प्रियप्रवास तृतीय सर्ग: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "१" to "1")
m (Text replace - "२" to "2")
Line 31: Line 31:
वह मनों कुछ निद्रित था हुआ।
वह मनों कुछ निद्रित था हुआ।
गति हुई अथवा अति - धीर थी।
गति हुई अथवा अति - धीर थी।
प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक के॥२॥
प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक के॥2॥
सकल – पादप नीरव थे खड़े।
सकल – पादप नीरव थे खड़े।
हिल नहीं सकता यक पत्र था।
हिल नहीं सकता यक पत्र था।
Line 71: Line 71:
रुदन की ध्वनि दूर समागता।
रुदन की ध्वनि दूर समागता।
वह कभी बहु थी प्रतिघातता।
वह कभी बहु थी प्रतिघातता।
जन – विवोधक – कर्कश – शब्द से॥1२॥
जन – विवोधक – कर्कश – शब्द से॥12॥
कल प्रयाण निमित्त जहाँ – तहाँ।
कल प्रयाण निमित्त जहाँ – तहाँ।
वहन जो करते बहु वस्तु थे।
वहन जो करते बहु वस्तु थे।
Line 103: Line 103:
विकलता अति – कातरता - मयी।
विकलता अति – कातरता - मयी।
विपुल थी परिवर्द्धित हो रही।
विपुल थी परिवर्द्धित हो रही।
निपट – नीरव – नंद – निकेत में॥२०॥
निपट – नीरव – नंद – निकेत में॥2०॥
सित हुए अपने मुख - लोम को।
सित हुए अपने मुख - लोम को।
कर गहे दुखव्यंजक भाव से।
कर गहे दुखव्यंजक भाव से।
विषम – संकट बीच पड़े हुए।
विषम – संकट बीच पड़े हुए।
बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे॥२1॥
बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे॥21॥
हृदय – निर्गत वाष्प समूह से।
हृदय – निर्गत वाष्प समूह से।
सजल थे युग - लोचन हो रहे।
सजल थे युग - लोचन हो रहे।
बदन से उनके चुपचाप ही।
बदन से उनके चुपचाप ही।
निकलती अति - तप्त उसास थी॥२२॥
निकलती अति - तप्त उसास थी॥22॥
शयित हो अति - चंचल - नेत्र से।
शयित हो अति - चंचल - नेत्र से।
छत कभी वह थे अवलोकते।
छत कभी वह थे अवलोकते।
टहलते फिरते स - विषाद थे।
टहलते फिरते स - विषाद थे।
वह कभी निज निर्जन कक्ष में॥२३॥
वह कभी निज निर्जन कक्ष में॥2३॥
जब कभी बढ़ती उर की व्यथा।
जब कभी बढ़ती उर की व्यथा।
निकट जा करके तब द्वार के।
निकट जा करके तब द्वार के।
वह रहे नभ नीरव देखते।
वह रहे नभ नीरव देखते।
निशि - घटी अवधारण के लिए॥२४॥
निशि - घटी अवधारण के लिए॥2४॥
सब - प्रबंध प्रभात - प्रयाण के।
सब - प्रबंध प्रभात - प्रयाण के।
यदिच थे रव – वर्जित हो रहे।
यदिच थे रव – वर्जित हो रहे।
तदपि रो पड़ती सहसा रहीं।
तदपि रो पड़ती सहसा रहीं।
विविध - कार्य - रता गृहदासियाँ॥२५॥
विविध - कार्य - रता गृहदासियाँ॥2५॥
जब कभी यह रोदन कान में।
जब कभी यह रोदन कान में।
ब्रज – धराधिप के पड़ता रहा।
ब्रज – धराधिप के पड़ता रहा।
तड़पते तब यों वह तल्प पै।
तड़पते तब यों वह तल्प पै।
