ताण्ड्य ब्राह्मण

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'ताण्ड्य' नामक आचार्य द्वारा रचे जाने के कारण इसे ताण्ड्य ब्राह्मण कहा गया। इसकी विशालता के कारण इसे 'महाब्राह्मण' भी कहते हैं। इसमें 25 अध्याय होने के कारण इसे 'पंचविश' भी कहा जाता है। इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय 'सोमयाग' है। सरस्वती के पुनः विलुप्त होने तथा पुनः प्रकट होने का उल्लेख ताण्ड्व ब्राह्मण में मिलता है।

ताण्ड्य ब्राह्मण के प्रवचनकर्ता

स्वयं ताण्ड्य ब्राह्मण से इस पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता कि इसका रचयिता कौन है। हाँ, परम्परा के अनुसार ताण्डि नामक किन्हीं सामवेद के आचार्य के द्वारा प्रोक्त होने के कारण यह ताण्डि अथवा ब्राह्मण के नाम से प्रसिद्ध है।[1] सामविधान ब्राह्मण[2] में सम्प्रदायप्रवर्तक आचार्यों की जिस परम्परा का उल्लेख है, तद्नुसार तण्डि और शाट्यायन बादरायण के शिष्य थे। ॠषि तण्डि से प्रारम्भ होने वाले गोत्र का उल्लेख वंश ब्राह्मण[3] में भी है। अग्निचिति के सन्दर्भ में शतपथ ब्राह्मण[4] में ताण्ड्य नामक आचार्य का उल्लेख है। सामविधान का उल्लेख विशेष प्रामाणिक प्रतीत होता है, क्योंकि तण्डि और शाट्यायन शाखाओं का युगपद् अन्यत्र भी नाम निर्देश हुआ है।[5] प्रतीत होता है कि कौथुम-शाखा की उपशाखाओं में ताण्ड्य का महत्त्व सर्वाधिक रहा है, क्योंकि शंकराचार्य ने छान्दोग्य उपनिषद का निर्देश ताण्डिशाखियों की उपनिषद के रूप में ही किया है।[6]

ताण्ड्य ब्राह्मण का स्वरूप

ताण्ड्य ब्राह्मण का नामान्तर, 25 अध्यायों में विभक्त होने के कारण, पंचविंश ब्राह्मण भी है। आकार-प्रकार की विशालता और वर्ण्यविषयों की गरिमा के कारण यह महाब्राह्मण तथा प्रौढ़ब्राह्मण के नामों से भी जाना जाता है। सुसन्तुलित निरूपण-शैली के कारण ताण्ड्य ब्राह्मण की प्रौढ़ता स्वयंमेव लक्षित हो जाती है। ऐतरेयादि ब्राह्मणों के समान इसमें भी भीग अध्यायों को 'पंचिका' कहने की परम्परा है; इस प्रकार ताण्ड्य ब्राह्मण पंचपंचिकात्मक है। विद्वानों का विचार है कि ऐतरेयादि अन्य वेदों के ब्राह्मणों के समान सामवेदीय ताण्ड्य ब्राह्मण में भी मूलत: 40 अध्याय होने चाहिए। षडविंश ब्राह्मण और उपनिषद ब्राह्मणों को मिलाकर यह संख्या सम्पन्न भी हो जाती है। इसके अनुसार काशिकोक्त 'चत्वारिंश ब्राह्मण' शब्द ताण्ड्य ब्राह्मण के ही 40 अध्यायात्मक स्वरूप के ज्ञापनार्थ प्रयुक्त है।[7] यद्यपि षड्गुरुशिष्य का मत इसके विपरीत है।[8] इस सन्दर्भ में सत्यव्रत सामश्रमी ने सर्वाधिक दृढ़ता से ताण्ड्य ब्राह्मण के चत्वारिंशदध्यायात्मक स्वरूप का समर्थन किया है।[9] षडविंश तो स्पष्ट रूप से ताण्ड्य ब्राह्मण का भाग है।

ताण्ड्य ब्राह्मण का प्रतिपाद्यविषय

ताण्ड्य ब्रह्मण का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय सोमयाग है। अग्निष्टोमसंस्थ-ज्योतिष्टोम से आरम्भ करके सहस्त्रसंवत्सरसाध्य सोमयागों का इसमें मुख्यत: विधान किया गया है। इनके अंगभूत स्तोत्र, स्तोम और उनकी विष्टुतियों के प्रकार एवं स्तोमभाग इसमें विस्तार से विहित हैं। अध्यायानुसार विषय-वस्तु का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

