की। राज्य में जगह-जगह हिंसक जुलूस निकाले। उधर राज्यपाल ने पी सी घोष को मुख्यमंत्री बना दिया। 29 नवंबर को विधानसभा सत्र शुरू हुआ और क्या हंगामा हुआ असेंबली में। विधानसभा के स्पीकर थे बिजय कुमार बैनर्जी। उन्होंने कहा कि विधानसभा का सत्र ही नहीं चलेगा। क्योंकि अजय मुखर्जी की सरकार को असंवैधानिक तरीके से हटाया गया है। उन्होंने घोष सरकार को भी असंवैधानिक कह दिया। ये सब कहकर उन्होंने अनिश्चित काल के लिए विधानसभा स्थगित की और वहां से निकल लिए।[1]

राज्यपाल के खिलाफ आंदोलन

इसके बाद बंगाल में अजीब सा हाल था। कुछ तय नहीं लग रहा था। पूरी बदहवासी थी। अजय मुखर्जी ने खुद को बर्खास्त किए जाने का विरोध करते हुए राज्यपाल के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। धरने से शुरुआत हुई और चीजें हिंसा की तरफ मुड़ गईं। बसें जलीं। ट्राम जलाए गए। पुलिस पर बम फेंके गए। खूब आगजनी हुई। लेफ्ट पार्टियों ने भी खुलकर गदर काटा। खूब हिंसा की। फ़रवरी 1968 में बजट पेश होने का वक्त आया। राज्यपाल खुद विधानसभा पहुंचे। बजट सत्र को संबोधित करने। फिर वहां खूब हंगामा हुआ। यूनाइटेड फ्रंट के लोगों ने उन्हें पहले तो विधानसभा में घुसने ही नहीं दिया। रास्ता रोककर खड़े हो गए। मजबूरी में राज्यपाल पिछले दरवाजे से अंदर आए। लेकिन तब तक प्रदर्शनकारी नेताओं ने उनकी कुर्सी क़ब्ज़ा ली थी। इतने पर भी राज्यपाल ने भाषण देने की कोशिश की। लेकिन उन्हें ऐसा करने नहीं दिया गया। प्रदर्शनकारियों ने उन्हें विधानसभा से भगाकर ही दम लिया। इसके बाद ही केंद्र ने विधानसभा भंग करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया।

दोबारा मुख्यमंत्री

फ़रवरी 1969 में राष्ट्रपति शासन खत्म हुआ तो चुनाव हुए। किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। मगर सीपीआई (एम) की हालत सुधरी थी। उसको 80 सीटें मिलीं। सीपीआई के हिस्से में 30 सीटें आईं। मगर सरकार बनाने को अकेले कोई कुछ करने की हालत में नहीं था। सो एक बार फिर वही जोड़-तोड़ शुरू हुई। सबसे बड़ी पार्टी तो सीपीआई (एम) थी, लेकिन ज्यादातर नेता ज्योति बसु को मुख्यमंत्री बनाए जाने के विरोध में थे। बहुत माथापच्ची और बहस के बाद अजय मुखर्जी का नाम मुख्यमंत्री के लिए फाइनल हुआ। सीपीएम ने गृह विभाग अपने पास रखा।

इस दौर में पश्चिम बंगाल के अंदर कई तरह का संघर्ष था। एक- राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच। कांग्रेस कहती थी कि बंगाल में कानून-व्यवस्था की हालत खराब है। दूसरी तरफ बंगाल में अपने घटते जनाधार से भी उसका पसीना छूट रहा था। राज्यपाल पर केंद्र के हाथों का मोहरा बनने के इल्जाम लगते थे। विधानसभा सत्र में हो-हंगामा आम था। एक बार तो ये हालत आ गई कि राज्यपाल असेंबली सेशन की शुरुआत में संबोधन देने आए। जैसी कि परंपरा है। लेकिन इतना विरोध हुआ उनका कि उन्हें पुलिस सुरक्षा में वहां से भागना पड़ा। दूसरी बात ये थी कि गठबंधन सरकार में शामिल दलों की भी पट नहीं रही थी। अजय मुखर्जी भले सीएम हों, लेकिन असली ताकत सीपीएम के पास थी।[1]

कारखानों में घेराव

कोलकाता और इसके आस-पास के कारखानों के मजदूरों ने नई स्ट्रेटजी अपनाई। वेतन बढ़ाने जैसी मांग लेकर वो आए दिन अपने मैनेजरों का घेराव करने लगे। पहले जब भी ऐसी हालत होती, तो मैनेजमेंट पुलिस को बुला लेता था। मगर अब जो सरकार थी, उसका कहना था कि अगर मजदूर काम करना रोक दें, तो इसकी शिकायत पहले श्रम मंत्री से करनी होगी। ये विभाग सीपीएम के पास था और सीपीएम की पैठ लेबर यूनियन्स में थी। गृह विभाग भी सीपीएम ने अपने ही पास रखा था। ऐसे में राज्य में हालत ये हो गई कि कारखानों में काम कम और घेराव ज्यादा होने लगे। इतने ज्यादा कि सरकार के शुरुआत छह महीनों के अंदर 1200 से ज्यादा घेराव हुए।

सत्याग्रह

इन सबके बीच सबसे खराब हालत शायद अजय मुखर्जी की ही थी। क्योंकि वो मुख्यमंत्री थे। राज्य में कानून-व्यवस्था और बाकी तमाम चीजों की जवाबदेही उनकी ही तो बनती थी। अजय मुखर्जी को और ज्यादा गुस्सा इसलिए था कि उन्हें पता था कि ये सब सीपीएम का किया-कराया है। यानी, गठबंधन सरकार के उनके अपने सहयोगी का। अजय मुखर्जी लाचार थे। उनके हाथ में जैसे कुछ नहीं था। सो उन्होंने सत्याग्रह शुरू कर दिया। अपनी ही सरकार के खिलाफ। बंगाल का दौरा किया। जिलों में गए। दौरे किए। भाषण दिए। अपने ही पार्टनर सीपीएम के खिलाफ बोले।

दक्षिण कोलकाता में एक कर्जन पार्क है। यहां अजय मुखर्जी ने अपना अड्डा जमाया। भूख हड़ताल पर बैठ गए। अपनी ही सरकार के खिलाफ। अपनी ही सरकार के कामकाज के खिलाफ। अपनी ही सरकार की हरकतों के खिलाफ। ये कैसी विचित्र स्थिति थी कि एक मुख्यमंत्री भूख हड़ताल पर बैठा है। इसलिए कि उसकी सरकार कानून-व्यवस्था नहीं बनाकर रख पा रही है कि उसकी अपनी सरकार प्रदेश में शांति बनाकर रखने में नाकाम साबित हुई है। अजय मुखर्जी की ये अनोखी भूख-हड़ताल 72 घंटे चली। फिर क्या हुआ? राज्य में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लग गया। 1971 में फिर से चुनाव हुए और सीपीएम और बड़ी हो गई। फिर जो हुआ, वो इतिहास है। कांग्रेस का जाना, लेफ्ट सरकार का आना। बंगाल में राजनैतिक हिंसा की परंपरा। सब इतिहास है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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