निशित – शायक – विद्धजनो यथा॥२६॥
निशित – शायक – विद्धजनो यथा॥2६॥
ब्रज – धरा – पति कक्ष समीप ही।
ब्रज – धरा – पति कक्ष समीप ही।
निपट – नीरव कक्ष विशेष में।
निपट – नीरव कक्ष विशेष में।
समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे।
समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे।
अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था॥२७॥
अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था॥2७॥
निकट कोमल तल्प मुकुंद के।
निकट कोमल तल्प मुकुंद के।
कलपती जननी उपविष्ट थी।
कलपती जननी उपविष्ट थी।
अति – असंयत अश्रु – प्रवाह से।
अति – असंयत अश्रु – प्रवाह से।
वदन – मंडल प्लावित था हुआ॥२८॥
वदन – मंडल प्लावित था हुआ॥2८॥
हृदय में उनके उठती रही।
हृदय में उनके उठती रही।
भय – भरी अति – कुत्सित – भावना।
भय – भरी अति – कुत्सित – भावना।
विपुल – व्याकुल वे इस काल थीं।
विपुल – व्याकुल वे इस काल थीं।
जटिलता – वश कौशल – जाल की॥२९॥
जटिलता – वश कौशल – जाल की॥2९॥
परम चिंतित वे बनती कभी।
परम चिंतित वे बनती कभी।
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से।
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से।
Line 151: Line 151:
अति भयंकरता जब सोचतीं।
अति भयंकरता जब सोचतीं।
निपतिता तब होकर भूमि में।
निपतिता तब होकर भूमि में।
करुण क्रंदन वे करती रहीं॥३२॥
करुण क्रंदन वे करती रहीं॥३2॥
हरि न जाग उठें इस सोच से।
हरि न जाग उठें इस सोच से।
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं।
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं।
Line 191: Line 191:
कर सकी अपराध कभी नहीं।
कर सकी अपराध कभी नहीं।
पर शरीर मिले सब भाँति में।
पर शरीर मिले सब भाँति में।
निरपराध कहा सकती नहीं॥४२॥
निरपराध कहा सकती नहीं॥४2॥
इस लिये मुझसे अनजान में।
इस लिये मुझसे अनजान में।
यदि हुआ कुछ भी अपराध हो।
यदि हुआ कुछ भी अपराध हो।
Line 237: Line 237:
प्रथम भी यक संतति के लिए।
प्रथम भी यक संतति के लिए।
पर निरंतर संतति - कष्ट से।
पर निरंतर संतति - कष्ट से।
हृदय है अब जर्जर हो रहा॥५२॥
हृदय है अब जर्जर हो रहा॥५2॥
जननि जो उपजी उर में दया।
जननि जो उपजी उर में दया।
जरठता अवलोक - स्वदास की।
जरठता अवलोक - स्वदास की।
Line 277: Line 277:
अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ।
अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ।
मृदु – कुरंगम शावक से कभी।
मृदु – कुरंगम शावक से कभी।
पतन हो न सका हिम शैल का॥६२॥
पतन हो न सका हिम शैल का॥६2॥
विदित है बल, वज्र-शरीरता।
विदित है बल, वज्र-शरीरता।
बिकटता शल तोशल कूट की।
बिकटता शल तोशल कूट की।

