सामविधान ब्राह्मण: Difference between revisions

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Revision as of 07:44, 25 March 2010

सामविधान ब्राह्मण / Samvidhan Brahman

सामविधान ब्राह्मण का वैशिष्टय-सामवेदीय ब्राह्मणों के मध्य इसका तृतीय स्थान है। ताण्ड्य ब्राह्मण और षडविंश ब्राह्मण शाखान्तरीय ब्राह्मणों के समान अपने को श्रौतयागों के विवेचन तक ही सीमित रखते हैं। इसके विपरीत सामविधान ब्राह्मण जादू-टोने से सम्बद्ध सामग्री का भी प्रस्तावक है। इसमें प्रतिपादित विषय अधिकांशतया धर्मशास्त्र के क्षेत्र में आ जाते हैं। तात्पर्य यह है कि सामविधान ब्राह्मण में श्रौतयागों के साथ ही प्रायश्चित्त-प्रयोग, कृच्छ्रादि व्रत, काम्ययाग तथा विभिन्न लौकिक प्रयोजनानुवर्तित अभिचार कर्मादि भी निरूपित हैं। इस प्रकार विषय-वस्तु की दृष्टि से इस ब्राह्मण का फलक बहुत व्यापक है। ब्राह्मणग्रन्थों के मध्य इसके वैशिष्ट्य के निम्नाङिकत प्रमुख कारण हैं-

  • यज्ञविषयक दृष्टिकोण के विकास-बिन्दुओं को इसमें सरलता से परिलक्षित किया जा सकता है। यज्ञ का द्रव्यात्मक रूप, जिसके अनुष्ठान में प्रचुर समय एवं धन की आवश्यकता होती है, शनै:शनै: सरल स्वरूप दिखाई देता है। जपयज्ञ एवं स्वाध्याय-यज्ञ के रूप में यज्ञ का जो उत्तरोत्तर विस्तृत विकसित रूप आरण्यकों एवं उपनिषदों में उभरा है, उसके मूलबिन्दु सामविधान ब्राह्मण में निहित है। श्रौतयागों के समान ही इसमें स्वाध्याय एवं जप-तप को भी महत्व प्रदान किया गया है। सामविधान ब्राह्मण में उन लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए मात्र साम-गान

का विधान किया गया है, अन्यत्र जिनके लिए बहुव्यय और दीर्घकालसाध्य याग विहित हैं।

  • साम-गान को इसमें सृष्टि के लिए जीवन-साधन के रूप में बतलाया गया है-'स वा इदं विश्वं भूतमसृजत। तस्य सामोपजीवनं प्रायच्छत्'।<balloon title="सामविधान ब्राह्मण, 1.1.6" style=color:blue>*</balloon>
  • देवशास्त्रीय दृष्टि से इस ब्राह्मण में अनेक नवीन तथ्य उपलब्ध होते हैं। एक स्थल पर उदक-तर्पण के सन्दर्भ में मन्त्र दिया गया है- 'नमोऽहमाय मोहमाय महंमाय नमो नम:'।<balloon title="सामविधान ब्राह्मण 1.2.7" style=color:blue>*</balloon> इसके देवता के विषय में सायण तक ने अपनी असमर्थता प्रकट की है- 'यद्यप्यत्र देवताविशेष: स्पष्टो न प्रतीयते।' तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त मन्त्र में आये अहम, मोहम और मंहम सदृश देव-नाम देवों की पारम्परिक नामावली से भिन्न हैं। धन्वन्तरी, जो पुराणों में समुद्र मंथन से उद्भूत बतलाये गये हैं और आयुर्वेद के प्रवर्तक माने गये हैं, उन्हें इस ब्राह्मण में वरुण के साथ विशेष रूप से समीकृत किया गया है-'वरुणाय धन्वन्तरये'।<balloon title="सामविधान ब्राह्मण, 1.3.8" style=color:blue>*</balloon> सायण के अनुसार 'धन्व' का अभिप्राय जलरहित स्थान है, उसे वृष्टि के जल से तृप्त करने के कारण वरुण का 'धन्वन्तरि' नाम सार्थक है। 'विनायक' और 'स्कन्द' का देवों के मध्य उल्लेख भी उल्लेखनीय है।<balloon title="सामविधान ब्राह्मण, 1.4.19-20" style=color:blue>*</balloon> इनके अतिरिक्त भाषाशास्त्रीय एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस ब्राह्मण का विशेष महत्व है। सर्वाधिक महत्व है साम-गानों की प्रस्तुति के सन्दर्भ में, क्योंकि इसमें कतिपय ऐसे मन्त्र-प्रतीक आये हैं, जिनकी वर्तमान सामवेद-संहिता से पहचान नहीं हो पाती।

