कंकाल (उपन्यास)

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जयशंकर प्रसाद कृत उपन्यास जो 1929 में प्रकाशित हुआ था। प्रसाद मुख्यतया आदर्श की भूमिका पर कार्य करने वाले रचनाकार हैं किंतु 'कंकाल' उनकी एक ऐसी कृति है जिसमें पूर्णतया यथार्थ का आग्रह है। इस दृष्टि से उनका यह उपन्यास विशेष स्थान रखता है।

पात्र और चरित्रचित्रण

'कंकाल' में देश की सामाजिक और धार्मिक स्थिति का अंकन है और अधिकांश पात्र इसी पीठिका में चित्रित किये गये हैं। नायक विजय और नायिका तारा के माध्यम से प्रेम और विवाह जैसे प्रश्नों से लेकर जाति-वर्ण तथा व्यक्ति-समाज जैसी समस्याओं पर लेखक ने विचार किया है।

कथावस्तु और यथार्थ

इस उपन्यास की कथावस्तु मुख्यतया मध्यमवर्ग से सम्बन्ध रखती है और समाज के पर्याप्त चित्रों को उभारा गया है जिनमें वर्तमान का एक सश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत हो सके। वेश्यालयों की स्थिति के साथ ही काशी, प्रयाग, हरिद्वार जैसे तीर्थस्थानों के साधु-संतों का वर्णन एक विरोध प्रतीत होता है पर यथार्थ को विस्तार देने की दृष्टि से ऐसा करना नितांत आवश्यक था। यथार्थ-सामाजिक यथार्थ को उपन्यास में अंकित करने के लिए प्रसाद ने कहीं-कहीं व्यंग्य का आश्रय भी ग्रहण किया है, जो उनकी प्रवृत्ति के अधिक अनुकूल नहीं, पर यथार्थ की सार्थकता तीखे व्यंग्य में ही होती है। 'कंकाल' में ऐसा समाज अंकित है जिसकी आधारभूमि हिल गयी हो। पुरानी मान्यताएँ और विश्वास इसमें धराशायी हैं। बड़े कुलीन घरानों में क्या हाल है, इसे नायक-नायिका के जीवन में देखा जा सकता है। धर्म के ठेकेदार पादरी किसी युवती की परिस्थिति का लाभ उठाकर उसे प्रेमपाश में आबद्ध करने की चेष्टा करते हैं, समाज में स्त्रियों की स्थिति का संकेत करती हुई घण्टी एक स्थल पर कहती है-

"हिन्दु स्त्रियों का समाज ही कैसा है, इसमें उनके लिए कोई अधिकार हो तब तो सोचना-विचारना चाहिए...।"

इसी प्रकार यमुना कहती है -

"कोई समाज स्त्रियों का नहीं बहन! सब पुरुषों के हैं, स्त्रियों का एक धर्म है, आघात सहन करने की क्षमता..।"

नवीन जागरण पर आधरित

जो सामाजिक विषमता, अन्धविश्वास, भेदभाव, पाखण्ड प्रचलित है उसके स्थान पर प्रसाद उदार मानवीयता पर आधारित एक नया समाज चाहते हैं। 'कंकाल' का यही प्रतिपाद्य है। कहा जा सकता है कि जो नवीन जागरण बीसवीं शती में अपने देश में आया है उसी की भूमिका पर कंकाल की रचना हुई है।

कथाशिल्प

'कंकाल' एक ऐसे रचनाकार की कृति है जो मुख्यतया कवि है। यथार्थ का चित्रण होते हुए भी इसमें प्रसाद की भावुकता कहीं-कहीं झलकती है और लम्बे उद्धरणों में जहाँ विचारों का क्रम है, यह अधिक स्पष्ट है। उपन्यास में घटनाओं की संख्या अधिक है और कथाक्रम की सुन्दर योजना में कुछ बाधा पड़ती है। कुछ लोग इसे प्रसाद की प्रचारात्मक दृष्टि कह सकते हैं, पर सामाजिक यथार्थ का विश्लेषण करने वाला लेखक अपने विचारों को किसी न किसी प्रकार प्रकट करेगा ही।

समाज-दर्शन

'कंकाल' की शक्ति उसका समाज-दर्शन है, जिसमें निश्चित रूप से व्यक्ति की प्रतिष्ठा है पर व्यक्ति का यह स्वातंत्र्य सामाजिक दायित्व तथा व्यापक मानवीयता पर आधारित है। बीसवीं शती में जो सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना देश में विकसित हुई है, उसका प्रभाव कंकाल पर स्पष्ट है।


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