Revision as of 10:03, 1 November 2014

प्रियप्रवास तृतीय सर्ग
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
सर्ग तृतीय
छंद द्रुतविलंबित, शार्दूल-विक्रीड़ित, मालिनी,
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल सत्रह (17) सर्ग
प्रियप्रवास प्रथम सर्ग
प्रियप्रवास द्वितीय सर्ग
प्रियप्रवास तृतीय सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्थ सर्ग
प्रियप्रवास पंचम सर्ग
प्रियप्रवास षष्ठ सर्ग
प्रियप्रवास सप्तम सर्ग
प्रियप्रवास अष्टम सर्ग
प्रियप्रवास नवम सर्ग
प्रियप्रवास दशम सर्ग
प्रियप्रवास एकादश सर्ग
प्रियप्रवास द्वादश सर्ग
प्रियप्रवास त्रयोदश सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्दश सर्ग
प्रियप्रवास पंचदश सर्ग
प्रियप्रवास षोडश सर्ग
प्रियप्रवास सप्तदश सर्ग


समय था सुनसान निशीथ का।
अटल भूतल में तम-राज्य था।
प्रलय – काल समान प्रसुप्त हो।
प्रकृति निश्चल, नीरव, शांत थी॥1॥
परम - धीर समीर - प्रवाह था।
वह मनों कुछ निद्रित था हुआ।
गति हुई अथवा अति - धीर थी।
प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक के॥2॥
सकल – पादप नीरव थे खड़े।
हिल नहीं सकता यक पत्र था।
च्युत हुए पर भी वह मौन ही।
पतित था अवनी पर हो रहा॥३॥
विविध – शब्द – मयी वन की धरा।
अति – प्रशांत हुई इस काल थी।
ककुभ औ नभ - मंडल में नहीं।
रह गया रव का लवलेश था॥४॥
सकल – तारक भी चुपचाप ही।
बितरते अवनी पर ज्योति थे।
बिकटता जिस से तम – तोम की।
कियत थी अपसारित हो रही॥५॥
अवश तुल्य पड़ा निशि अंक में।
अखिल – प्राणि – समूह अवाक था।
तरु - लतादिक बीच प्रसुप्ति की।
प्रबलता प्रतिबिंबित थी हुई॥६॥
रुक गया सब कार्य - कलाप था।
वसुमती – तल भी अति – मूक था।
सचलता अपनी तज के मनों।
जगत था थिर होकर सो रहा॥७॥
सतत शब्दित गेह समूह में।
विजनता परिवर्द्धित थी हुई।
कुछ विनिद्रित हो जिनमें कहीं।
झनकता यक झींगुर भी न था॥८॥
बदन से तज के मिष धूम के।
शयन – सूचक श्वास - समूह को।
झलमलाहट – हीन – शिखा लिए।
परम – निद्रित सा गृह – दीप था॥९॥
भनक थी निशि-गर्भ तिरोहिता।
तम – निमज्जित आहट थी हुई।
निपट नीरवता सब ओर थी।
गुण – विहीन हुआ जनु व्योम था॥1०॥
इस तमोमय मौन निशीथ की।
सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी।
कलुपिता ब्रज की महि के लिए।
तनिक थी न विराम प्रदायिनी॥11॥
दलन थी करती उसको कभी।
रुदन की ध्वनि दूर समागता।
वह कभी बहु थी प्रतिघातता।
जन – विवोधक – कर्कश – शब्द से॥12॥
कल प्रयाण निमित्त जहाँ – तहाँ।
वहन जो करते बहु वस्तु थे।
श्रम – सना उनका रव - प्रायश:।
कर रहा निशि – शांति विनाश था॥1३॥
प्रगटती बहु - भीषण मूर्ति थी।
कर रहा भय तांडव नृत्य था।
बिकट – दंट भयंकर - प्रेत भी।
बिचरते तरु – मूल – समीप थे॥1४॥
वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी।
भय – प्रदर्शन थी करती महा।
निकलती जिससे अविराम थी।
अनल की अति - त्रासकरी - शिखा॥1५॥
तिमिर – लीन – कलेवर को लिए।
विकट – दानव पादप थे बने।
भ्रममयी जिसकी विकरालता।
चलित थी करती पवि – चित्त को॥1६॥
अति – सशंकित और सभीत हो।
मन कभी यह था अनुमानता।
ब्रज समूल विनाशन को खड़े।
यह निशाचर हैं नृप – कंस के॥1७॥
अति – भयानक – भूमि मसान की।
बहन थी करती शव – राशि को।
बहु – विभीषणता जिनकी कभी।
दृग नहीं सकते अवलोक थे॥1८॥
बिकट - दंत दिखाकर खोपड़ी।
कर रही अति - भैरव - हास थी।
विपुल – अस्थि - समूह विभीषिका।
भर रही भय थी बन भैरवी॥1९॥
इस भयंकर - घोर - निशीथ में।
विकलता अति – कातरता - मयी।
विपुल थी परिवर्द्धित हो रही।
निपट – नीरव – नंद – निकेत में॥2०॥
