सांख्य दर्शन और बुद्ध: Difference between revisions
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Revision as of 12:44, 25 March 2010
सांख्य दर्शन और बुद्ध / Sankhya and Buddha
बुद्धचरितम में सांख्य दर्शन
- प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य अश्वघोष की काव्य रचना 'बुद्धचरितम्' में भी सांख्य दर्शन आचार्य अराठ के दर्शन के रूप में मिलता है।
- अश्वघोष का जीवनकाल ईसा की प्रथम शताब्दि में माना जाता है। बुद्धचरितम् में सांख्य शब्द से किसी दर्शन का उल्लेख न होने पर अराड दर्शन के सांख्य दर्शन कहने में कोई असंगति नहीं है।
- बुद्धचरितम् के अनुसार अराड कपिल की दर्शन-परम्परा के आचार्य थे। अराड जिस सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हैं उसे प्रतिबुद्ध कपिल का कहते हैं। 'सशिष्य: कपिलश्चेह प्रतिबुद्ध इति स्मृत:<balloon title="(द्वादश: सर्ग:)" style=color:blue>*</balloon>' अपने दर्शन के प्रवक्ता के रूप में वे जैगीषव्य जनक वृद्ध पाराशर के प्रति भी सम्मान व्यक्त करते हैं इसके अतिरिक्त अराड दर्शन में प्रस्तुत व प्रयुक्त पदावली भी महाभारत में प्रस्तुत सांख्य का ही स्मरण कराती है।
- बुद्धचरितम् में सांख्य दर्शन को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-
श्रूयतामयमस्माकम् सिद्धान्त: श्रृण्वतां वर।
यथा भवति संसारो यथा चैव निवर्तते॥
प्रकृतिश्च विकारश्च जन्म मृत्युर्जरैव च।
तत्वावसत्वमित्युक्तं स्थिरं सत्वं परे हि तत्॥
तत्र तु प्रकृतिर्नाम विद्धि प्रकृतिकोविद।
पञ्चभूतान्यहंकारं बुद्धिमव्यक्तमेव च॥
अस्य क्षेत्रस्य विज्ञानात् इति संज्ञि च।
क्षेत्रज्ञ इति चात्मानं कथयन्त्यात्मचिंतका:॥
अज्ञान कनंर्म तृषणा च ज्ञेया: संसारहेतव:।
स्थितोऽस्मिन्स्त्रये जन्तुस्तत् सत्त्वं नाभिवर्तते॥
इत्यविद्या हि विद्वान् स पञ्चपर्वा समीहते।
तमो मोह महामोह तामिस्त्रद्वयमेव च॥
द्रष्टा श्रोता च मन्ता च कार्यकारणमेव च।
अहमित्येवमागम्य संसारे परिवर्तते॥<balloon title="(द्वादश सर्ग से संकलित)" style=color:blue>*</balloon>
व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ के भेदज्ञान से अपवर्ग प्राप्ति सांख्य का मान्य सिद्धान्त है। बुद्धचरितम् के अनुसार प्रतिबुद्धि, अबुद्ध, व्यक्त तथा अव्यक्त के सम्यक् ज्ञान से पुरुष को संसारचक्र से मुक्ति मिलती है मोक्षावस्था शाश्वत और अपरिवर्तनशील है। इस अवस्था में वह दुख और अज्ञान से मुक्त होता है। (परमात्मा) को नित्य तथा व्यक्त पुरुष को अनित्य कहा गया है। अठारहवीं कारिका में पुरुषबहुत्व के लिए दिए गए हेतु जीवात्मा के लिए ही है। जिस के विपर्यास से साक्षी अर्कता आदि लक्षण वाला पुरुष सिद्ध होता है। चरक संहिता के उपर्युक्त उल्लेख तथा कारिका के दर्शन के उक्त स्थलों पर अभी पर्याप्त सूक्ष्म स्पष्टीकरण अपेक्षित है। शारीरस्थानम् में कितने पुरुष है? प्रश्न के उत्तर में पुरुष के भेद बताये गये हैं। इस प्रसंग में ये एक ही पुरुषतत्त्व या चेतनतत्त्व के भिन्न-भिन्न रूप हैं- ऐसा संकेत न होने से अनादि पुरुष जो कि नित्य अकारण (अहेतुक) है तथा आदि पुरुष (राशिपुरुष) जो अनित्य है ऐसे दो भेद तो ग्रहण किए जा सकते हैं। इस प्रसंग में जो पुरुषसंबंधी बातें कही गई हैं। उन्हें राशिपुरुषसंबंधी ही समझना चाहिए क्योंकि चिकित्सकीय शास्त्र का संबंध उस पुरुष से ही है। प्रकृति और विकारों के संबंध में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में कहा है-
खादीनि बुद्धिरव्यक्तमहंकारस्तथाऽष्टम:।
भूतप्रकृतिरुद्दिष्टा चिकाराश्चैव षोडश॥
बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चार्था विकारा इति संज्ञिता:॥<balloon title="शारीरस्थानम् 1/63, 64" style=color:blue>*</balloon>
जायते बुद्धिरव्यक्तताद् बुद्धयाहमिति मन्यते।
परम् खादीन्यहंकारादुत्पद्यन्ते यथाक्रमम्॥ 66॥
- यहां 'उद्दिष्टा', 'संज्ञिता', 'मन्यते', आदि पद यह सूचित करते हैं कि उपरोक्त मत पूर्व में ही स्थापित और प्रचलित थे। 'यथाक्रम' भी सूचित करता है कि इससे पूर्व में ही एक क्रम तत्त्वोत्पत्ति का स्थापित हो चुका था और यहां उसका अनुकरण ही किया गया है। स्पष्ट है पूर्व में ही स्थापित यह मत सांख्य दर्शन का है।
- चरक संहिता के शारीरस्थानम् के पांचवे अध्याय में मोक्ष संबंधी विचार इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-
मोहेच्छाद्वेषकर्ममूला प्रवृत्ति:...एवमहंकारादिभिदोर्षै:
भ्राम्यमाणो नातिवर्तते प्रवृत्तिं: सा च मूलमघस्य॥10
निवृत्तिरपवर्ग: तत्परं प्रशान्तं तदक्षरं तद्ब्रह्म स मोक्ष: ॥11॥
सर्वभाव स्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह:
योगं यथा साधयते सांख्यं संपद्यते यथा॥16॥
पश्यत: सर्वभावान् हि सर्वावस्थासु सर्वदा।
ब्रह्मभूतस्य संयोगो न शुद्धस्योपपद्यते॥21॥
नात्मन: करणाभावाल्लिगमप्युपलभ्यते।
स सर्वकारणत्यागान्मुक्त इत्यभिधीयते॥22॥