प्रियप्रवास तृतीय सर्ग: Difference between revisions
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वसुमती – तल भी अति – मूक था। | वसुमती – तल भी अति – मूक था। | ||
सचलता अपनी तज के मनों। | सचलता अपनी तज के मनों। | ||
जगत था थिर होकर सो | जगत था थिर होकर सो रहा॥7॥ | ||
सतत शब्दित गेह समूह में। | सतत शब्दित गेह समूह में। | ||
विजनता परिवर्द्धित थी हुई। | विजनता परिवर्द्धित थी हुई। | ||
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मन कभी यह था अनुमानता। | मन कभी यह था अनुमानता। | ||
ब्रज समूल विनाशन को खड़े। | ब्रज समूल विनाशन को खड़े। | ||
यह निशाचर हैं नृप – कंस | यह निशाचर हैं नृप – कंस के॥17॥ | ||
अति – भयानक – भूमि मसान की। | अति – भयानक – भूमि मसान की। | ||
बहन थी करती शव – राशि को। | बहन थी करती शव – राशि को। | ||
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निपट – नीरव कक्ष विशेष में। | निपट – नीरव कक्ष विशेष में। | ||
समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे। | समुद थे ब्रज - वल्लभ सो रहे। | ||
अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु | अति – प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था॥27॥ | ||
निकट कोमल तल्प मुकुंद के। | निकट कोमल तल्प मुकुंद के। | ||
कलपती जननी उपविष्ट थी। | कलपती जननी उपविष्ट थी। | ||
Line 171: | Line 171: | ||
तब नवा कर वे निज - शीश को। | तब नवा कर वे निज - शीश को। | ||
महि विलंबित हो कर जोड़ के। | महि विलंबित हो कर जोड़ के। | ||
विनय यों करती चुपचाप | विनय यों करती चुपचाप थीं॥37॥ | ||
सकल – मंगल – मूल कृपानिधे। | सकल – मंगल – मूल कृपानिधे। | ||
कुशलतालय हे कुल - देवता। | कुशलतालय हे कुल - देवता। | ||
Line 214: | Line 214: | ||
परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से। | परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से। | ||
विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा। | विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज - पूजा। | ||
उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा | उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥47॥ | ||
'''द्रुतविलंबित छंद''' | '''द्रुतविलंबित छंद''' | ||
Line 257: | Line 257: | ||
अबल का बल केवल न्याय है। | अबल का बल केवल न्याय है। | ||
नियम-शालिनि क्या अवमानना। | नियम-शालिनि क्या अवमानना। | ||
उचित है विधि-सम्मत-न्याय | उचित है विधि-सम्मत-न्याय की॥57॥ | ||
परम क्रूर-महीपति – कंस की। | परम क्रूर-महीपति – कंस की। | ||
कुटिलता अब है अति कष्टदा। | कुटिलता अब है अति कष्टदा। |
Revision as of 11:32, 1 November 2014
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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