सित हुए अपने मुख - लोम को।
कर गहे दुखव्यंजक भाव से।
विषम – संकट बीच पड़े हुए।
बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे॥21॥
हृदय – निर्गत वाष्प समूह से।
सजल थे युग - लोचन हो रहे।
बदन से उनके चुपचाप ही।
निकलती अति - तप्त उसास थी॥22॥
शयित हो अति - चंचल - नेत्र से।
छत कभी वह थे अवलोकते।
टहलते फिरते स - विषाद थे।
वह कभी निज निर्जन कक्ष में॥2३॥
जब कभी बढ़ती उर की व्यथा।
निकट जा करके तब द्वार के।
वह रहे नभ नीरव देखते।
निशि - घटी अवधारण के लिए॥2४॥
सब - प्रबंध प्रभात - प्रयाण के।
यदिच थे रव – वर्जित हो रहे।
तदपि रो पड़ती सहसा रहीं।
विविध - कार्य - रता गृहदासियाँ॥2५॥
जब कभी यह रोदन कान में।
ब्रज – धराधिप के पड़ता रहा।
तड़पते तब यों वह तल्प पै।
निशित – शायक – विद्धजनो यथा॥2६॥
ब्रज – धरा – पति कक्ष समीप ही।
निपट – नीरव कक्ष विशेष में।
समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे।
अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था॥2७॥
निकट कोमल तल्प मुकुंद के।
कलपती जननी उपविष्ट थी।
अति – असंयत अश्रु – प्रवाह से।
वदन – मंडल प्लावित था हुआ॥2८॥
हृदय में उनके उठती रही।
भय – भरी अति – कुत्सित – भावना।
विपुल – व्याकुल वे इस काल थीं।
जटिलता – वश कौशल – जाल की॥2९॥
परम चिंतित वे बनती कभी।
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से।
व्यथित था उनको करता कभी।
परम – त्रास महीपति - कंस का॥३०॥
पट हटा सुत के मुख कंज की।
विचकता जब थीं अवलोकती।
विवश सी जब थीं फिर देखती।
सरलता, मृदुता, सुकुमारता॥३1॥
तदुपरांत नृपाधम - नीति की।
अति भयंकरता जब सोचतीं।
निपतिता तब होकर भूमि में।
करुण क्रंदन वे करती रहीं॥३2॥
हरि न जाग उठें इस सोच से।
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं।
इसलिए उन का दुख - वेग से।
हृदया था शतधा अब रो रहा॥३३॥
महरि का यह कष्ट विलोक के।
धुन रहा सिर गेह – प्रदीप था।
सदन में परिपूरित दीप्ति भी।
सतत थी महि – लुंठित हो रही॥३४॥
पर बिना इस दीपक - दीप्ति के।
इस घड़ी इस नीरव - कक्ष में।
महरि का न प्रबोधक और था।
इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥३५॥
वरन कंपित – शीश प्रदीप भी।
कर रहा उनको बहु – व्यग्र था।
अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी।
मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥३६॥
जब कभी घटता दुख - वेग था।
तब नवा कर वे निज - शीश को।
महि विलंबित हो कर जोड़ के।
विनय यों करती चुपचाप थीं॥३७॥
सकल – मंगल – मूल कृपानिधे।
कुशलतालय हे कुल - देवता।
विपद संकुल है कुल हो रहा।
विपुल वांछित है अनुकूलता॥३८॥
परम – कोमल-बालक श्याम ही।
कलपते कुल का यक चिन्ह है।
पर प्रभो! उसके प्रतिकूल भी।
अति – प्रचंड समीरण है उठा॥३९॥
यदि हुई न कृपा पद - कंज की।
टल नहीं सकती यह आपदा।
मुझ सशंकित को सब काल ही।
पद – सरोरुह का अवलंब है॥४०॥
कुल विवर्द्धन पालन ओर ही।
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है।
यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही।
अति अपेक्षित है इस काल भी॥४1॥
समझ के पद - पंकज - सेविका।
कर सकी अपराध कभी नहीं।
पर शरीर मिले सब भाँति में।
निरपराध कहा सकती नहीं॥४2॥
इस लिये मुझसे अनजान में।
यदि हुआ कुछ भी अपराध हो।
वह सभी इस संकट - काल में।
कुलपते! सब ही विधि क्षम्य है॥४३॥
प्रथम तो सब काल अबोध की।
सरल चूक उपेक्षित है हुई।
फिर सदाशय आशय सामने।
परम तुच्छ सभी अपराध हैं॥४४॥
सरलता-मय-बालक श्याम तो।
निरपराध, नितांत – निरीह है।
इस लिये इस काल दयानिधे।
वह अतीव – अनुग्रह – पात्र है॥४५॥

