दूर हटो ऐ दुनिया वालों: Difference between revisions
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दूर हटो ऐ दुनिया वालों
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विवरण | दूर हटो ऐ दुनिया वालों एक प्रसिद्ध फ़िल्मी गीत है। |
रचनाकार | कवि प्रदीप |
फ़िल्म | किस्मत (1943) |
संगीतकार | अनिल बिस्वास |
गायक/गायिका | अमीरबाई, ख़ान मस्ताना, कोरस |
विशेष | जेल में बंद आज़ादी के दीवाने इस गीत को अक्सर गुनगुनाया करते थे, जिससे उनकी देशभक्ति की आग मद्धिम न हो। पण्डित जवाहरलाल नेहरू भी उनमें से एक थे। |
अन्य जानकारी | कवि प्रदीप का मूल नाम 'रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी' था। प्रदीप हिंदी साहित्य जगत् और हिंदी फ़िल्म जगत् के एक अति सुदृढ़ रचनाकार रहे। कवि प्रदीप 'ऐ मेरे वतन के लोगों' सरीखे देशभक्ति गीतों के लिए जाने जाते हैं। |
आज हिमालय की चोटी से फ़िर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है प्रसिद्ध भारतीय कवि और गायक प्रदीप द्वारा लिखा गया देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण एक ओजस्वी गीत है। वर्ष 1943 में फ़िल्म 'किस्मत' के लिए इस गीत को अमीरबाई और ख़ान मस्ताना ने गाया था, जबकि गीत का संगीत अनिल बिस्वास ने तैयार किया था।
रचना
‘चल-चल रे नौजवान' के बाद गीतकार प्रदीप ने ‘पुनर्मिलन’ (1940), ‘अनजान’ (1941), झूला (1941) तथा ‘नया संसार’ (1941) के गीत लिखे। ‘झूला’ में दार्शनिकता से ओतप्रोत गीत ‘न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे’ से स्वयं इसके गायक अशोक कुमार इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि यह गीत उनकी अंतिम यात्रा में बजाया जाए। फिर 1943 में सभी कीर्तिमानों को भंग करने वाली प्रदीप और अनिल बिस्वास के गीत-संगीत से सजी, अशोक कुमार की अदाकारी से मकबूल, अमीर बाई की खनकती आवाज़ में निबद्ध, टिकट खिड़की को ध्वस्त करने वाली सामाजिक आशय का सम्यक स्वरूप निरूपित करती फ़िल्म ‘किस्मत’ आई। यह फ़िल्म कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के 'रॉक्सी थियेटर' में लगातार तीन वर्ष तथा आठ महीने तक प्रदर्शित की जाती रही। प्रदीप के गीत इस फ़िल्म के प्राण थे। चाहे ‘धीरे-धीरे आ रे बादल हो’ या ‘अब तेरे बिना कौन मेरा कृष्ण कन्हैया रे’ अथवा ‘दुनिया बता हमने बिगाड़ा है क्या तेरा’ और ‘पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाय रे’ हो सभी प्रसिद्ध हुए और जन-जन के मुख पर आ गए। गीतों के रिकॉर्डों की रिकॉर्ड तोड़ बिक्री हुई। लेकिन फ़िल्म के सभी गीतों का शिरोमणि गीत था- आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है।
गीत का प्रभाव
‘चल-चल रे नौजवान’ की तरह गीत को भी दर्शकों की मांग पर सिनेमा घरों में दुबारा दिखाना पड़ता था। जेल में बंद आज़ादी के दीवाने इस गीत को अक्सर गुनगुनाया करते थे, जिससे उनकी देशभक्ति की आग मद्धिम न हो। पण्डित जवाहरलाल नेहरू उनमें से एक थे। अनिल बिस्वास के निर्देशन में अमीरबाई की आवाज़ ने इस गीत को अमर कर दिया। इस गीत का इतना प्रभाव था कि इसके बारे में विश्वास गुप्त लिखते हैं कि- "इसने 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के तुरंत बाद जनता में नई चेतना का संचार किया, देश के नौजवानों में नए प्राण फूंक दिए।"
तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को प्रदीप की यह हुंकार नागवार लगी। उसे लगा इस गीत से हुकूमत के विरुद्ध बगावत का ऐलान किया गया है। अंग्रेज़ों को लगा कि यह उन्हें भारत से बाहर निकालने की फ़िल्म वालों की गहरी साजिश है। अत: इस गाने की जब्ती के बाद डिंफ़ेंस ऑफ़ इण्डिया रूल्स की धारा 26 के तहत गीतकार प्रदीप को जांच के बाद अनिश्चित काल के लिए जेल भेजा जा सकता था। अभियोजन अधिकारी धर्मेंद्र गौड़ को इस मामले की जांच करने को कहा गया। उन्होंने कई बार फ़िल्म देखने के बाद अपनी रिपोर्ट देते हुए कहा- “इस गाने में प्रदीप ने जर्मनी और जापान को अपना निशाना बनाया है, अंग्रेज़ों को नहीं। प्रदीप धोती-कुर्ता पहनते जरूर हैं, पर वे कांग्रेसी नहीं हैं और न ही क्रांतिकारी।“ मामला समाप्त हुआ। वास्तव में प्रदीप जानते थे कि इस गीत अंग्रेज़ हाय-तौबा मचाएंगे, इस कारण उन्होंने गीत में एक पंक्ति डाल दी थी- “तुम न किसी के आगे झुकना, जर्मन हो या जापानी। यही पंक्ति अभियोजन अधिकारी की जाँच का आधार बनी।
नेहरू जी का कथन
इस गीत का उल्लेख करते हुए नेहरू जी ने अपने संस्मरणों में लिखा है- "प्रदीप जी दूरदर्शी थे, उन्होंने चित्रपट की क्षमता को पहचान कर एक सशक्त माध्यम के रूप में उसका इस्तेमाल किया।" प्रदीप ने एक अवसर पर नेहरू जी से कहा था- "देशभक्ति के गीत लिखना मेरा रोग है, मैं इस रोग से ग्रस्त हूँ।" प्रदीप के अधिकांश फ़िल्मी गीत विशद व्याख्या की मांग करते हैं। उनका राष्ट्र प्रेम तो सिद्ध था, साथ ही उनका साहित्यकार मन सदा उनके साथ रहा। जहाँ स्थान मिलता, वहाँ रस की निष्पत्ति करने, रस की निष्पत्ति के लिए आवश्यक गुणों का आधान करने और अलंकारों की आभूषण माला पहनाने से नहीं चूकते थे।
आज हिमालय की चोटी से फ़िर हम ने ललकारा है |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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