  • 1-उद्गाता के लिए पठनीय यजुषात्मक मन्त्र।
  • 2-3-त्रिवृत्-पंचदशादि स्तोमों की विष्टुतियां।
  • 4-5-समस्त सत्रयागों के प्रकृतिभूत गवामयन का वर्णन।
  • 6-9 (12वें खण्ड तक)-ज्योतिष्टोम, उक्थ्य तथा अतिरात्रसंस्थ-यागों का वर्णन। नवमाध्याय के शेष खण्डों में विभिन्न प्रायश्चित्त-विधियों का वर्णन।
  • 10-15-द्वादशाह यागों का वर्णन।
  • 16-19-विभिन्न एकाह यागों का वर्णन।
  • 20-22-अहीन यागों का निरूपण्।
  • 23-25-सत्र-यागों का विधान।

कुल मिलाकर 781611 सुत्याक 178 सोमयाग इसमें निरूपित हैं। इस प्रकार ताण्ड्य ब्राह्मण का मुख्य निरूप्य विषय सोमयाग एवं तद्गत सामगान की प्रविधि का प्रस्तवन है। विविध प्रकार के साम, उनके नामकरणादि से सम्बद्ध आख्यायिकाएँ और निरुक्तियाँ भी प्रसंगत: पुष्कल परिमाण में आई हैं। यज्ञ के विभिन्न पक्षों के सन्दर्भ में आचार्यों के मध्य प्रचलित विवादों और मत-मतान्तरों का उल्लेख भी है। ताण्ड्य ब्राह्मण में निरूपित व्रात्ययज्ञ का निर्देश भी यहाँ आवश्यक है, जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ब्राह्मणयुगीन भौगोलिक सामग्री भी इसमें प्राप्य है। सोमयागों के विधान में क्रम की दृष्टि से कात्यायन और आपस्तम्ब सदृश प्रमुख श्रौतसूत्रकार ताण्ड्योक्त क्रम का ही अवलम्बन करते हैं।[10]

ताण्ड्य ब्राह्मण का वैशिष्ट्य

ताण्ड्य ब्राह्मण की रचना का समय विक्रम से तीन सहस्त्रपूर्व प्रतीत होता है। कुरु-पांचाल जनपदों से नैमिषारण्य और खाण्डव वनों के मध्य और सरस्वती-दृषद्वती नदियों तथा गंगा-यमुना की विस्तृत अन्तर्वेदी में, जिस संस्कृति का उस समय विकास हुआ, उसके सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन का सुविशद विवरण ताण्ड्य में प्राप्त होता है। तत्कालीन जनपदों और नदियों का विस्तृत भौगोलिक विवरण ताण्ड्य ब्राह्मण को गहरी ऐतिहासिक अर्थवत्ता देता है। व्रात्यसमस्या उत्तरवैदिक काल की प्रमुख सामाजिक-धार्मिक प्रहेलिका रही है। यद्यपि अथर्ववेद और वाजसनेयिसंहिताओं में भी व्रात्यविषयक विवरण है, किन्तु ताण्ड्य से इस पर प्रामाणिक और स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। तदनुसार व्रात्य भारतीय जन-समाज के ऐसे आचारहीन अंग थे, जिनकी वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति अनास्था थी। उन्हें पुन: भारतीय समाज में, संस्कृत कर लाने के लिए व्रात्यस्तोम यागों की योजना की गई। इन यागों के सन्दर्भ में, ताण्ड्य में विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। 'यतियों' का भी ऐसा ही पथभ्रष्ट वर्ग था। साहित्यिक दृष्टि से, ताण्ड्य में, 'कवि' और 'काव्य' दोनों शब्द प्राप्त होते हैं। ताण्ड्य के आरम्भ में ही काव्य की अधिष्ठात्री वाग् देवी से प्रार्थना की गई है-'देवि वेग्। यत्ते मधुमत् तस्मिन् मा धा:'। 'मनुष्यदेवा:', 'यजमानो वै प्रस्तर:'[11], 'पशवो वै बृहद्रथन्तरे' प्रभृति लाक्षणिक प्रयोग ताण्ड्य ब्राह्मण की अभिव्यक्ति-भंगिमा को तीक्ष्णता प्रदान करते हैं। यज्ञ के द्रव्यमय रूप के स्थान पर शनै:शनै जिस आत्म-यज्ञात्मक रूप का वर्णन आगे हुआ, उसके बीज ताण्ड्य ब्राह्मण में ही दिखलाई दे जाते हैं। सहस्त्रसंवत्सरसाध्य-विश्वसृजामयन याग[12] में, प्रतीकात्मकता और मानवीकरण के माध्यम से आत्मयज्ञ की ही वस्तुत: उद्भावना की गई है। इस यज्ञ में तपस्या, ब्रह्म, इरा, अमृत, भूत-भविष्यत्काल, ॠतुओं, सत्य, यश, बल, आशा अहोरात्र और मृत्यु ने विभिन्न ॠत्विजों और द्रव्यों का स्थान ग्रहण कर यज्ञ-सम्पादन किया। आशा को हविष्य बतलाकर जीवन की यज्ञरूपता का ही प्रकारान्तर से प्रतिपादन किया गया है। साम-गान के साथ ही वीणा प्रभृति वाद्यों तथा उनके अपघाटिला और वाण सदृश प्रभेदों का विवरण ताण्ड्य में है। आख्यायिकाओं का भी ताण्ड्य ब्राह्मण में अनन्त है। कुल 180 आख्यायिकाएँ इसमें हैं। दस्यु के हृदय-परिवर्तन तथा गन्धर्वों और अप्सराओं की प्रेमलीलाविषयिणि आख्यायिकाएँ इसे रोचकता प्रदान करती है।

