प्रियप्रवास तृतीय सर्ग: Difference between revisions
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बितरते अवनी पर ज्योति थे। | बितरते अवनी पर ज्योति थे। | ||
बिकटता जिस से तम – तोम की। | बिकटता जिस से तम – तोम की। | ||
कियत थी अपसारित हो | कियत थी अपसारित हो रही॥5॥ | ||
अवश तुल्य पड़ा निशि अंक में। | अवश तुल्य पड़ा निशि अंक में। | ||
अखिल – प्राणि – समूह अवाक था। | अखिल – प्राणि – समूह अवाक था। | ||
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भय – प्रदर्शन थी करती महा। | भय – प्रदर्शन थी करती महा। | ||
निकलती जिससे अविराम थी। | निकलती जिससे अविराम थी। | ||
अनल की अति - त्रासकरी - | अनल की अति - त्रासकरी - शिखा॥15॥ | ||
तिमिर – लीन – कलेवर को लिए। | तिमिर – लीन – कलेवर को लिए। | ||
विकट – दानव पादप थे बने। | विकट – दानव पादप थे बने। | ||
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यदिच थे रव – वर्जित हो रहे। | यदिच थे रव – वर्जित हो रहे। | ||
तदपि रो पड़ती सहसा रहीं। | तदपि रो पड़ती सहसा रहीं। | ||
विविध - कार्य - रता | विविध - कार्य - रता गृहदासियाँ॥25॥ | ||
जब कभी यह रोदन कान में। | जब कभी यह रोदन कान में। | ||
ब्रज – धराधिप के पड़ता रहा। | ब्रज – धराधिप के पड़ता रहा। | ||
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इस घड़ी इस नीरव - कक्ष में। | इस घड़ी इस नीरव - कक्ष में। | ||
महरि का न प्रबोधक और था। | महरि का न प्रबोधक और था। | ||
इसलिए अति पीड़ित वे | इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥35॥ | ||
वरन कंपित – शीश प्रदीप भी। | वरन कंपित – शीश प्रदीप भी। | ||
कर रहा उनको बहु – व्यग्र था। | कर रहा उनको बहु – व्यग्र था। | ||
Line 203: | Line 203: | ||
निरपराध, नितांत – निरीह है। | निरपराध, नितांत – निरीह है। | ||
इस लिये इस काल दयानिधे। | इस लिये इस काल दयानिधे। | ||
वह अतीव – अनुग्रह – पात्र | वह अतीव – अनुग्रह – पात्र है॥45॥ | ||
'''मालिनी छंद''' | '''मालिनी छंद''' | ||
Line 229: | Line 229: | ||
विफल है करती अनपत्यता। | विफल है करती अनपत्यता। | ||
सहज जीवन को उसके सदा। | सहज जीवन को उसके सदा। | ||
वह सकंटक है करती | वह सकंटक है करती नहीं॥5०॥ | ||
उपजती पर जो उर व्याधि है। | उपजती पर जो उर व्याधि है। | ||
सतत संतति संकट - शोच से। | सतत संतति संकट - शोच से। | ||
वह सकंटक ही करती नहीं। | वह सकंटक ही करती नहीं। | ||
वरन जीवन है करती | वरन जीवन है करती वृथा॥51॥ | ||
बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | ||
प्रथम भी यक संतति के लिए। | प्रथम भी यक संतति के लिए। | ||
पर निरंतर संतति - कष्ट से। | पर निरंतर संतति - कष्ट से। | ||
हृदय है अब जर्जर हो | हृदय है अब जर्जर हो रहा॥52॥ | ||
जननि जो उपजी उर में दया। | जननि जो उपजी उर में दया। | ||
जरठता अवलोक - स्वदास की। | जरठता अवलोक - स्वदास की। | ||
बन गई यदि मैं बड़भागिनी। | बन गई यदि मैं बड़भागिनी। | ||
तब कृपाबल पाकर पुत्र | तब कृपाबल पाकर पुत्र को॥53॥ | ||
किस लिये अब तो यह सेविका। | किस लिये अब तो यह सेविका। | ||
बहु निपीड़ित है नित हो रही। | बहु निपीड़ित है नित हो रही। | ||
किस लिये, तब बालक के लिये। | किस लिये, तब बालक के लिये। | ||
उमड़ है पड़ती दुख की | उमड़ है पड़ती दुख की घटा॥54॥ | ||
‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ||
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | ||
दलन को उसके भव - वल्लभे। | दलन को उसके भव - वल्लभे। | ||
अब न क्या बल है तव बाहु | अब न क्या बल है तव बाहु में॥55॥ | ||
स्वसुत रक्षण औ पर-पुत्र के। | स्वसुत रक्षण औ पर-पुत्र के। | ||
दलन की यह निर्म्मम प्रार्थना। | दलन की यह निर्म्मम प्रार्थना। | ||
बहुत संभव है यदि यों कहें। | बहुत संभव है यदि यों कहें। | ||
सुन नहीं सकती | सुन नहीं सकती ‘जगदंबिका’॥5६॥ | ||
पर निवेदन है यह ज्ञानदे। | पर निवेदन है यह ज्ञानदे। | ||
अबल का बल केवल न्याय है। | अबल का बल केवल न्याय है। | ||
नियम-शालिनि क्या अवमानना। | नियम-शालिनि क्या अवमानना। | ||
उचित है विधि-सम्मत-न्याय | उचित है विधि-सम्मत-न्याय की॥5७॥ | ||
परम क्रूर-महीपति – कंस की। | परम क्रूर-महीपति – कंस की। | ||
कुटिलता अब है अति कष्टदा। | कुटिलता अब है अति कष्टदा। | ||
कपट-कौशल से अब नित्य ही। | कपट-कौशल से अब नित्य ही। | ||
बहुत-पीड़ित है ब्रज की | बहुत-पीड़ित है ब्रज की प्रजा॥5८॥ | ||
सरलता – मय – बालक के लिए। | सरलता – मय – बालक के लिए। | ||
जननि! जो अब कौशल है हुआ। | जननि! जो अब कौशल है हुआ। | ||
सह नहीं सकता उसको कभी। | सह नहीं सकता उसको कभी। | ||
पवि विनिर्मित मानव-प्राण | पवि विनिर्मित मानव-प्राण भी॥5९॥ | ||
कुबलया सम मत्त – गजेन्द्र से। | कुबलया सम मत्त – गजेन्द्र से। | ||
भिड़ नहीं सकते दनुजात भी। | भिड़ नहीं सकते दनुजात भी। |
Revision as of 11:21, 1 November 2014
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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