विभाग, चयन, क्रम एवं प्रतिपाद्य विषय

सम्पूर्ण सामविधान ब्राह्मण तीन प्रपाठकों और 25 अनुवाकों में विभक्त है। प्रपाठक-क्रम से विषय-वस्तु का विवरण इस प्रकार है-

  • प्रथम प्रपाठक के प्रथम अनुवाक में प्रजापति की उत्पत्ति और उनके द्वारा भौतिक सृष्टि, साम-प्रशंसा और निर्वचन, सामस्वरों के देवता, देवों के निमित्त यज्ञ और यज्ञ के अनधिकारियों के लिए स्वाध्याय तथा तप का विधान है। द्वितीय अनुवाक में कृच्छ्र और अतिकृच्छ्र व्रतों का स्वरूप तथा फल उल्लिखित है। तृतीय अनुवाक में स्वाध्याय और अग्न्याधेय के सामान्य नियम, पवमान दर्शपूर्णमास, अग्निहोत्र, पांचरात्रिक-प्रयोग, पशुबन्ध और सौत्रामणी-प्रयोगों का उल्लेख है। चतुर्थ अनुवाक में कतिपय श्रौतयागों के साथ रुद्रादि की प्रीति के साधनस्वरूप साम-गान विहित है। पंचम से अष्टमपर्यन्त अनुवाकों में अश्लील-भाषण, चोरी, अगम्यागमन, अग्राह्य-ग्रहणादि विषयक प्रायश्चित्त दिये हुए हैं।
  • सम्पूर्ण द्वितीय प्रपाठक और तृतीय प्रपाठक के तीन अनुवाकों में काम्य, रोगादिजन्यभयशमनार्थ, क्षेमार्थ और वशीकरण हेतु विभिन्न प्रयोग उल्लिखित हैं। चतुर्थ से अष्टम पर्यन्त अनुवाकों में वैविध्यपूर्ण सामग्री है, जिसमें अभीष्ट की सिद्धि अथवा असिद्धि-विषयिणी परीक्षा, राज्याभिषेक-प्रयोग, अद्भुत-अभिचार-शान्ति, युद्धविजय के निमित्त प्रयोग तथा पिशाचों के वशीकरणार्थ, पितरों और गन्धर्वों के दर्शनार्थ, गुप्तनिधि की प्राप्ति के निमित्त तथा अन्य बहुत से काम्य-प्रयोग दिये गये हैं। नवम प्रपाठक के अन्त में तीन विषयों-सामसम्प्रदाय-प्रवर्तक आचार्यों का अनुक्रम, अध्ययन के अधिकारियों तथा उपाध्याय की दक्षिणा का निरूपण करके ग्रन्थ का समापन हो जाता है।

इस प्रकार श्रौत एवं तान्त्रिक विधि-विधानों के समन्वय के सन्दर्भ में सामवेदीय ब्राह्मणग्रन्थों के मध्य इसका स्वतन्त्र वैशिष्ट्य है। इस पर अब तक सायण तथा भरतस्वामी के भाष्य मुद्रित हुए हैं। 13वीं शती ई॰ के भरतस्वामी की व्याख्या में उन स्थलों पर भी प्रकाश डाला गया है, जिन्हें सायण ने अव्याख्यात रूप में छोड़ दिया था।