प्रमेय -न्याय दर्शन: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "पृथक " to "पृथक् ") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "अर्थात " to "अर्थात् ") |
||
Line 17: | Line 17: | ||
#[[अपवर्ग -न्याय दर्शन|अपवर्ग]]- बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।<ref>न्यायसूत्र 1/1/22</ref> | #[[अपवर्ग -न्याय दर्शन|अपवर्ग]]- बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।<ref>न्यायसूत्र 1/1/22</ref> | ||
भाष्यकार ने वैशेषिक शास्त्र के पदार्थों को भी यहाँ प्रमेय में समाविष्ट किया है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय आदि भी प्रमेय कहे गये हैं। इन पदार्थों के भेद-प्रभेद चूँकि असंख्य हैं, अतएव नैय्यायिकों को अनियत प्रमेयवादी कहा गया है। न्यायमत में प्रमेय अनन्त हैं, किन्तु उन प्रमेयों में आत्मा आदि उपर्युक्त बारह प्रमेयों का तत्त्वसाक्षात्कार सकल पदार्थविषयक विथ्याज्ञान की [[निवृत्ति]] के द्वारा मुक्ति का साक्षात्कार होता है। अतएव इन्हें प्रमेय | भाष्यकार ने वैशेषिक शास्त्र के पदार्थों को भी यहाँ प्रमेय में समाविष्ट किया है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय आदि भी प्रमेय कहे गये हैं। इन पदार्थों के भेद-प्रभेद चूँकि असंख्य हैं, अतएव नैय्यायिकों को अनियत प्रमेयवादी कहा गया है। न्यायमत में प्रमेय अनन्त हैं, किन्तु उन प्रमेयों में आत्मा आदि उपर्युक्त बारह प्रमेयों का तत्त्वसाक्षात्कार सकल पदार्थविषयक विथ्याज्ञान की [[निवृत्ति]] के द्वारा मुक्ति का साक्षात्कार होता है। अतएव इन्हें प्रमेय अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञेय कहा गया है। | ||
Latest revision as of 07:44, 7 November 2017
न्याय दर्शन में प्रमाण के वाद प्रमेय का उल्लेख हुआ हा। प्रथम सूत्र में उल्लिखित तत्त्वज्ञान से प्रमिति अभिप्रेत है, जिसकी उत्पत्ति में इसके विषय अपेक्षित होते जो प्रमेय कहलाते हैं। वस्तुमात्र, जो प्रमाण से सिद्ध किया जाता है, प्रमेय होता है अतएव महर्षि गौतम ने अवसर पर प्रमाण को भी प्रमेय कहा है- ‘प्रमेया च तुला प्रामाण्यवत्‘ (2/1/16)। जैसे सुवर्ण आदि द्रव्य के गुरुत्व विशेष का निर्धारण तराजू (तुला) से होता है, उस समय तराजू (तुला) गुरुत्व निर्धारक होने से प्रमाण माना जाता है। किन्तु उस तराजू (तुला) में ही यदि किसी का सन्देह हो तो दूसरे तराजू पर उसे रखकर उसके प्रामाण्य की परीक्षा की जाती है, तब वह प्रमेय हो जाता है। इसी तरह प्रमेय के साधक प्रत्यक्ष आदि प्रमाण हैं, किन्तु उनमें यदि प्रामाण्य सन्दिग्ध हो जाए तो प्रमाणान्तर से उसकी प्रामाण्यसिद्धि के समय वह प्रमाण भी प्रमेय हो जाता है।
मुमुक्षुओं के लिए इस प्रमेय पदार्थ का ज्ञान आवश्यक है। प्रकृष्ट - सर्वश्रेष्ठ, मेय-ज्ञेय= प्रमेय बारह प्रकार के यहाँ हे गये हैं[1]:-
- आत्मा- पहला प्रमेय है आत्मा,, जिसके इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख, और ज्ञान अनुमापक हेतु हैं।[2]
- शरीर- दूसरा प्रमेय शरीर है। आत्मा के प्रयत्न से जो क्रिया होती है उसका नाम है चेष्टा। इस चेष्टा का आश्रय शरीर होता है।
- इन्द्रिय- तीसरा प्रमेय इन्द्रिय है। यद्यपि छठां प्रमेय मनस भी इन्द्रिय है। तथापि मनस के विषय में विशेष ज्ञान के लिए यहाँ उसका पृथक् उल्लेख किया गया है।
- अर्थ- चौथा प्रमेय का नाम अर्थ है यह इन्द्रिय का अर्थ होता है। क्रमश: पाँच इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य पाँच विशेष गुण - गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द को इन्द्रियार्थ कहते हैं।[3]
- बुद्धि- पाँचवाँ प्रमेय बुद्धि है। ‘बुद्धयते येनेति बुद्धि:’ जिसके द्वारा ज्ञान होता है- इस अर्थ में निष्पन्न ‘बुद्धि’ शब्द यद्यपि जीव के अन्त:करण अथवा मनस का वाचक है।
- मन- छठा प्रमेय मनस है। जीव के सुख तथा दु:ख आदि के मानस-प्रत्यक्ष का कारण अन्तरिन्द्रिय मनस है।
- प्रवृत्ति- सातवाँ प्रमेय है प्रवृत्ति । मनुष्यों के शुभाशुभ कर्म[4] प्रवृत्ति पद से लिये जाते हैं।
- दोष- आठवाँ प्रमेय है दोष। जीवात्मा के राग, द्वेष और मोह इन तीनों को दोष कहते हैं।[5]
- प्रेत्यभाव- नवम प्रमेय है प्रेत्यभाव। इसका अर्थ होता है मरण के बाद जन्म।[6]
- फल- दसवाँ प्रमेय है फल। इसके दो प्रकार हैं- मुख्य और गौण।
- दु:ख- ग्यारहवाँ प्रमेय है दु:ख। दु:ख क्या है- इसके ज्ञान के बिना अपवर्ग-प्राप्ति का अधिकार ही नहीं बनता है।
- अपवर्ग- बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।[7]
भाष्यकार ने वैशेषिक शास्त्र के पदार्थों को भी यहाँ प्रमेय में समाविष्ट किया है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय आदि भी प्रमेय कहे गये हैं। इन पदार्थों के भेद-प्रभेद चूँकि असंख्य हैं, अतएव नैय्यायिकों को अनियत प्रमेयवादी कहा गया है। न्यायमत में प्रमेय अनन्त हैं, किन्तु उन प्रमेयों में आत्मा आदि उपर्युक्त बारह प्रमेयों का तत्त्वसाक्षात्कार सकल पदार्थविषयक विथ्याज्ञान की निवृत्ति के द्वारा मुक्ति का साक्षात्कार होता है। अतएव इन्हें प्रमेय अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञेय कहा गया है।