महायज्ञ: Difference between revisions
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Latest revision as of 12:16, 21 March 2014
शास्त्रों में प्राणिमात्र के हितकारी पुरुषार्थ को यज्ञ कहा गया है। धर्म और यज्ञ वस्तुत: कार्य और कारण रूप से एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। वैज्ञानिक स्पष्टीकरण के लिए धर्म शब्द का साधारण रूप से और यज्ञ शब्द का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है।
यज्ञ और महायज्ञ में भेद
यज्ञ और महायज्ञ एक ही अनुष्ठान हैं, फिर भी दोनों में किंचित भेद है।
- यज्ञ में फलरूप आत्मोन्नति के साथ व्यष्टि का सम्बन्ध जुड़ा रहता है। अत: इसमें स्वार्थ पक्ष प्रबल है।
- महायज्ञ समष्टि प्रधान होता है। अत: इसमें व्यक्ति के साथ जगतकल्याण और आत्मा का कल्याण निहित रहता है। निष्काम कर्मरूप औदार्य से इसका अधिक सम्बन्ध है। इसलिए महर्षि भारद्वाज ने कहा है कि सुकौशलपूर्ण कर्म ही यज्ञ है और समष्टि सम्बन्घ से उसी को महायज्ञ कहते हैं।
यज्ञ और महायज्ञ को परिभाषित करते हुए महर्षि अंगिरा ने इस प्रकार कहा है- व्यक्तिसापेक्ष व्यष्टि धर्मकार्य को यज्ञ तथा सार्वभौम समष्टि धर्मकार्य को महायज्ञ कहते हैं। वस्तुत: शास्त्रों में जीव स्वार्थ के चार भेद बताये गये हैं- स्वार्थ, परमार्थ, परोपकार और परमोपकार। तत्त्वज्ञों के अनुसार जीव का लौकिक सुध-साधन स्वार्थ है और पारलौकिक सुख के लिए कृत पुरुषार्थ को परमार्थ कहते हैं। दूसरे जीवों के लौकिक सुख-साधन एकत्र करने का कार्य परोपकार और अन्य जीवों के पारलौकिक कल्याण कराने के लिए किया गया प्रयत्न परमोपकार कहलाता है। स्वार्थ और परमार्थ यज्ञ से तथा परोपकार और परमोपकार महायज्ञ से सम्बद्ध है। महायज्ञ प्राय: निष्काम होता है और साधक के लिए मुक्तिदायक होता है।
पंचमहायज्ञ
स्मृतियों में पंचसूना दोषनाशक पंच महायज्ञों का जो विधान किया गया है, वह व्यष्टि जीवन से सम्बद्ध है। उसका फल गौण होता है। वस्तुत: पंचमहायज्ञ उसकी अपेक्षा उच्चतर स्तर रखता है। उसका प्रमुख लक्ष्यरूप फल विश्वजीवन के साथ एकता स्थापित कर आत्मोन्नति करना है। वे पंचमहायज्ञ हैं-
- ब्रह्मयज्ञ
- देवयज्ञ
- पितृयज्ञ
- नृयज्ञ
- भूतयज्ञ
मनु के अनुसार अध्ययन-अध्यापन को ब्रह्मयज्ञ, अन्न- जल के द्वारा नित्य पितरों का तर्पण करना पितृयज्ञ, देव होम देवयज्ञ, पशु-पक्षियों को अन्नादि दान भूतयज्ञ तथा अतिथियों की सेवा नृयज्ञ है। इन पंचमहायज्ञों का यथाशक्ति विधिवत् अनुष्ठान करने वाले गृहस्थ को पंचसूना दोष नहीं लगते। इन कर्मों से विरत रहने वाले का जीवन व्यर्थ है। अध्ययन और दैवकर्म में प्रवृत्त रहने वाला व्यक्ति चराचर विश्व का धारणकर्ता बन सकता है। देवयज्ञ की अग्न्याहुति सूर्यलोक को जाती है, जिससे वर्षा होती है, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न से प्रजा का उदभव होता है। अतएव मनुष्य को ऋषि, देवता, पितृ, भक्त और अतिथि-सभी के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, क्योंकि ये सब गृहस्थ से कुछ न कुछ चाहते हैं। अत: गृहस्थ को चाहिए कि वह वेदशास्त्रों के स्वाध्याय से ऋषियों को, देवयज्ञ द्वारा देवताओं को, श्राद्ध रूप पिण्ड-जलदान के द्वारा पितरों को, अन्न द्वारा मनुष्यों को और बलिवैश्वदेव द्वारा पशु-पक्षी आदि भूतों को तृप्ति प्रदान करें। इन पंच महायज्ञों को नित्य करने वाला गृहस्थ अपने सभी धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कर्तव्यों को पूर्ण करता है एवं समस्त विश्व से अपनी एकात्मता का अनुभव करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