मालिनी छंद

प्रमुदित मथुरा के मानवों को बना के।
सकुशल रह के औ’ विघ्न बाधा बचा के।
निजप्रिय सुत दोनों साथ लेके सुखी हो।
जिस दिन पलटेंगे गेह स्वामी हमारे॥४६॥
प्रभु दिवस उसी मैं सत्विकी रीति द्वारा।
परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से।
विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा।
उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥४७॥

द्रुतविलंबित छंद

यह प्रलोभन है न कृपानिधे।
यह अकोर प्रदान न है प्रभो।
वरन है यह कातर–चित्त की।
परम - शांतिमयी - अवतारणा॥४८॥
कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी।
जगत की जननी भव–वल्लभे।
जननि के जिय की सकला व्यथा।
जननि ही जिय है कुछ जानता॥४९॥
अवनि में ललना जन जन्म को।
विफल है करती अनपत्यता।
सहज जीवन को उसके सदा।
वह सकंटक है करती नहीं॥५०॥
उपजती पर जो उर व्याधि है।
सतत संतति संकट - शोच से।
वह सकंटक ही करती नहीं।
वरन जीवन है करती वृथा॥५1॥
बहुत चिंतित थी पद-सेविका।
प्रथम भी यक संतति के लिए।
पर निरंतर संतति - कष्ट से।
हृदय है अब जर्जर हो रहा॥५2॥
जननि जो उपजी उर में दया।
जरठता अवलोक - स्वदास की।
बन गई यदि मैं बड़भागिनी।
तब कृपाबल पाकर पुत्र को॥५३॥
किस लिये अब तो यह सेविका।
बहु निपीड़ित है नित हो रही।
किस लिये, तब बालक के लिये।
उमड़ है पड़ती दुख की घटा॥५४॥
‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना।
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है।
दलन को उसके भव - वल्लभे।
अब न क्या बल है तव बाहु में॥५५॥
स्वसुत रक्षण औ पर-पुत्र के।
दलन की यह निर्म्मम प्रार्थना।
बहुत संभव है यदि यों कहें।
सुन नहीं सकती ‘जगदंबिका’॥५६॥
पर निवेदन है यह ज्ञानदे।
अबल का बल केवल न्याय है।
नियम-शालिनि क्या अवमानना।
उचित है विधि-सम्मत-न्याय की॥५७॥
परम क्रूर-महीपति – कंस की।
कुटिलता अब है अति कष्टदा।
कपट-कौशल से अब नित्य ही।
बहुत-पीड़ित है ब्रज की प्रजा॥५८॥
सरलता – मय – बालक के लिए।
जननि! जो अब कौशल है हुआ।
सह नहीं सकता उसको कभी।
पवि विनिर्मित मानव-प्राण भी॥५९॥
कुबलया सम मत्त – गजेन्द्र से।
भिड़ नहीं सकते दनुजात भी।
वह महा सुकुमार कुमार से।
रण-निमित्त सुसज्जित है हुआ॥६०॥
विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा।
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी।
द्विरद क्या जननी उपयुक्त है।
यक पयो-मुख बालक के लिये॥६1॥
व्यथित हो कर क्यों बिलखूँ नहीं।
अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ।
मृदु – कुरंगम शावक से कभी।
पतन हो न सका हिम शैल का॥६2॥
विदित है बल, वज्र-शरीरता।
बिकटता शल तोशल कूट की।
परम है पटु मुष्टि - प्रहार में।
प्रबल मुष्टिक संज्ञक मल्ल भी॥६३॥
पृथुल - भीम - शरीर भयावने।
अपर हैं जितने मल कंस के।
सब नियोजित हैं रण के लिए।
यक किशोरवयस्क कुमार से॥६४॥

        विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से।
        नृपति-कंस स्वयं निज शस्त्र ले।
        विबुध-वृन्द विलोड़क शक्ति से।
        शिशु विरुध्द समुद्यत हैं हुए॥65॥

जिस नराधिप की वशवर्तिनी।
सकल भाँति निरन्तर है प्रजा।
जननि यों उसका कटिबध्द हो।
कुटिलता करना अविधेय है॥66॥

        जन प्रपीड़ित हो कर अन्य से।
        शरण है गहता नरनाथ की।
        यदि निपीड़न भूपति ही करे।
        जगत में फिर रक्षक कौन है?॥67॥

गगन में उड़ जा सकती नहीं।
गमन संभव है न पताल का।
अवनि-मध्य पलायित हो कहीं।
बच नहीं सकती नृप-कंस से॥68॥