ताण्ड्य ब्राह्मण के संस्करण

ताण्ड्य ब्राह्मण के उपलब्ध संस्करण ये हैं-

  • आनन्दचन्द्र वेदान्तवागीश द्वारा संपादित, कलकत्ता, 1870-74।
  • पं. चित्रस्वामिशास्त्री तथा पं. पट्टाभिरामशास्त्री के द्वारा दो भागों में सम्पादित तथा चौखम्बा वाराणसी संस्कृत प्रतिष्ठान से प्रकाशित (सन् 1924 तथा 1936)। इसी का कुछ वर्षों पूर्व पुनर्मुद्रण भी हो गया है (1989)।
  • डॉ. लोकेशचन्द्र द्वारा सरस्वती-विहारस्थित ताण्ड्य महाब्राह्मण के हस्तलेख का छाया-मुद्रण।
  • W. Caland का अंग्रेज़ी अनुवाद 'The BRAHMANA of Twenty Five Chapters, Calcutta, 1931.


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चित्रस्वामि शास्त्री, ताण्ड्य ब्राह्मण, पुरस्तात् निवेदनम्, पृष्ठ 2।
    • इस परम्परा का समर्थन जैमिनीय ब्राह्मण के उस अंश से होता है, जहाँ कहा गया है- 'तदु होवाच ताण्डय:।' आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में इसे 'ताण्ड्यकम्' कहा गया है। लाट्यायन श्रौतसूत्र (8.10.17) में 'पुराणम् ताण्ड्यम्' उल्लिखित है। कलान्द ने यद्यपि यहाँ किसी दूसरे प्राचीन ब्राह्मण का संकेत माना है, किन्तु उनके समर्थन में वस्तुत: कोई गम्भीर युक्ति नहीं है। भाष्यकार अग्निस्वामी ने ताण्ड्य ब्राह्मण कि 'ताण्ड्यप्रवचन' नाम दिया है।
  2. सामविधान ब्रह्मण 3.9.3
  3. वंश ब्राह्मण 2.6
  4. शतपथ ब्राह्मण 5.1.2.25
  5. अन्येऽपि शाखिन: ताण्डिम: शाट्यायिन:- ब्रह्मसूत्र, शाङ्करभाष्य, 3.3.27
  6. यथा ताण्डिनामुपनिषदि, ब्रह्मसूत्र, 3.3.36
  7. काशिका, 5.1.62
  8. ऐतरेय ब्राह्मण की सुखप्रदा व्याख्या
  9. 'अध्यायानाम् संकलनया चत्वारिंशद्ध्यायात्मकम् कौथुमब्राह्मणं सम्पद्यते ताण्ड्यनाम'। त्रयीपरिचय, पृष्ठ 121; 'पञ्चविंशं षडविंशं ब्राह्मणं च छन्दोग्योपनिषच्च- मिलित्वा ताड्यमहाब्राह्मणं भवति। -सातवलेकर, सामवेद; भूमिका, पृष्ठ 13
  10. ताण्ड्य ब्राह्मण के विषय में विशद अध्ययन के लिए देखिए लेखक का ग्रन्थ सामवेदीय ब्राह्मणों का परिशीलन (प्राप्तिस्थान-346, क़ानूनगोयल, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश
  11. ताण्ड्य ब्राह्मण 1.3.1
  12. ताण्ड्य ब्राह्मण, 25.18.2

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