प्रियप्रवास तृतीय सर्ग: Difference between revisions
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अति – प्रशांत हुई इस काल थी। | अति – प्रशांत हुई इस काल थी। | ||
ककुभ औ नभ - मंडल में नहीं। | ककुभ औ नभ - मंडल में नहीं। | ||
रह गया रव का लवलेश | रह गया रव का लवलेश था॥4॥ | ||
सकल – तारक भी चुपचाप ही। | सकल – तारक भी चुपचाप ही। | ||
बितरते अवनी पर ज्योति थे। | बितरते अवनी पर ज्योति थे। | ||
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कर रहा भय तांडव नृत्य था। | कर रहा भय तांडव नृत्य था। | ||
बिकट – दंट भयंकर - प्रेत भी। | बिकट – दंट भयंकर - प्रेत भी। | ||
बिचरते तरु – मूल – समीप | बिचरते तरु – मूल – समीप थे॥14॥ | ||
वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी। | वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी। | ||
भय – प्रदर्शन थी करती महा। | भय – प्रदर्शन थी करती महा। | ||
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निकट जा करके तब द्वार के। | निकट जा करके तब द्वार के। | ||
वह रहे नभ नीरव देखते। | वह रहे नभ नीरव देखते। | ||
निशि - घटी अवधारण के | निशि - घटी अवधारण के लिए॥24॥ | ||
सब - प्रबंध प्रभात - प्रयाण के। | सब - प्रबंध प्रभात - प्रयाण के। | ||
यदिच थे रव – वर्जित हो रहे। | यदिच थे रव – वर्जित हो रहे। | ||
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धुन रहा सिर गेह – प्रदीप था। | धुन रहा सिर गेह – प्रदीप था। | ||
सदन में परिपूरित दीप्ति भी। | सदन में परिपूरित दीप्ति भी। | ||
सतत थी महि – लुंठित हो | सतत थी महि – लुंठित हो रही॥34॥ | ||
पर बिना इस दीपक - दीप्ति के। | पर बिना इस दीपक - दीप्ति के। | ||
इस घड़ी इस नीरव - कक्ष में। | इस घड़ी इस नीरव - कक्ष में। | ||
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टल नहीं सकती यह आपदा। | टल नहीं सकती यह आपदा। | ||
मुझ सशंकित को सब काल ही। | मुझ सशंकित को सब काल ही। | ||
पद – सरोरुह का अवलंब | पद – सरोरुह का अवलंब है॥4०॥ | ||
कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। | कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। | ||
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | ||
यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही। | यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही। | ||
अति अपेक्षित है इस काल | अति अपेक्षित है इस काल भी॥41॥ | ||
समझ के पद - पंकज - सेविका। | समझ के पद - पंकज - सेविका। | ||
कर सकी अपराध कभी नहीं। | कर सकी अपराध कभी नहीं। | ||
पर शरीर मिले सब भाँति में। | पर शरीर मिले सब भाँति में। | ||
निरपराध कहा सकती | निरपराध कहा सकती नहीं॥42॥ | ||
इस लिये मुझसे अनजान में। | इस लिये मुझसे अनजान में। | ||
यदि हुआ कुछ भी अपराध हो। | यदि हुआ कुछ भी अपराध हो। | ||
वह सभी इस संकट - काल में। | वह सभी इस संकट - काल में। | ||
कुलपते! सब ही विधि क्षम्य | कुलपते! सब ही विधि क्षम्य है॥43॥ | ||
प्रथम तो सब काल अबोध की। | प्रथम तो सब काल अबोध की। | ||
सरल चूक उपेक्षित है हुई। | सरल चूक उपेक्षित है हुई। | ||
फिर सदाशय आशय सामने। | फिर सदाशय आशय सामने। | ||
परम तुच्छ सभी अपराध | परम तुच्छ सभी अपराध हैं॥44॥ | ||
सरलता-मय-बालक श्याम तो। | सरलता-मय-बालक श्याम तो। | ||
निरपराध, नितांत – निरीह है। | निरपराध, नितांत – निरीह है। | ||
इस लिये इस काल दयानिधे। | इस लिये इस काल दयानिधे। | ||
वह अतीव – अनुग्रह – पात्र | वह अतीव – अनुग्रह – पात्र है॥4५॥ | ||
'''मालिनी छंद''' | '''मालिनी छंद''' | ||
Line 210: | Line 210: | ||
सकुशल रह के औ’ विघ्न बाधा बचा के। | सकुशल रह के औ’ विघ्न बाधा बचा के। | ||
निजप्रिय सुत दोनों साथ लेके सुखी हो। | निजप्रिय सुत दोनों साथ लेके सुखी हो। | ||
जिस दिन पलटेंगे गेह स्वामी | जिस दिन पलटेंगे गेह स्वामी हमारे॥4६॥ | ||
प्रभु दिवस उसी मैं सत्विकी रीति द्वारा। | प्रभु दिवस उसी मैं सत्विकी रीति द्वारा। | ||
परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से। | परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से। | ||
विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा। | विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा। | ||
उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा | उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥4७॥ | ||
'''द्रुतविलंबित छंद''' | '''द्रुतविलंबित छंद''' | ||
Line 221: | Line 221: | ||
यह अकोर प्रदान न है प्रभो। | यह अकोर प्रदान न है प्रभो। | ||
वरन है यह कातर–चित्त की। | वरन है यह कातर–चित्त की। | ||
परम - शांतिमयी - | परम - शांतिमयी - अवतारणा॥4८॥ | ||
कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी। | कलुष - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी। | ||
जगत की जननी भव–वल्लभे। | जगत की जननी भव–वल्लभे। | ||
जननि के जिय की सकला व्यथा। | जननि के जिय की सकला व्यथा। | ||
जननि ही जिय है कुछ | जननि ही जिय है कुछ जानता॥4९॥ | ||
अवनि में ललना जन जन्म को। | अवनि में ललना जन जन्म को। | ||
विफल है करती अनपत्यता। | विफल है करती अनपत्यता। | ||
Line 245: | Line 245: | ||
बहु निपीड़ित है नित हो रही। | बहु निपीड़ित है नित हो रही। | ||
किस लिये, तब बालक के लिये। | किस लिये, तब बालक के लिये। | ||
उमड़ है पड़ती दुख की | उमड़ है पड़ती दुख की घटा॥५4॥ | ||
‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ||
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | ||
Line 285: | Line 285: | ||
अपर हैं जितने मल कंस के। | अपर हैं जितने मल कंस के। | ||
सब नियोजित हैं रण के लिए। | सब नियोजित हैं रण के लिए। | ||
यक किशोरवयस्क कुमार | यक किशोरवयस्क कुमार से॥६4॥ | ||
विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से। | विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से। |
Revision as of 10:45, 1 November 2014
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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