        विवशता किससे अपनी कहूँ।
        जननि! क्यों न बनूँ बहु-कातरा।
        प्रबल-हिंसक-जन्तु-समूह में।
        विवश हो मृग-शावक है चला॥69॥

सकल भाँति हमें अब अम्बिके!
चरण-पंकज ही अवलम्ब है।
शरण जो न यहाँ जन को मिली।
जननि, तो जगतीतल शून्य है॥70॥

        विधि अहो भवदीय-विधन की।
        मति-अगोचरता बहु-रूपता।
        परम युक्ति-मयीकृति भूति है।
        पर कहीं वह है अति-कष्टदा॥71॥

जगत में यक पुत्र बिना कहीं।
बिलटता सुर-वांछित राज्य है।
अधिक संतति है इतनी कहीं।
वसन भोजन दुर्लभ है जहाँ॥72॥

        कलप के कितने वसुयाम भी।
        सुअन-आनन हैं न विलोकते।
        विपुलता निज संतति की कहीं।
        विकल है करती मनु जात को॥73॥

सुअन का वदनांबुज देख के।
पुलकते कितने जन हैं सदा।
बिलखते कितने सब काल हैं।
सुत मुखांबुज देख मलीनता॥74॥

        सुखित हैं कितनी जननी सदा।
        निज निरापद संतति देख के।
        दुखित हैं मुझ सी कितनी प्रभो।
        नित विलोक स्वसंतति आपदा॥75॥

प्रभु, कभी भवदीय विधन में।
तनिक अन्तर हो सकता नहीं।
यह निवेदन सादर नाथ से।
तदपि है करती तव सेविका॥76॥

        यदि कभी प्रभु-दृष्टि कृपामयी।
        पतित हो सकती महि-मध्य हो।
        इस घड़ी उसकी अधिकारिणी।
        मुझ अभागिन तुल्य न अन्य है॥77॥

प्रकृति प्राणस्वरूप जगत्पिता।
अखिल-लोकपते प्रभुता निधे।
सब क्रिया कब सांग हुई वहाँ।
प्रभु जहाँ न हुई पद-अर्चना॥78॥

        यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से।
        पृथक से रहते नित आप हैं।
        पर कहाँ जन को अवलम्ब है।
        प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥

विविध-निर्जर में बहु-रूप से।
यदिच है जगती प्रभु की कला।
यजन पूजन से प्रति-देव के।
यजित पूजित यद्यपि आप हैं॥80॥

 तदपि जो सुर-पादप के तले।
        पहुँच पा सकता जन शान्ति है।
        वह कभी दल फूल फलादि से।
        मिल नहीं सकती जगतीपते॥81॥

झलकती तव निर्मल ज्योति है।
तरणि में तृण में करुणामयी।
किरण एक इसी कल-ज्योति की।
तम निवारण में क्षम है प्रभो॥82॥

        अवनि में जल में वर व्योम में।
        उमड़ता प्रभु-प्रेम-समुद्र है।
        कब इसी वरवारिधि बूँद का।
        शमन में मम ताप समर्थ है॥83॥

अधिक और निवेदन नाथ से।
कर नहीं सकती यह किंकरी।
गति न है करुणाकर से छिपी।
हृदय की मन की मम-प्राण की॥84॥

        विनय यों करतीं ब्रजपांगना।
        नयन से बहती जलधार थी।
        विकलतावश वस्त्र हटा हटा।
        वदन थीं सुत का अवलोकती॥85॥

शार्दूल-विक्रीड़ित छंद

ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को।
त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ दुख भी दुर्दान्त था हो रहा।
ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं।
बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥

द्रुतविलम्बित छन्द

विकलता उनकी अवलोक के।
रजनि भी करती अनुताप थी।
निपट नीरव ही मिष ओस के।
नयन से गिरता बहु-वारि था॥87॥

        विपुल-नीर बहा कर नेत्र से।
        मिष कलिन्द-कुमारि-प्रवाह के।
        परम-कातर हो रह मौन ही।
        रुदन थी करती ब्रज की धरा॥88॥

युग बने सकती न व्यतीत हो।
अप्रिय था उसका क्षण बीतना।
बिकट थी जननी धृति के लिए।
दुखभरी यह घोर विभावरी॥89॥

पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख